जटायु के कटे पंख, खण्ड-29 / मृदुला शुक्ला
सुवास की भी चिट्ठियां चित्रा के पते से आती थीं, क्योंकि उसका पता निश्चित था, जबकि सुवास स्कूल के सरकारी काम से बाहर जाता आता रहता था। नानी की तबीयत खराब थी, वह सुवास को देखना चाहती थी। इस बात की चिट्ठी जब से चित्रा को मिली, वह परेशान थी। उसकी भी इच्छा थी कि वह भी भागलपुर जाए, जहाँ की याद सुवास भूल नहीं पाते। गंगा और अंगिका को सुवास हमेशा अपनी पहचान बताता था। जीतपुर के कोयलांचल को चित्रा देख आई थी और झारखंड की कमोवेश समस्यायें तो उसकी अपनी ही बन गई थी, जिससे प्यार भी करती थी और जिसकी बुराई उसे चुभती भी थी। लेकिन सुवास के बचपन का भागलपुर देखने का उसका बड़ा मन था। उस पर नानी की खराब तबीयत। दरअसल चार महीने पहले संकेत को जांडिस हो गया था, जिससे वह काफी कमजोर हो गया था, स्कूल से छुट्टी मिलने में भी दिक्कतें थीं और घर का बजट भी सही नहीं चल रहा था। इसी से वह उधेड़बुन में पड़ी थी।
शाम को सुवास ने उसे उदास देखकर पूछा तो चित्रा से रहा नहीं गया। उसने चिट्ठी के साथ अपने जाने की इच्छा भी बता दी। सुवास भी पत्रा लेकर सोच में बैठ गया। बच्चे खेलने चले गए तो चाय पीते हुए सुवास ने गंभीर आवाज में कहा, "चित्रा हम दोनों कमाते हैं, कोई बुरी आदत भी हमें नहीं है। तब भी हमारे पास पैसे नहीं होते हैं कि हम अपनी इच्छा से खर्च कर पाएँ, शिक्षकों की ज़िन्दगी क्या इसीलिए होती है। अगर हम भागलपुर चले भी जाएँ और नानी के इलाज या बेहतर स्वास्थ्य के लिए कुछ न कर पाएँ तो क्या अच्छा लगेगा।"
चित्रा घुटने पर सिर टिकाए बैठी थी। उसने खाली आँखों से देखते हुए कहा, "सुवास हमलोगों से भी बुरी हालत में लोग रहते हैं, हम इतने भी गए-बीते नहीं हैं।"
"तुम्हारी आँखें, तुम्हारी सेहत बता रही हैं कि इस गृहस्थी को चलाने के लिए तुम्हें कितनी कतरव्योत करनी पड़ती है। उस पर से घर और बाहर का काम का दबाव भी झेल रही हो। इसके बाद भी मन की इच्छा पूरी न हो सके तो खराब स्थिति किसे कहते हैं।"
"सुवास, ऐसा भी क्या है, अगर जाने का मन बना लो तो कहीं ना कहीं से रूपये का इंतजाम हो ही जाता है-हाँ संकेत अभी कमजोर है, उसको लेकर जाना सही होगा या नहीं, यही सोच रही हूँ।"
चित्रा ने सुवास को चिन्तित देखकर बात बदल दी। सुवास को तीन महीने से तनख्वाह मिली नहीं थी। मेडिकल छुट्टी को स्वीकृत कराने में विलम्ब होने से, वेतन मिलने में देरी हो रही थी। इस वजह से वह समय मिलते ही डी.ओ आफिस दौड़ रहा था। पैसे देने पर वहाँ काम जल्द ही हो जाता, सुवास इसे जानता था। लेकिन सुवास के स्वभाव को देखकर क्लर्क खुलकर बोल भी नहीं रहा था।
चार दिन तक राह देखने के बाद सुवास इस परेशानी से उकताकर बोला, "इससे अच्छी तो प्राइवेट स्कूल की नौकरी थी, जहाँ ठीक महीने के अंतिम दिन बैंक में पैसे जमा हो जाते, छुट्टियों के सारे नियम सरल थे, भले ही छुट्टी मिलने में दिक्कत थी, लेकिन आकस्मिक अवकाश तक के बचे हुए दिन के पैसे नए साल में मिल जाते थे।"
चित्रा ने कहा, "प्राइवेट नौकरी में हर समय का दबाब गुलामी का एहसास दिलाता था, तब तुमने सरकारी नौकरी चुनी। अब सरकारी नौकरी के नियमों और सरकारी पचड़े में तनख्वाह की अनिश्चितता से तुम घबरा रहे हो, ऐसा कैसे चलेगा?"
सुवास उठकर चलने लगा, "सरकारी तंत्रा एकदम भ्रष्ट हो गया है चित्रा। तुम इस व्यवस्था के अन्दर काम करो तो समझ पाओगी।"
"लेकिन यह तो तुमने सुना था न कि रिश्वत के बिना यहाँ काम नहीं होता, फिर क्यों चले आए इस नौकरी में? फिर याद रखना इस दौर में भी तुमने इस नौकरी के लिए कोई रिश्वत नहीं दी थी। इसका मतलब सब काला ही काला नहीं है।"
सुवास ने कुछ सोचते हुए कहा, "हाँ मेरे मन की कमजोरी थी या मैं परिवार और भविष्य की सुरक्षा के लिए चिन्तित हो उठा था जो इसमें चला आया। वैसे तुमने ठीक कहा कि मुझे तो नौकरी पाने के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ी थी ना ही मेरी पैरवी थी। देखो सबलोग इसी से घर चला रहे हैं और खुश हैं, ज़रूर मुझी में कुछ कमी है।"
चित्रा ने सुवास की ओर पेपर फेंककर हँसते हुए कहा, "हाँ कमी तो है, तभी तो मुझ जैसी से ब्याह कर लिया और चलो उठो, ज़रा बाज़ार तक चलो खरीददारी करनी है।"
सुवास उसे देखता रहा। चित्रा ने बाज़ार से कुछ ज़रूरी सामान खरीदे, संकेत के लिए फल वगैरह लिए और सुवास को कहा कि वह पोस्टऑफिस में सावधि जमा में कुछ पैसे डाल रही थी। अब चलाना कठिन लग रहा था उसे तोड़वा कर ले आई है। इसलिए वह भागलपुर जाने की तैयारी करे।
सुवास अन्दर से थोड़ा संकुचित हो गया था।
तीसरे दिन सुवास अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भागलपुर पहुँचा। नानी ने कमजोर बाँहों में सुवास की पत्नी और बच्चों को जकड़ लिया। आँखों से आँसू बह निकले। सुवास सिरहाने बैठकर उसे पोछने लगा फिर धीरे से कान में कहा, "क्या अभी भी सुनयना आपको रुलाती है।" अपनी बेटी का नाम सुवास के मुँह से सुनकर उसे छोटा सुवास याद आ गया और उसके चेहरे पर हँसी आ गई. उसने सुवास को कहा-अब तो उसने अपने बेटे को ही मेरे आँसू पोछने भेज दिया। सुवास नानी के पैरों के पास बैठकर उसके पाँव दबाने लगा।
नानी के पेट के अन्दर घाव हो गया था, इसी से कुछ पचता नहीं था, उम्र और कमजोरी से हाँफने लगती थी। ऑपरेशन के योग्य शरीर की क्षमता नहीं थी, न उम्र साथ दे रही थी। इसी से सेवा के बल पर चल रही थी।
चित्रा उस नए घर में मामी के साथ रसोई में चली गई. सुवास घूम-घूमकर घर देख रहा था। कितना सबकुछ बदल गया। आगे के हिस्से में बड़ा दो मंजिला घर बनने से बड़ा-सा बगान सिकुड़ गया। मेंहदी के हैज की जगह ईंटों की चारदिवारी और लकड़ी के बने फाटक की जगह लोहे के गेट लगे थे। दो मामा उ$पर के फ्लैट में थे। दो फ्लैट बड़े मामा और अतुल मामा के थे जहाँ नीचे ही नाना-नानी भी रहते थे। पूरे घर में आम का पेड़ पुराना रह गया था। पुराने वाले घर का रास्ता दूसरी ओर से देकर किराएदार को दे दिया गया था।
सुवास, शिखा मौसी के घर भी गया। वहाँ का बदलाव उसे अच्छा लगा। मौसी ने एक अनाथ लड़की को गोद ले लिया था, जो उनकी देखभाल भी करती थी और पढ़ाई भी। शिखा मौसी भी रिटायर होने वाली थी। सुवास को देखते ही एकदम खुश हो गई. जोर से पुकारा, "मिनी देख तो सुवास आया है, चाय पानी दे।"
सुवास को अच्छा लगा कि शिखा मौसी ने अपने ढंग से जीना शुरू कर दिया था। मिनी, सत्राह साल की छरहरी और खुशमिजाज-सी लड़की थी। उसने पहले कलाकंद और पानी लाकर दिया। आते ही सुवास को पैर छूकर प्रणाम कर मुस्कुराते हुए बोली, "माँ आपका नाम हमेशा बोलती रहती हैं। कहती हैं सुवास मुझे बहुत मानता है।"
सुवास ने मौसी के पास कुर्सी पर बैठकर कहा, "मौसी यह आपकी तरह शुवास नहीं बोलती है और ये तो मैं ने आपसे कभी कहा भी नहीं, फिर आप कैसे कह सकती है कि मैं अपको बहुत मानता हूँ।"
"दुर पगले हर बात कहने की होती है क्या? और मिनी मेरी तरह क्यों ग़लत बोलेगी, यह तो बिहारी है, क्या मैं बिहारी बेटी नहीं बना सकती।"
सुवास ने थोड़ा अचरज से शिखा की ओर देखा। शिखा मौसी ने-उतावलेपन से कहा, "कब आया, किसी को पता नहीं था क्या? बोमाँ भी आई है?"
' नानी को देखने आना था तो चित्रा ने कहा कि वह भी नानी को देखने आएगी, हालांकि बच्चे थोड़े अस्वस्थ थे, लेकिन आना पड़ा। "
"ठीक किया, मैं सोच ही रही थी वहाँ जाने की, चाची कैसी है?"
सुवास ने कहा, "बस तकलीफ सहना सीख रही है।" उसने कलाकंद खाकर पानी पिया और घर को देखने लगा। मौसी ने घर को ठीक करवा दिया था। रंगरौगन और पुरानी खिड़कियों की जगह हवादार खिड़कियां थीं, जिससे उस बुझे-बुझे से घर में चहल-पहल-सी लगती। उ$पर भी कमरे बनवाकर किराए पर लगा दिया था। सुवास ने देखा भागलपुर में और कोई परिवर्तन हुआ हो या नहीं, लोग अपने घरों को साझाकर किराएदार रखने लगे थे, बाहर के बरामदे पर दुकानें सजने लगी थीं। पहले भागलपुर में कितना भी बड़ा घर हो, कमरे में ताले लटके रहें लेकिन लोग अपने साथ के घर में किराएदार रखना, अपनी शान के खिलाफ समझते थे। यह बढ़ती ज़रूरतों और व्यवहारिकता का शायद तकाजा था। मौसी खाना खिलाने पर अड़ी थी लेकिन सुवास ने समझाया कि वह कल ही चित्रा और बच्चों के साथ आएगा लेकिन आज वह भागलपुर देखना चाहता था।
सुवास को आज गंगा तट पर थोड़ी देर कुछ पुराने दोस्तों को ढूँढना था। अपने पुराने स्कूल के पास से गुजरा तो देखा स्कूल की चहारदीवारी टूट गई थी। नए इंगलिश मीडियम स्कूल ने उसकी रंगत फीकी कर दी थी। आकाशवाणी भवन से होते हुए वह देखता जा रहा था। घंटाघर से आदमपुर चौक तक नए घरों की बाढ़ थी। बड़े-बड़े बगीचे कट चुके थे, कालोनियां बस गई थीं बाज़ार सज गए थे, लेकिन उसे लगा कि शहर शायद सिकुड़ गया था।
कचहरी चौक से उसने घेवर-मिठाई खरीदी और घर लौट आया। चित्रा और बच्चों ने उत्सुकता से उस नई मिठाई को देखा। बंूदियों से बनी इस मिठाई में जलेबी की तरह रस था। बच्चे खाकर खुश हो गए.
नानी आज निश्चिंत सोई थी। क्लान्त चेहरे पर भी शांति थी। शायद सुनयना के बेटे का बसा घर-संसार उन्हें चैन और सुकून दे रहा था। चित्रा सिरहाने से उठकर मामी के पास जाकर बैठ गई.
मामी ने चित्रा के गिरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा। चित्रा ने कहा, "मामी परेशानी तो लगी रहती है, लेकिन आपके भांजे की चिन्ता मुझे हर समय लगी रहती है। ये उसूलों से समझौता नहीं करते, ईमानदारी के पैसों पर ही भरोसा करते हैं, यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन अपनी जान की परवाह किए बगैर हर अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ अकेले खड़े हो जाते हैं, तो मन में बड़ा डर लगता है। मैं इनसे कुछ कह भी नहीं सकती हूँ, क्योंकि उन्हें लगेगा कि मैं भी इन्हें ग़लत समझ रही हूँ, जबकि इसी कारण मैं इनकी इतनी इज्जत करती हूँ।" चित्रा की आँखें छलछला गईं।
मामी ने अपनी बाहों में घेरकर प्यार से पीठ पर हाथ फेरा, "ऐसे घबराया नहीं करते, तुम तो जानती हो यह सुवास है ही ऐसा। फिर भी मैं कहूँगी तो मानेगा।"
नहीं मामी मैंने इसलिए आपसे यह नहीं कहा था। जीतपुर में माँ बाबुजी से कह नहीं सकती थी, क्योंकि बड़ी मुश्किल से ये जुड़े हैं, लेकिन मैं भी आखिर किससे कहूँ। "
मामी ने उसका चेहरा प्यार से उ$पर किया, "तुम मुझसे कहो, एकदम बेटी की तरह।"
तब धीरे-धीरे चित्रा ने इस शर्त पर कि मामी इसे मामा से भी नहीं बताएँगी, सुवास के सिर पर विद्यार्थी द्वारा चोट करने और टाँका लगने की बात बताई. मामी की आँखें पनिया गईं फिर भी उसे भरोसा दिया सब ठीक हो जाएगा, उसका ध्यान रखना, वह तो है ही बावरा।