जटायु के कटे पंख, खण्ड-27 / मृदुला शुक्ला

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विद्यालय में बहुत कुछ बदल रहा था। कई मित्रा शिक्षक अपने बेहतर भविष्य को सोच कर दूसरे स्कूल या विभाग में जा रहे थे। गुटबाजी और राजनीति धीरे-धीरे हावी हो रही थीं। सुवास और चित्रा दोनों ही इस सबसे उ$बने लगे थे। संकेत की एक बहन प्रतीक्षा का जन्म भी हो गया था, उस समय भी चित्रा ने बहुत तनाव झेले थे। कई सीनियर टीचर के जाने से सुवास से काम तो वरीय शिक्षक का लिया जाता था, परन्तु महत्त्वपूर्ण फैसले के समय उसका बिहारी होना और हिन्दी मीडियम की पढ़ाई शायद प्रबंधक के साथ मीटिंग में आड़े आ जाते थे। क्षेत्राीयता हावी हो रही थी, जिससे सुवास को अपनी उपेक्षा असह्य लगने लगती। ऐसी स्थिति में चित्रा ही उसे समझाती।

इधर एक नई समस्या आ रही थी। उस दिन भी सुवास विद्यालय में हुई घटना का जिक्र कर रहा था, "चित्रा, हमारे स्कूल के लड़कों को क्या हो गया है। बड़ी क्लास के लड़के शरारत तो करते ही थे पर अब ये मारपीट भी करने लगे हैं, वह भी गुटों में बँटकर। कोई किसी को महतो होने के कारण चिढ़ाता है तो किसी को जाति के नाम पर ठगने का आरोप लगाता है।"

चित्रा ने कहा, "ये उम्र तो अल्हड़ होती है, किसी बात को गंभीरता से नहीं लेती। इसको लेकर क्यों परेशान होते हो, ये सब एक हो जाएंँगे।"

"नहीं चित्रा मैं भी यही सोच रहा था, लेकिन जब से आरक्षण वाली आग फैली थी, सिन्हा जी के बेटे ने दिल्ली में हुई घटना को बताया था, तब से ये लोग हमेशा दो गुटों में मिलकर ही लड़ते हैं, इनके बीच सुलह हो ही नहीं रही। मैं क्लास टीचर हूँ, मुझे कैसे नहीं चिन्ता होगी।"

चित्रा घर को सहेजने में व्यस्त हो गई, बोली, "सब ठीक हो जाएगा, आपको याद है ना एक बार वरुण को भी बड़ी परेशानी हुई थी बेटे के कारण। साथ रहते-रहते सबके साथ स्वाभाविक लगाव हो ही जाता है। वरुण या उसके बेटे में कोई कुंठा नहीं है, ना ही लोग उसे अनदेखा कर सकते हैं।" वे लोग बात कर ही रहे थे कि वरुण अपने हाथों में कुछ कागज लिए हुए आ गया।

वरुण की बेटी स्नेहा ने शादी से एकदम इनकार कर दिया था। घर में बहुत हो हल्ला हुआ। वरुण कई माह से सो नहीं पा रहा था। पत्नी हमेशा बेटी को डाँटती फटकारती रहती। गाँव में सबलोग वरुण को ही दोष दे रहे थे। उस समय सुवास और चित्रा का सहारा तो था ही लेकिन एक बड़ा निर्णय वरुण ने लिया था। स्नेहा अपने साथी रमेन्द्र गिरी से प्यार करती थी। पेटरवार से राँची पढ़ने जाने के क्रम में उनके बीच दोस्ती हुई और अब दोनों अड़ गए थे। गिरी के पिता अपनी ठसक में थे। वरुण ने बेटी का साथ दिया था। जब समझाने के बाद भी रमेन्द्र के पिता नहीं माने तब वरुण ने दोनों को बिठाकर समझाया कि जब तक दोनों अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते, विवाह की बात भूल जाओ, उसके बाद विवाह तुम्हारी मर्जी से होगा। दोनों ने इस सच्चाई को स्वीकार किया। रमेन्द्र की पढ़ाई के दो वर्ष बचे थे, इसलिए स्नेहा ने पिता से बी.एड। करने की इच्छा जताई. वरुण राँची जाकर बी.एड का फार्म लेकर आया तो साथ में बिहार-शिक्षक पात्राता परीक्षा का फार्म भी लेता आया था। उसी को देकर बोला, "सुवास जी आप इस फार्म को भर दें और चित्रा मैडम भी साथ ही फार्म भर देंगी तो दोनों की सरकारी नौकरी पक्की। मैं तो ओवरएज हो गया हूँ और घर के पास की नौकरी ही मेरे लिए अच्छी है।"

सुवास ने चित्रा की ओर फार्म बढ़ा दिया यह कहकर कि "सरकारी नौकरी अब मैं नहीं कर सकता।"

वरुण ने समझाया, "आप इस चोपड़ा के नीचे काम करते रहेंगे और प्रमोशन के समय चोपड़ा आपकी अनदेखी करता रहेगा, ये अच्छा लगता है और सबसे बड़ी बात क्या आप सरकारी नौकरी इसलिए नहीं कर रहे कि गरीबों के बच्चे वहाँ पढ़ते हैं, यह तो आपके स्वभाव के अनुकूल नहीं है।"

चित्रा चुपचाप बैठी सुन रही थी। वरुण की अन्तिम बात सुनते-सुनते सुवास के ओठों पर हँसी आ गई. उसने फार्म को हाथ में लेकर देखना शुरू किया तब चित्रा ने वरुण को चिढ़ाया, "वरुण जी आपको नया पड़ोसी चाहिए, इसीसे हमें भगाना चाहते हैं।"

वरुण ने धीरे से कहा, "सुवास जी पड़ोस में नहीं चित्रा मैम, यहाँ रहते हैं" उसने दिल पर अपना हाथ रखकर कहा तो चित्रा की आँखें भींग गई और सुवास ने खड़े होकर वरुण को अपने से सटा लिया।

चित्रा ने फार्म तो भर दिया, लेकिन सुवास को इस बात के लिए मना लिया कि वह अभी फार्म जमा नहीं करेगी क्योंकि पहले सुवास स्वयं तैयारी करे यहाँ से बाहर निकलने की।

सरकारी नौकरी एक साथ हो भी जाएँ तो वे अलग-अलग जगह बिखर जाएँगे, यही सोच कर केवल सुवास ने फार्म भर दिया। शिक्षक पात्राता परीक्षा भी हो गई और उसे नियुक्ति पत्रा भी मिल गया। इस सब में साल भर लग गया।

सुवास उधेड़बुन में पड़ा था, वह चित्रा को इस तनाव भरे बोझिल माहौल में छोड़कर जाना नहीं चाहता था। लेकिन लोन के पैसे भरने के बाद सुवास के पास उतने पैसे नहीं बच रहे थे। नई जगह पर परिवार की जिम्मेवारी अकेली नौकरी से नहीं उठा सकता था। चित्रा भी इसे अव्यावहारिक मान सुवास को कुछ दिनों के लिए अकेले जाने की हिम्मत दे रही थी।

सुवास हजारीबाग, अपनी नई सरकारी नौकरी में योगदान के लिए चला गया था। चित्रा के लिए बड़े कठिन दिन थे। अकेले सारी जिम्मेवारियों को उठाना था। सुवास के रहते स्कूल में जो एक सुरक्षा कवच था, वह भी छिन चुका था। फिर भी चित्रा अपने स्वभाव और अपने दोस्तों पड़ोसियों के निश्छल स्नेह के कारण रह पा रही थी। सुवास के पत्रा अक्सर आते और समय मिलने पर सुवास भी आकर उसकी परेशानियों को बाँट लेता था। फिर विद्यालय के बच्चे थे, जो चित्रा की सहायता के लिए सदा तैयार रहते। बच्चों को संभालने में जब ज़्यादा परेशानी होती, वर्माजी अपनी पत्नी को गोमिया पहुँचा देते थे। सेवानिवृति के पश्चात उन्होंने धनबाद में ही एक पुराना घर खरीद लिया था।

सुवास लगातार चित्रा के लिए हजारीबाग में नौकरी के लिए प्रयास कर रहा था, लेकिन वह सफल नहीं हो पा रहा था। वर्माजी की तबीयत खराब होने से माँ भी गोमिया नहीं आ पा रही थी। बच्चे बहुत जिद करते, विद्यालय का माहौल भी बेगाना-सा लगता। स्टाफरूम में लोग कभी-कभी व्यंग्य से कुछ सुना देते। कभी बिना वजह सरकारी स्कूल की दुर्दशा का बखान करने लगते, कभी उसे सुना कर कहते कि "जो यहाँ से गए हैं, वही पछता रहे हैं, वहाँ तो ढंग से तनख्वाह तक नहीं मिलती।"

चित्रा को यह सब बड़ा अपमानजनक लगता। चित्रा की सेहत निरन्तर गिरती जा रही थी। सुवास ने देखा तो कहा, "चित्रा दो साल तुमने काट लिए, प्रतीक्षा भी अब उतनी छोटी नहीं रह गई, चलो हम एक ही नौकरी में गुजारा कर लेंगे।"

चित्रा ने भी बुझे मन से कहा, "मैं भी यही सोच रही थी कि अब हम आर्थिक रूप से इतने कमजोर नहीं हैं और बच्चों को जब वहीं पढ़ाना है तो नए सत्रा में चले ही जाएँ आप घर वगैरह खोज लें, मैं कल त्यागपत्रा के साथ तीन महीने की नोटिस दे दूंगी।"

सुवास को लगा कि सचमुच चित्रा परिवार और नौकरी के बीच अकेली रह गई है और उसे थोड़ा आराम चाहिए. यों भी मन के टूटने से बड़ा दर्द कुछ नहीं होता। स्कूल में अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बाद भी अगर शिक्षक को अवहेलना और पक्षपात का सामना करना पड़ता है, तो अपने विद्यार्थियों के भविष्य की वजह से शिक्षक अपने काम से मुँह भी नहीं मोड़ सकता, सिर्फ़ लाचारी और मजबूरी से बंधा रहता है। यही सब सोचकर जब अगली बार होली की छुट्टी पड़ी, वह परिवार को हजारीबाग ले आया था। बगल में रहने वाले नंदकिशोर पटवारी की बड़ी-सी दुकान थी बाज़ार में। उन्हीं से बातों में पता चला कि डी.ए.वी स्कूल में टीचर की बहाली हो रही थी और वे उस इंटरव्यू कमेटी के मेम्बर भी थे। वे चित्रा से बोले कि "सुवास जी तो इतने व्यस्त रहते हैं कि उनसे कभी बात हुई ही नहीं और ऐसे भी छुट्टी के दिन तो ये मिलते ही नहीं थे।" उनकी सलाह पर उसने अपना आवेदनपत्रा, सभी प्रमाणपत्रा के साथ जमा कर दिया। इंटरव्यू का दिन रविवार पड़ता था, जिसे गोमिया से आकर ही दे दिया।

इस तरह चित्रा को अनायास ही नई नौकरी और सुवास के साथ रहने की खुशी मिल गई. नंदकिशोर पटवारी की वजह से चित्रा को अनुभव लाभ के रूप में वेतन वृद्धि भी मिल गई. वैसे भी गोमिया पब्लिक स्कूल की सुविधाओं और स्तर से सभी परिचित थे, इसलिए विद्यालय परिवार में चित्रा के आने से खुशी ही हुई. अब सुवास और चित्रा की ज़िन्दगी दूसरी ही थी। वे कॉलोनी के सुव्यवस्थित समाज और क्षेत्रा से अलग किराए के घर में रह रहे थे, जहाँ चारो ओर अलग-अलग तरह के लोग थे, सड़कों पर गंदगी होती थी, स्ट्रीट लाइट अक्सर खराब रहती और बिजली की आँखमिचौली होती रहती थी। सुवास का स्कूल सात किलोमीटर की दूरी पर था। वह मोटरसाइकिल से आता जाता। चित्रा दोनों बच्चों के साथ अपने स्कूल के लिए नौ बजे निकल जाती। ज़िन्दगी एक दूसरी दिशा की ओर जा रही थी। गोमिया का सुरक्षित घेरा सभ्रांत लोगों के बीच उठना-बैठना और सुविधाएँ सभी छूट चुके थे। लेकिन एक साथ रहने और वहाँ की कड़वाहट की स्मृति से यहाँ सब अच्छा ही लग रहा था। साल भर बाद सुवास का तबादला तीस किलोमीटर दूर हो गया तब परेशानी बढ़ गई थी।

चित्रा को स्कूल से बाज़ार करके घर वापस आते-आते शाम हो गई थी। घर आकर दोनों बच्चों के साथ दरवाजा खोलकर अंदर गई तो बिजली की लाइन कटी हुई थी। पहले सोचा कि लोडशेडिंग होगी, लेकिन आठ बजे के बाद बाहर झाँका तो, सभी के घरों की रोशनियाँ झिलमिला रही थीं। घर में मोमबत्ती को जलती छोड़, टार्च लेकर बाहर निकली और पड़ोस की दुकान में जाकर बताया कि उसके घर लाइट नहीं जल रहीं। केशो साह का बेटा साथ ही घर आया देखकर बताया, "आपके यहाँ फ्यूज उड़ गया है आंटी, मैं भैया को बुला देता हूँ, वह बना देगा।" प्रतीक्षा जोर-जोर से रो रही थी और संकेत उसे चुप कराना चाह रहा था। बिजली के इस आने जाने से बच्चे अक्सर रो देते थे। यहाँ के घरों के बिजली के तार इस कदर जर्जर और उलझे थे कि आए दिन फ्यूज उड़ जाते थे। चित्रा ने उस दिन, उस लड़के से फ्यूज ठीक करना भी सीखा, आखिर कब तक वह लोगों को परेशान करती रहती।

रविवार की रात जब सुवास बैठा खाना खा रहा था, बिजली फिर से चली गई. सुवास ने थाली पीछे कर, हाथ में टार्च उठाया, तब तक चित्रा मोमबत्ती जलाकर फ्यूज ठीक कर चुकी थी। सुवास ने हैरानी से कहा-यह तुमने कैसे कर दिया मैं तो आ ही रहा था। चित्रा ने कुर्सी से उतरते हुए चंचलता से कहा, "अगर सुवास सर यहाँ नहीं रहेंगे तो क्या हमारे बच्चे अँधेरे में रहेंगे?"

सुवास ने हाथो से सहारा देते हुए कहा, "चित्रा तुममें हर परिस्थिति से लड़ने की ताकत है।"

चित्रा ने धीरे से कहा, "सिर्फ तुमसे हार जाती हूँ।"

सुवास ने गंभीर होकर पूछा, "ऐसा तुमने सोचा भी कैसे?"

"क्योंकि मैं चाहकर भी तुम्हें आजकल खुश नहीं देख पाती हूँ।"

सुवास थोड़ी देर चुप रहा। फिर खाने पर बैठा तो बोलने लगा, "आज तक प्राइवेट या पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहा था, जहाँ अच्छे खाते पीते घर के बच्चे आते थे, अब देश की सही तस्वीर देख रहा हूँ। बच्चे स्कूल आना ही नहीं चाहते, माता पिता स्कूल में नामांकन करवा कर निश्चिंत हैं, उनके पास काम बहुत है। शिक्षकों के लिए काम अनेक हैं लेकिन काम की प्रवृति नहीं है। बच्चे पढ़ाई में इतने कमजोर हैं कि समझ में नहीं आता उसे अन्य विद्यालय के बच्चों बराबर कैसे खड़ा करूं, ये क्या और कैसे देश का भविष्य बनेंगे, इसी सब से मन में कुछ मथता रहता है।"

"सुवास, सवाल यह नहीं है कि हम क्या करना चाहते, सिर्फ़ यह है कि हम कुछ करना चाहते हैं। तुम्हारा यह सोचना ही एक सकारात्मकता की ओर ले जाता है।"

"चित्रा, तुम्हें अभी शायद अनुभव नहीं है, क्योंकि तुम अभी भी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ा रही हो। मैंने भी पढ़ाई हिन्दी मीडियम और सरकारी स्कूल से की थी, लेकिन उस समय दोनों के बीच इतनी बड़ी खाई नहीं थी। अब तो सरकारी स्कूलों में सबकुछ होता है लेकिन पढ़ाई ही नहीं होती और न हो सकती है।"

चित्रा उलझ पड़ी, "अब मेहनत ही नहीं करने का सोच कर लोग सरकारी स्कूलों में जाऐंगे तो काम कैसे होगा। आखिर तुम भी तो सरकारी स्कूल में हो, रात-रात भर जग कर स्कूल का काम करते हो।"

"यही तो मैं तुम्हें समझाना चाह रहा हूँ कि मैं काम तो करता हूँ, लेकिन विद्यार्थियों की पढ़ाई से सम्बंधित नहीं। ढेरों सरकारी काम हें जिनकी खानापूरी करता हूँ। मेरा मन अन्दर से अपने को ही दोषी समझता है, लेकिन मैं करूं तो क्या। सारी व्यवस्था ऐसी है कि हर साल बच्चों को बस पास भर कर देना लक्ष्य रह गया है, पढ़ाई की इतनी कमजोर नींव लेकर ये कुछ नहीं कर सकते। पब्लिक स्कूल के बच्चों के सामने ये कैसे टिकेंगे?"

चित्रा ने अचानक कहा, "अच्छा सुवास याद आया कि राहुल ने बारहवीं में छियानवे प्रतिशत अंक लाया है। कल स्कूल में सी.बी.एस.सी के रिजल्ट की चर्चा हो रही थी।"

"और राहुल ने कुछ नहीं बताया देखो कैसे बदल गया लड़का।" सुवास ने हँसकर कहा।

"बच्चा ही तो है अभी, पहले खुद उसके हाथ में रिजल्ट तो आ जाए, अभी तो एडमीशन के टेंशन में होगा।"

"तुम उसे हमेशा बचाती रही हो।"

"हाँ बचाती हूँ, लेकिन क्यों तुम्ही बताओ."

"मुझे क्या पता" सुवास ने कुछ समझने का प्रयास किया।

"अच्छा हमें मिले कितने साल हुए?" चित्रा ने सवाल किया।

"इतना भी याद रहता है क्या?"

"क्यों राहुल ने बारहवीं पास किया तो हमें मिले भी बारह साल से ज़्यादा हो गए. क्योंकि उस समय राहुल के.जी में गया था। तुम्ही ने कहा था न मानसपुत्रा उसे।"

सुवास पुराने दिनों में खो गया, चित्रा ने टोका, "कल सबसे पहले मंदिर चलना तब स्कूल जाना।" सुवास ने आँखे झपका कर सहमति दे दी।

सुवास और चित्रा किसी विषय पर बात कर रहे थे। उसी क्रम में सुवास ने कहा कि पता नहीं बिहार सरकार का शिक्षक होने के कारण उसे भी यह सुविधा मिलेगी या नहीं, तभी चित्रा ने टोका, "सुवास तुम भूल रहे हो कि अब तुम झारखंड सरकार के शिक्षक हो।"

सुवास ने झेंपते हुए कहा, "हाँ सभी कुछ बदलने में अभी समय लगेगा।"

बिहार से झारखंड अलग प्रान्त बन गया था। हजारीबाग में भी धूम मची थी। अफरातफरी-सी थी, उत्साह भी चरम पर था, एक ओर शंका भी लोगों को सिहरा रही थी। अतुल मामा की जैसी की आदत थी, ऐसे खास मौके पर चिट्ठी लिख दिया करते थे। उन्होंने चिट्ठी में लिखा, "सुवास मैं तो था ही रोजी रोटी की खातिर अलग प्रदेश में अब तू भी दूसरे प्रान्त में चला गया। अंगक्षेत्रा दो भागों में बँट गया। आधे अंगिकावासी बिहार में और गोड्डा, देवघर, जसीडीह, गिरीडीह के अंगिकावासी झारखंड में चले गए. बड़े उद्देश्य के लिए छोटी मोटी कीमत चुकानी ही पड़ती है। खैर अब तुम्हारी पीड़ा दूसरी है कि आलू, बालू, लालू वाले बिहार से अलग होकर तू झारखंड का हो गया। वे तुझे कितना अपना मानेंगे यह तो वक्त बताएगा।"

सुवास ने पत्रा चित्रा को दिखाया तो चित्रा मुस्कुरा पड़ी, "ठीक ही तो लिखा है मामा जी ने।"

धीरे-धीरे सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया चल रही थी। नए-नए आदेश आ रहे थे। बिहार झारखंड के कैडर के अफसरों की अदलाबदली हो रही थी। केन्द्र में भाजपा गठबंधन की सरकार में झारखंड भी बहुत से सपने देख रहा था। सुवास ने कहा, "चलो चित्रा अब ' बंदी और चक्का जाम से मुक्ति मिलेगी। आदिवासियों को बहुत दिनों से हक की तलाश थी, अब इन्हीं की सरकार है।"

कुछ ही दिन सुकून से बीते कि स्थानीयता का मुद्दा सामने आ गया। चित्रा उस दिन स्कूल से संकेत और प्रतीक्षा को लेकर घर लौट रही थी। दो गली पार कर सड़क पर, थोड़ी ही दूर स्कूल होने की वजह से पैदल ही स्कूल जाती और आती थी। रास्ते में काफी भीड़ थी मुख्य सड़क पर सवारियाँ रुकी थीं, लोग नारेबाजी कर रहे थे। बच्चों के साथ होने की वजह से वह भीड़ से बचने के लिए दूसरी गली में घुस गई. लेकिन आगे चलकर उसे फिर उत्तेजित भीड़ मिली तो वह सोच नहीं पाई कि कैसे भीड़ से निकलकर घर तक जा सके. तब तक उसकी नजर अपने स्कूल के विद्यार्थी पर पड़ी तो उसी से पूछा। उसने बताया, "मैम बगल में एक संकरी गली जाती है, थोड़ा चक्कर लगाकर आप अपने घर तक पहुँच जाएँगी। आज डोमिसाइल विरोधियों ने जुलूस निकाला है, यह जल्दी नहीं हटेगा।"

चित्रा अपने दोनों बच्चों के साथ किसी तरह हाँफते काँपते घर पहुँची। बच्चे इस बीच बिल्कुल चुप थे, उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। चित्रा ने उनके कपड़े बदलकर नाश्ता दिया और स्वयं अपनी चाय लेकर बैठी तो बगल में रहने वाली रीना की माँ आ गई. उससे चित्रा को अक्सर चटपटी खबरें मिल जाती थीं, जिसे वह आँखें बड़ी-बड़ी करके और देह हिला-हिलाकर सुनाया करती थी। उस दिन भी रीना की माँ अपनी खलबली मिटाने ही आई थी। आते ही बोलने लगी, "बताइये मैडम हमलोग यहाँ इतने वर्षों से रह रहे हैं। हमारे ससुर पहले धनबाद में नौकरी करते थे, फिर रीना के पापा हजारीबाग कॉलेज में पढ़ाने आ गए, अब हमलोग यहाँ के नहीं तो कहाँ के होंगे। हमारे बेटे को एडमीशन और नौकरी नहीं मिलेगी तो कहाँ मिलेगी।"

चित्रा ने उनके लिए भी चाय का पानी चढ़ाकर पूछा कि "आपको ऐसा क्यों लगता है कि आप यहाँ के नहीं हैं। पूरे देश में कोई भी कहीं भी रह सकता।"

"मैडम आप न्यूज नहीं देखतीं क्या? मुख्यमंत्राी ने कह दिया कि जिसके पास सन बत्तीस का खतियान है, वही झारखंडी है, बाकी सब बाहरी।"

"हाँ लेकिन अभी तो सिर्फ़ चर्चा परिचर्चा हो रही है, अभी से क्या घबराना।"

"आपको भी रास्ते में भीड़ मिली होगी, वह उसी के कारण थी यह लोग चुप नहीं रहेंगे। बहुत खराब हो रहा है मैडम, आप अभी यहाँ की हालत समझ नहीं रही हैं।"

चित्रा ने चाय लाकर रख दिया और कहा, "रीना की माँ आप और हम यहीं रहेंगे, झारखंड हम सभी का है।" फिर भी उनकी घबराहट जा नहीं रही थी, चाय पीते-पीते बोली, "हम तो नन्हका को उसके मामा के पास पटना भेज देंगे वहीं पढ़ेगा।"

रीना की माँ के जाने के बाद चित्रा बहुत देर तक गुमसुम-सी बैठी रही।

सुवास जनगणना सम्बंधी काम से रोज बाहर निकल जाता, जहाँ से एकदम थक कर लौटता। उसकी किताबें, उसके शोध प्रबंध जमा करने की अभिलाषा, धूल खा रही थी। सरकारी काम का मतलब नियत समय में पूरे विवरण को भरना और जमा करना, अब वही उसकी प्राथमिकता थी। विद्यालय में पढ़ाई ठप्प पड़ी हुई थी। दो चार रोज पर कक्षा में जाता भी तो वहाँ भी कागजी कामों में समय कट जाता। बच्चों की दैनिक उपस्थिति औसत उपस्थिति, मासिक उपस्थिति, प्रतिशत उपस्थिति, उनकी जाति, गरीबी रेखा से नीचे के बच्चों के नाम बस इसी चक्रव्यूह में शिक्षक लगे होते, कक्षा उस क्लास के मानीटर के भरोसे रहती।

सुवास ने रात में स्कूल से आकर सर्ट उतारते हुए कहा, "चित्रा अब तो मैं फिर से इस स्कूल में आ गया हूँ। जहाँ कुछ पढ़ाने का वातावरण भी है। पहले जहाँ जाता था, उस गाँव में एकमात्रा व्यक्ति मैट्रिक पास था वह भी किसी तरह से। लोग पढ़ाई की कीमत ही नहीं समझते। राज्य तो बन गया, लेकिन योजनाएँ कागजों पर धरी हैं अव्यावहारिक और अधूरी। गाँव में आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों समाज के लोग हैं, पर वे जानते ही नहीं कि सरकार उनके उ$पर कितना खर्च कर रही है और उनका पढ़ना लिखना उनके राज्य के लिए कितना ज़रूरी हो गया है।"

चित्रा ने बच्चों को खिलाकर सुला दिया था। सुवास को आते-आते रात के नौ बज जाते हैं, इसलिए खाना ठंडा हो जाता है। वह खाना गरम करने चली गई. उसे चुप देख कर सुवास ने उसे अपनी ओर मोड़कर कहा, "क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं है क्या?"

चित्रा ने 'ना' में गरदन हिलाते हुए कहा, "नहीं सुवास तुम कह रहे हो लोग बच्चे को पढ़ने भेजना नहीं चाहते, लेकिन पता नहीं इस राज्य का कैसा भविष्य है। इधर राज्य बना नहीं और आदिवासी, दिकू एवं सदान अपनी-अपनी दावेदारी के लिए लड़ रहे हैं।"

सुवास ने ठंडी आवाज में कहा, "यह तो मानव की स्वाभाविक प्रकृति है। कुछ दिनों में सब शांत हो जाएगा।"

सुवास ने थाली से रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुए फिर कहा कि "ऐसा थोड़े ही होगा कि तीस प्रतिशत की आबादी यहाँ के सत्तर प्रतिशत को निकाल बाहर करेगी। हाँ उन्हें यह लगता है कि उनके हक पर प्रभुत्वशाली लोग कब्जा जमाए बैठे हैं तो शायद आगे भी उन्हें ठगा जाए."

"लेकिन ये प्रभुत्वशाली तो किसी एक वर्ग में नहीं हैं वे उनके बीच भी हें और करीब होने के कारण उन्होंने उसे ज़्यादा ठगा है।" चित्रा ने सब्जी प्लेट में डालते हुए तर्क किया। "

सुवास ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखते हुए कहा, "थोड़ी दूर की चीजें साफ दीखती हैं, नजदीकियाँ भ्रम पैदा करती हैं जैसे तुमने सब्जी प्लेट की बजाय नीचे डाल दी या मैं ने तुम्हारे कान के इस सुन्दर टाप्स को देखा ही नहीं।"

"ओह" कहकर चित्रा ने सुवास से कहा, "तुम बातों को मोड़ रहे हो। लेकिन यह सचमुच चिन्ता की बात है। जब भी मैं अलगाव की बात सुनती हूँ, मेरा मन उद्वेलित हो उठता है हम भी यहाँ के नहीं हैं, लेकिन इस झारखंड को सींचने और संवारने का काम ही तो कर रहे हैं, सारी तकलीफों को सहते हुए भी। यह विभाजन तो हमें भी गैर बना देती है ना।"

"मैं तो ऐसा नहीं समझता, आज जनगणना के लिए मैं जिस गाँव में गया था, उनलोगों ने तो मुझे इतना प्यार दिया, जितना मुझे अपने बिहार में मिलता। मेरा एक पुराना विद्यार्थी भी उसी गाँव का था, वही दौड़कर सबों को ले आया। बाँस की खटिया पर बैठकर मैं ने गुड़ का शरबत पीया, कहीं कुछ भी नहीं बदला है चित्रा, ये दोनों तरफ के मन का भय है, बस।"

चित्रा ने मुस्कुरा कर पूछा, "महुआ नहीं पिलाया?"

सुवास ठहाका लगाकर हँस पड़ा, "हाँ हाँ पूछा था उसके लिए भी, लेकिन तुम्हारा डर था न, इसी से मना कर दिया। उस विद्यार्थी ने अपने घर में मोटे चावल का भात और सहजन का साग, दाल के साथ खिलाने की जिद पकड़ ली। मैं मना नहीं कर पाया, कितना प्रेम था उसमें। अधिकांश परिवारों का यही भोजन था, यह देखकर मेरी आँखें भर आईं। जल, जमीन, जंगल पर राज करने वालों की इतनी दुर्दशा है और कुछ लोग बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं।"

चित्रा ध्यान से उसकी बातें सुन रही थी। सुवास ने गौर किया कि जुलूस और भीड़ में फँसने वाले दिन से चित्रा थोड़ी चिन्तित रहती थी। आए दिन सड़क पर टायर जलाकर रास्ता बंद कर दिया जाता है, चित्रा को ऐसे में स्कूल आने जाने में दिक्कतें होती हैं। सुवास ने चित्रा के कंधे पर हाथ रखकर कहा-सन्देह न करो, सब ठीक हो जाएगा, हम यहीं के हैं, दो राज्यों में बँटकर भी यही हमारी कर्मभूमि है।

चित्रा का मन थोड़ा शान्त हुआ और उसे भी लगा कि लोगों की बातें सुन-सुनकर वह भी व्यर्थ की बात सोचने लगी थी।

सप्ताह भर भी नहीं बीता था कि डोमिसाइल की आग पूरे झारखंड में फैल गई. सुवास के लिए भी अब कठिनाई आने लगी थी। टी.वी पर खबरें आतीं जो दोनों पक्षों की उत्तेजना, दुश्चिंता और असुरक्षा को बढ़ा जाती थीं। राँची में उग्र प्रदर्शन और दोनों पक्षों के बीच तनाव और गोलीबारी की खबरें आने लगी थीं। सुवास और चित्रा इस सबसे आंदोलित धनबाद की खबरें जानना चाहते थे। माँ और पिताजी घबराकर खबर भिजवाते कि हजारीबाग की उस सुदूर जगह से नौकरी छोड़ झरिया आ जाए क्योंकि यहाँ स्थानीय लोगों का इतना उपद्रव नहीं है।

सुवास सोचता क्या इतना सहज होता है सबकुछ और क्या यह माहौल कुछ दिन बाद वहाँ भी नहीं हो सकता था, या जो वहाँ ज़्यादा मजबूत हैं उन्होंने दूसरों के साथ ऐसा हीं नहीं किया होगा? उसी तरह की चर्चा परिचर्चा में दोनों के दिन बीत रहे थे। एक अव्यक्त दूरी-सी दीख रही थी, लेकिन बच्चों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

सी.बी.एस.सी की परीक्षा खत्म हुई तो चित्रा की भेंट, परीक्षा कापियों की जाँच के क्रम में गोमिया स्कूल के शिक्षकों से हुई. बहुत-सी बातों के साथ चित्रा फिर से बीते दिनों में चली गई थी।

जिस दिन कापी देखने का काम खत्म हुआ चित्रा ने उन शिक्षकों को अपने घर बुलाया। सुवास और चित्रा ने सभी को नाश्ता करा कर विदा किया, लेकिन सुवास ने वरुण को रातभर के लिए रोक लिया। वरुण कुछ बुझा बुझा-सा था। शाम को हजारीबाग के बाज़ार से घूमकर दोनों मित्रा लौटे, तब तक चित्रा ने भी घर के काम निबटा दिए थे।

चित्रा ने ही वरुण को टोका, "वरुण जी इतने चुप तो तब भी आप नहीं हुए थे, जब स्नेहा ने आपको अपने फैसले से हैरान कर दिया था, आखिर बात क्या है?"

"ऐसी कुछ बात नहीं है, लेकिन घर में परेशानी बढ़ गई है राँची में हुए उपद्रव में गोलीबारी हुई थी। छोटे भाई शंभु को पैर में गोली लग गई है। ऐसे अभी ठीक है लेकिन हर समय गुस्से में भरा रहता है। इसी से माँ पिताजी चिन्ता में रहते हैं।"

सुवास ने पूछा, "लेकिन गोली इसको कैसे लग गई, क्या यह भी उसमें शामिल था।"

वरुण बताने लगा कि कुछ नेता टाइप लड़कों के कहने पर वह भी डोमिसाइल के समर्थन में गया हुआ था। पहले शायद उसके भाई को आंदोलन के हिंसक हो जाने का अनुमान नहीं था। डोमिसाइल का विरोध करने वाले जिस छात्रा की मौत हुई, वह उसका ही दोस्त था। भीड़ में घिरे अपने मित्रा को घायल देख वह बौखला गया और आगे बढ़कर उसके पास जाना चाहा, तभी पुलिस की फायरिंग से उसे गोली लगी। सब भाग्य का दोष है। वरुण एक ही बात कह रहा था।

सुवास उठकर बेचैनी से टहलने लगा-ये सब क्या हो रहा है वरुण। अपनों के बीच यह क्या हो रहा है। किस मृगतृष्णा में लोग दौड़ रहे हैं। कभी डोमिसाइल जैसी बात को लेकर इन्सान दोस्त के सामने खड़ा हो जाता है, कभी उसके आहत होने पर लोगों से लड़ पड़ता है। पढ़ाई बीच में छोड़कर सात साल झारखंड के लिए लड़ रहा था और जब झारखंड बना तो शंभु वहाँ भी नहीं था। अब डोमिसाइल के लिए लोग उसकी भावुकता को भुना रहे हैं और वह लड़ रहा है।

वरुण कातरता से सुवास को देख रहा था, "सुवास जी, ये कैसा झारखंड बन रहा है नेता बनने की होड़ सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए हो रही है। आदिवासी और सदानों के बीच भी कुछ कांटे चुभ रहे हैं।"