जटायु के कटे पंख, खण्ड-28 / मृदुला शुक्ला

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सुवास अपने नए जीवन में ढलने लगा था। बच्चे और प्रिंसपल उससे खुश रहते। प्राइवेट स्कूल में बच्चे पढ़ाई के प्रति गंभीर थे, लेकिन खिलन्दड़े बच्चों से अलग इन बच्चों की दुनिया थी। सुवास ने सोचा कि सरकारी पेंच में फंसकर भले ही बहुत से शिक्षकेत्तर कार्यक्रम नहीं हो पाते हैं, लेकिन क्या इन बच्चों का भी हक नहीं है कि वे उसी आनन्द मस्ती और जानकारी को हासिल करें।

प्रिंसिपल से बात कर उसने बच्चों को लेकर पिकनिक जाने का कार्यक्रम बनाया तो तीन बार अलग-अलग कारण से दिन बदलना पड़ा। बच्चों की पचास-पचास की टीम बनाकर एक-एक टीचर को जिम्मेवार बनाकर सीनीयर क्लास के बच्चे को ले जाने की तैयारी कर ली। बच्चे भी बहुत उत्साहित थे। शुक्रवार की दोपहर मुख्यालय से बच्चों के साइकिल वितरण हेतु उपस्थिति पंजिका और सभी बच्चों की जातियों की सूची भेजने का आदेश आ गया। सुवास का मन बुझ गया। बच्चों तक यह बात गई तो वे निराश हो गए. लेकिन कोई चारा नहीं था।

पूरे सात सौ बच्चों की जाति, धर्म, आय सभी का विवरण पूरा करने के लिए सभी शिक्षक जूझ पड़े थे। स्टाफ रूम में निखिल झा, रामसेवक सिंह, सुधा बाउरी, संजय मांझी, कन्हैया खरवार के साथ सुवास भिड़ा हुआ था। कुंती देवी 'मैटरनीटी लीव' पर थी, दो शिक्षक भी छुट्टी पर थे, बड़ा बाबु का ट्रांसफर हो गया था। किसी तरह जूनियर टाइपिस्ट के सहयोग से काम चल रहा था। प्रिंसपल नाम का ही प्रधान था। सारी बातों के लिए सुवास पर ही आश्रित रहता था। स्कूल निरीक्षण या सरकारी चिट्ठी आते ही उसकी हालत खराब हो जाती थी।

सुवास ने टेबल पर फैले कागजों को समेटते हुए कहा कि "सच पूछो निखिल, तो मुझे विद्यार्थियों से, क्लास में जाकर उनकी जाति पूछना सही नहीं लगता और उनके नामांकन पत्रा में सब कुछ आधा अधूरा है। मैं भरे क्लास में यह भी कहने से कतराता हूँ कि तुम्हें इसलिए साइकिल नहीं मिलेगी क्योंकि तुम इस जाति से नहीं आते, जबकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले सभी छात्रा एक ही जीवनशैली और आर्थिक स्तर से आते हैं।"

निखिल ने कहा, "सर ये सारा काम वे लोग करते हैं, जिन्हें एक दिन भी स्कूल में पढ़ाने का अनुभव नहीं, वे शिक्षक बनकर सोच ही नहीं सकते।" सुवास ने सहमति में सिर हिला दिया।

संजीव ने स्टाफ रूम में, रजिस्टर से अपनी नजर हटाते हुए कहा, "सुवास जी हम स्कालरशिप की लिस्ट भी साथ ही तैयार कर रहे थे तो पाया कि कुछ बच्चों की उपस्थिति ही पूरी नहीं हो रही है, इनका नाम कैसे दें?"

"पहले कैसे होता था" सुवास ने पूछा।

"पहले तो प्रिंसिपल के मौखिक आदेश से उपस्थिति दिखा देते थे, लेकिन अभी तो शिक्षा सचिव ने उपस्थिति पंजिका की फोटो कॉपी भी मंगवाई है।"

"जो लड़के पढ़ना ही नहीं चाहते, स्कूल भी नहीं आते, उन्हें तो स्कालरशिप मिलनी भी नहीं चाहिए."

"सुवास जी, वे स्थानीय हें, सिर पर सवार हो जाएँगे।" कन्हैया ने प्रतिवाद किया।

सुवास ने कहा, "हम उनको सुविधा लेने से वंचित नहीं कर रहे हैं। बस ऐसा करो कि जो वास्तविक उपस्थिति है उसे दर्ज करके भेज दो, अगर सरकार मान जाती है और स्कालरशिप दे देती है तो ठीक है, नहीं तो ये लड़के भी पैसे की अहमियत समझे।"

स्कालरशिप लेने वालों की लिस्ट आई तो उसमें दसवीं के तीन विद्यार्थी का अपना नाम नहीं होने से आफिस में हल्ला कर रहे थे। प्रिंसपल उन्हें धीरे-धीरे समझाने की कोशिश कर रहे थे। सुवास एक क्लास से निकल दूसरी में जा रहा था। वह रास्ते से मुड़ गया। वहाँ विद्यार्थियों के झुंड को देख कहा, "स्कूल चल रहा है, क्लास की बजाय आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"

एक ने थोड़े तैश में कहा कि "हमारे स्कालरशिप का रुपया क्यों नहीं आया है?"

"तुम्हारा उपस्थिति प्रतिशत कम रहा होगा और मैंने भी पिछले तीन माह से तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखी है।"

"सर पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। प्रतिशत का बखेड़ा आपके आने के बाद ही खड़ा हुआ है।"

संजीव भी तब तक वहाँ पहुँच गया था। उसने कसकर झिड़का, "ढंग से बात करो"

"मैं जायज बात कह रहा हूँ और ऐसा क्या कह रहा हूँ" , गुटखा चबाते हुए उसी विद्यार्थी ने कहा।

तब तक दूसरे शिक्षक लोग भी आ गए और उन्हें डाँटा तो वे धीरे-धीरे चले गए.

सुवास ने उन्हें जाते देखते हुए कहा-संजीव जी वे तो चले गए हैं, लेकिन बात अभी और बढ़ेगी, इसके लिए तैयार रहना होगा।

टिफिन में स्टाफ रूम में सभी शिक्षक जुटे तो उसी घटना का जिक्र चल पड़ा। निखिल झा ने कहा, "अनुशासनहीनता इतनी बढ़ गई है कि छात्रों से बात करना भी मुश्किल है। सुविधाओं वाली ज़िन्दगी चाहते हैं लेकिन आज के बच्चे करना कुछ नहीं चाहते।"

रामसेवक सिंह ने अपनी भारी आवाज में कहा, "आज कल के अभिभावक भी तो अपने बच्चे को सही शिक्षा नहीं देते सिर्फ़ महत्त्वाकांक्षा को हवा देते हैं।"

सुवास ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "लेकिन सिंह जी हम शिक्षक हैं, हम ही अगर उसे नहीं समझा पा रहे हैं, उसे सही दिशा नहीं दिखा पा रहे तो दूसरे को दोष क्यों दें। मैं हर्गिज नहीं चाहता कि उन लड़कों को स्कालरशिप के पैसे नहीं मिले, लेकिन इसके लिए उन्हें विद्यालय आने की आदत और पढ़ाई की आदत भी डालनी चाहिए. अगर सिद्धांत की बात होगी तो मैं ऐसे विद्यार्थी का साथ नहीं दूंगा।"

सुधा बाउ$री ने टिफिन का डिब्बा बंद करते हुए कहा, "सुवास जी उन्हें साल में पन्द्रह सौ रुपए मिलते हैं तो आप सबको अखर जाता है क्योंकि वे गरीब और पिछड़े वर्ग से आते हैं। यहाँ बड़े-बड़े लोग कितना डकार जाते हैं तो आप मुँह भी नहीं खोलेंगे।"

"सुधा जी, आप इस मानसिकता से उबरिये। ये पिछड़े वर्ग के हैं, इसी से उनके लिए ज़्यादा ज़रूरी है कि आगे बढ़कर शिक्षा की मशाल को थामें। उन्हें अपना हक लेने के लिए ही ज़्यादा मेहनत करनी होगी, जिसमें हम उनके साथ रहेंगे लेकिन कागज की हेराफेरी कर पन्द्रह सौ रुपए से इनका भाग्य नहीं बदल सकता।"

सुधा उठकर चली गई थी तब कन्हैया ने कहा-सुवास जी चाहे विद्यार्थी स्कूल में कुछ न करे लेकिन प्रतियोगिता में आ जाय तो लगता है कि बाद में मेहनत किया है।

गणेश गिरी ने कहा, "आपने पिछला रिकार्ड देखा है कोचिंग से बच्चे कितने सफल हो रहे हैं, आप ऐसा नहीं कह सकते कि बच्चे एकदम कामचोर हैं।"

सुवास ने तेजी से कहा, " किस कोचिंग की बात कर रहे हैं आप। सहदेवा कोचिंग संस्थान के प्रबंधक एन.के.सेंगर को गिरफ्तार किस लिए किया गया, पता है ना। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के कम्प्यूटर ऑपरेटर विकास राना से बारह लाख रुपए में परचे का सौदा किया था। लीक परचे को हल करने के अलग पैसे लेते थे। कहाँ रह गई प्रतियोगिता और प्रतिभा की शुद्धता।

"यह नैतिक पतन है। हर ओर हर क्षेत्रा में दिखाई देता है पैसों का महत्त्व बढ़ गया है।"

अभी ये बातें हो ही रही थीं कि स्थानीय छुटभैये नेता विद्यालय के गेट पर आ गए. प्रिंसिपल के साथ बकझक होती रही। थोड़ी देर बाद वे गए तो बस्ती के लड़कों के साथ असंतुष्ट विद्यार्थी लोग भी झंुड में आ गए और उसने एक दो पत्थर चलाए थे कि प्रिंसिपल ने थाने में फोन कर दिया। दो सौ गज की दूरी से थाने की गाड़ी आई तो लड़के भाग गए.

पाँच दिन शांति में बीते थे। सुवास छुट्टी के बाद स्कूल से निकला कि एक पत्थर सीधे आकर उसके सिर पर लगा। सुवास ने अपने हाथों से सिर पकड़ लिया तो हाथ खून से रंग गए. कुछ कदम पीछे खड़े निखिल ने लड़कों को देखा तो पहचान लिया, "क्या चाहते हो, थाने में बंद करवा दूं, स्कूल में कहीं भी पढ़ना मुश्किल हो जाएगा।"

सुवास ने पाकेट से रूमाल निकाल कर बहते खून को रोकना चाहा। उसने संजीव को अपनी मोटर साइकिल चलाने को कहा खुद पीछे बैठ गया। रास्ते में डिसपेन्सरी से प्राथमिक उपचार करवा कर संजीव उसे लेकर घर पहुँचा। उस समय तक चित्रा और बच्चे नहीं आए थे। सामने वाले पड़ोसी के घर से चाभी लेने गया तो वे उस हालत में देख घबरा गए. जबरदस्ती अपने घर दोनों को लेते गए और चाय बिस्कुट खिलाया। सुवास को कमजोरी लग रही थी और वह सारी बात बताना भी नहीं चाहता था, इसलिए वहाँ से जल्द ही अपने घर आ गया। संजीव उससे पूछ कर लौट गया।

चित्रा ने जब घर पहुँचकर सुवास का हाल देखा तो घबरा गई. उसने सिर के आसपास नीले निशान और स्टीच लगे देखे तो पूछ बैठी-आखिर कैसे हुआ यह सब?

सुवास की आँखें भर्र आइं। चित्रा ने कोमलता से पूछा, "बहुत दर्द है?"

"दर्द तो है चित्रा, लेकिन जहाँ दीख रहा है, वहाँ नहीं बल्कि अन्दर सीने में है। अपने ही गढ़े हुए बच्चे हमें दुश्मन समझने लगे हैं।"

"ये तुम्हारे स्टुडेन्ट ने किया है, जिसके लिए तुम रात में सो नहीं पाते हो?"

"वे भी मुझे मानते हैं, तभी तो उन्हें आक्रोश हुआ, लेकिन उसमें नफरत भर आई यह सोचकर कि मैं पिछड़े, आदिवासियों का हक मार रहा हूँ, जबकि ऐसा नहीं है। उन्हें कैसे समझाउ$ं कि तुम्हारा ये शिक्षक तुम्हारी भलाई के विषय में ही सोचता है।"

चित्रा ने सामने पड़ी दवाइयों और रुई वगैरह हटाकर, वहाँ बच्चों के बैठने की जगह बनाई और कहा-बेटे आज पढ़ाई पापा के पास रहकर करना, देखना इन्हें तकलीफ न हो। मैं रसोई में जा रही हूँ। "

जब-जब सुवास ज़्यादा दुःखी होता चित्रा यही उपाय करती। बच्चों के साथ रहकर सुवास का मन हल्का हो जाता और चित्रा को भी संभलने का मौका मिल जाता था।

प्रतीक्षा ने अपनी नन्हीं अंगुलियाँ पापा के सिर पर हल्के से फिराईं तो सुवास दर्द को पीते हुए मुस्कुरा पड़ा, "तुम्हारे पापा बहादुर हैं प्रतीक्षा ऐसे दर्द तो सह ही सकते हैं।"

संकेत अपने अंकगणित की कॉपी लेकर पापा को दिखाना चाहता था, लेकिन सुवास की आँखें नहीं खुल रही थीं। किसी तरह वह उसे समझा पाया कि सुबह वह अवश्य उसे गणित पढ़ा देगा।

सुवास उस घटना के सप्ताह भर बाद तक स्कूल नहीं जा सका। स्कूल में सब परेशान थे। ढेरों काम थे, जिन्हें सुवास ने अपनी जिम्मेवारी में ले रखे थे। स्कूल से फोन कर लोग उसी सिलसिले में पूछते रहते। दसवीं के विद्यार्थी भी आते, रुॅआसे से बैठे रहते, वे पब्लिक स्कूल के बहिर्मुखी बच्चे तो थे नहीं। गरीब घरों के बच्चे संकोच से भरे कभी-कभी माफी जैसा कुछ कहते। सुवास भी उन्हें समझाता कि अभी भी कैलाश, बिगन और इस्माइल को समझाओ. कुछ पढ़ाई पर ध्यान दे, मेरा दर्द इसी से कम हो जाएगा।

वे तीनो डर के मारे स्कूल ही नहीं आ रहे थे। फार्म भरने का दिन करीब आ रहा था। प्रिंसपल ने मन बना लिया था कि इस बार तो उसे परीक्षा में नहीं बैठने देना है। सुवास ने प्रयास किया लेकिन उस पर हुए पत्थरबाजी से हर शिक्षक अपने को असुरक्षित समझ रहा था। सुवास इस सबसे बहुत दुखी था।