जटायु के कटे पंख, खण्ड-30 / मृदुला शुक्ला
सप्ताह भर बाद सुवास भरे हुए मन से भागलपुर से लौट आया। एक बार फिर से उसे अंग के दो टुकड़े होने का दुख साल रहा था। सब कुछ बदल रहा था, बहुत कुछ अच्छा भी। बिहार की सड़कें बन रही थीं, साइकिलें बँट रही थीं, दोपहर के भोजन की व्यवस्था स्कूलों में हो रही थी, स्कूलों के भवन भी बन रहे थे, लेकिन बात दोनों तरफ एक जैसी थी। लोग सड़कों की गुणवत्ता पर सवाल उठा रहे थे, साइकिलों में हेराफेरी का आरोप लगा रहे, मध्याह्न भोजन में कभी मेढ़क कभी छिपकिली कभी विषाक्त तेल से बच्चे बीमार पड़ रहे थे। विद्यालय भवन बनने के बाद भी शिक्षकों की हालत वही की वही थी। सुवास यही सब सोचकर चित्रा को कह रहा था कि बँटने के बाद भी दोनों राज्यों में एक-सी समस्याएँ और एक-सी स्थितियां हें। पारा टीचर या अनुबन्धित शिक्षक के बल पर शिक्षा की गाड़ी खींची जा रही है। आधे अधूरे मन से, बेरोजगारी के बाज़ार में बिके हुए लोग नया भारत गढ़ रहे हैं।
सुवास अपने स्कूल के कामों में व्यस्त हो गया था। चित्रा ने भी घर और विद्यालय दोनों को संभालना शुरू कर दिया। सुवास को एक दिन गिरी ने कहा, "सुवास जी आजकल हमारे स्कूलों में तो बस साक्षरों की संख्या बढ़ाने की होड़ है। हमलोग इतनी मेहनत करते हैं लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता कहीं छूटी जा रही है।"
सुवास ने थोड़ी देर रुक कर बात सुनी, फिर हल्के ढंग से कह दिया, "गिरी जी हमारे लिए यही बच्चे सबकुछ हैं और हमारे लिए चुनौती भी हैं, एक दिन तो ज़रूर कुछ बदलेगा।"
झा जी ने तब तक टोक दिया, "कैसे बदलेगा, शिक्षा का उद्देश्य ही लुप्त हो गया है, शिक्षा का अर्थ न चरित्रा निर्माण रह गया है न देश का भविष्य बनाना। अब अर्थकेन्द्रित शिक्षा हो गई है।"
सुवास को क्लास में देरी हो रही थी, इसी से वह वहाँ से निकल गया। गिरी ने जो बात कहना चाहा था, वह अधूरी रह गई थी।
चित्रा के डी.ए.वी में पढ़ाने के कारण सुवास के बच्चे इंगलिस मीडियम विद्यालय में पढ़ रहे थे। उनको दाखिले में कोई समस्या ही नहीं थी। लेकिन सुवास के स्कूल के शिक्षक अपने बच्चों का नामांकन अंग्रेज़ी माध्यम में कराने के लिए हलकान रहते थे। एक दिन गिरी ने सुवास से कहा कि चित्रा अगर चाहे तो उसके बच्चे का भी नामांकन डी.ए.वी में हो सकता है, क्योंकि ऐसे तो बड़ी भीड़ है। सुवास ने चित्रा से कहा तो चित्रा ने साफ कह दिया कि वह प्रयास तो करेगी लेकिन बच्चे को टेस्ट पास करना ज़रूरी है। सुवास हँस दिया-अरे अभी पाँच साल का बच्चा क्या टेस्ट देगा, उसे तुम सब समझा देना बस। अपने ही स्कूल में एडमीशन दिलाने के लिए उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ी। तब सुवास को लगा कि कैसे इस देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चल रही है। एक तरफ अभिभावक मात्रा नामांकन के लिए सारे काम छोड़कर दौड़े-दौड़े फिर रहे हैं, दूसरी तरफ उनके जैसे स्कूलों में जिनका नामांकन हो चुका है, वैसे बच्चे को स्कूल लाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देने पड़ते हैं, फिर भी शिक्षा के प्रति प्रेम नहीं जग पाता।
इन सब बातों से ही सुवास और भी जिद के साथ अपने विद्यालय के स्तर को सुधारने में लग जाता था। सुवास के विद्यालय के वरीय शिक्षकों की सेवानिवृति होती जा रही थी। नए शिक्षक की बहाली की प्रक्रिया रुकी पड़ी थी। सुवास के उ$पर अब जिम्मेवारी भी बढ़ गई थी। स्नातकोत्तर शिक्षक होने के कारण वह अब प्रिंसपल की अनुपस्थिति में फैसले भी लेने लगा था।
दसवीं की फार्म भरने की तिथि करीब आ रही थी। सुवास उन्हीं सब कामों में लगा तो देखा कि उसके क्लास की उपस्थिति पंजिका में सात-आठ लड़कों के नाम कटे हैं। वे सभी एक ही गाँव के मुस्लिम परिवार के लड़के थे। इनमें दो तो काफी अच्छे विद्यार्थी थे। सुवास ने गौर किया कि ये लड़के बस शुरु के कुछ महीने में आए थे, क्लास के सवा सौ विद्यार्थियों की भीड़ में ंउससे भी अनदेखी हो गई थी। सुवास ने उसके दोस्तों से खबर भिजवाना चाहा। वह सोच रहा था कि ज़रूर ये विद्यार्थी घर से निकल किसी जगह ताश वगैरह खेलते होंगे। घर में कुछ पता नहीं होगा। लेकिन उसके दोस्तों ने कहा कि-वे लोग अब नहीं पढ़ेंगे, क्योंकि उनके पिताजी ने उन्हें कमाने बाहर भेज दिया है।
अल्हड़ लड़कों ने बिना सोचे समझे खी-खी करते समाचार सुना दिया लेकिन सुवास के माथे पर बल पड़ गए. दसवीं में आकर मकबूल जैसा विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ कमाने चला गया। हमारे होनकार ऐसे ही बीच राह में हमें छोड़ जाते हैं।
सुवास से रहा नहीं गया। अगले दिन उसके गाँव के साजिद को मोटरसाइकिल पर बिठाया और छुट्टी के बाद उसके गाँव चला गया। शुरू के कुछ बड़े मकानों को छोड़ झोपड़ीनुमा घर, मुर्गा, बकरी और गली में खेलते बच्चे। साजिद ने ही खाट बिछाकर उसे बिठाया और मकबूल के बूढ़े पिता को बुला लाया। नीम के विशाल पेड़ के नीचे बैठा वह उसके पिता को समझा रहा था, तभी और विद्यार्थियों के अभिभावक भी आ गए. मकबूल के पिता ने कहा, "मास्टर साहब हम गरीब लोग हैं, इस गाँव के पचीस आदमी गुजरात में हीरा तराशने का काम करते थे, तो यहाँ घर चलता था। आसान काम नहीं है हीरा तराशना, लेकिन बच्चे पढ़ रहे थे। जब दंगा हुआ तो यहाँ चला आया, सोचा कि जब सब शांत हो जाएगा तो वापिस चले जाएँगे। लेकिन दो साल बाद भी तरह-तरह की बातें उठने से जाना नहीं हो सका। आँखें भी साथ नहीं दे रहीं। घर में कोई कमाने वाला भी नहीं है उसे फूफा के पास पंजाब भेज दिया, कहीं लुधियाना वगैरह में फैक्ट्री में लग जाएगा।"
सुवास ने मकबूल के पिता का हाथ पकड़ लिया, "मकबूल आपका बेटा है, घर की जिम्मेवारी उसे उठानी चाहिए. लेकिन उसके लिए बोर्ड परीक्षा पास करना कठिन हो जाएगा। मैं चाहता था कि लेटफाइन और स्पेशल क्लास करवा कर उसका फार्म भरवा दिया जाए. बस उसे तीन महीने की मोहलत दीजिए. अच्छा विद्यार्थी है, सभी क्लास में अच्छा करता रहा है। उसके लिए अच्छी नौकरी आसान होगी।"
जिन लड़कों ने पढ़ाई छोड़ी थी उन सब के अभिभावक ने भी अपनी-अपनी मजबूरी बताकर मना कर दिया। सुवास दुःखी मन से उठ खड़ा हुआ। तभी दीवार की ओट में खड़ी छाया का दुपट्टे से हाथ बाहर आया और उसने इशारे से मकबूल के पिताजी को बुलाया। सुवास तक उसकी फुसफुसाहटें आ रही थीं। वह कह रही थी, "मकबूल के अब्बू, मेरी हँसली और कड़े बेचकर, मकबूल को फूफा के यहाँ से बुलवा लो। मास्टर साहब सही कह रहे हैं, बच्चा बड़े दुखी मन से गया था।"
सुवास को अपना आना सार्थक लगा और वह वहाँ से उठकर चल दिया।
विद्यालय में गहमा-गहमी थी। परीक्षा परिणाम आने से शिक्षक उसी में व्यस्त थे। नये सत्रा का नामांकन भी हो गया था। परीक्षा परिणाम अच्छा आने से प्रिंसपल बहुत खुश थे। स्टाफ रूम में शिक्षक यही कह रहे थे कि-हमारे बच्चे अपनी बोर्ड परीक्षा में नम्बर तो अच्छे ले आते हैं, सिलेबस भी केन्द्रीय माध्यमिक बोर्ड पर ही आधारित है, फिर बाहर क्यों फिसड्डी साबित होते हैं। कुछ का मत था कि ऐसा नहीं है, संख्या का अनुपात ज़्यादा रहने पर हम सफल बच्चों को ढूँढ ही नहीं सकते। इतनी बड़ी संख्या में हम उन्हें शिक्षित भी कर रहे हैं।
वातावरण ज़्यादा बोझिल हो गया था तभी कन्हैया ने कुन्ती देवी को कहा, " मैडम अखबार में लिखा है 'छा गया ओबामा' आप इस पर क्या कहेंगी।
"बात तो एकदम सही है, कितनी बड़ी दूरी थी समाज में। उसे कम करने के लिए यह बहुत अच्छा है।"
"ओबामा ने तो भारत आकर यहाँ के लोगों का दिल जीत लिया है।"
सुवास ने कहा, "कन्हैया जी एक दिन सारी सीमाएं टूटेंगी ओबामा के सत्ता तक पहुँचने से यही सन्देश जाएगा।"
सुधा बाउरी ने गरदन घुमाकर कहा, "ये रंगभेद, ये वर्णभेद, ये जातिभेद कभी कम नहीं होंगे।"
निखिल चिढ़ गया, "मैडम आप हमेशा नकारात्मक सोच क्यों रखती हैं। समाज बदल रहा है, फिर भी नहीं देख पा रही हैं।"
तब तक घंटी बज गई और लोग उठ खड़े हुए.
सुवास के विद्यालय के प्रिंसिपल भी सेवानिवृत हो रहे थे। इसलिए जो नाम के लिए एक जिम्मेवार व्यक्ति स्कूल में था या जिनसे उसे कुछ सहारा मिलता था, वह भी नहीं रहने वाला था। सुवास अपनी राह में आने वाली दिक्कतों को जानता था, फिर भी वह इसी प्रयास में रहता कि उसके स्कूल में सबकुछ सही और सकारात्मकता से चले। उसने प्रिंसपल के विदाई वाले दिन घर लौटकर चित्रा से गंभीरता सेे कहा, "चित्रा मेरी एक मदद करोगी? वह अगले दिन के लिए बच्चों के स्कूल बैग सहेज रही थी। वहीं से उसने पूछा ' ऐसा क्यों कह रहे हो?"
सुवास थोड़ी देर चुप रहा। जब चित्रा पास आकर बैठी तो उसके माथे पर उलझे पड़े बालों को चेहरे से हटाते हुए कहा, "मेरे दो बच्चों को तुम संभाल लो। क्योंकि तुम एक अच्छी टीचर भी हो। मुझे मेरे विद्यार्थियों के लिए छोड़ दो। क्योंकि मेरे विद्यार्थी पब्लिक स्कूल के बच्चे नहीं हैं, इनको बहुत ज़्यादा सहारे की ज़रूरत है।"
चित्रा ने सुवास के चेहरे पर फैले असमंजस, अपराध बोध और बेचैनी को देखा, फिर धीरे से उसके हाथ को पकड़कर कहा-तुम जो करना चाहते हो, जितना वक्त देना चाहते हो, वह सब कर सकते हो, क्योंकि सभी वैसा नहीं कर सकते। तुम्हारे अन्दर की सच्चाई से ही मैंने प्यार किया है। तुम्हारे बच्चों की जिम्मेवारी मैं लेती हूँ, लेकिन पिता के प्यार में कोई कसर नहीं होनी चाहिए. "
चित्रा को अपने से सटा लिया सुवास ने, बोला, "तुम चिश्चिंत रहो, मैं अपने बचपन को उसमें नहीं आने दूंगा, क्योंकि बचे हुए समय में सिर्फ़ मेरे बच्चे होंगे।"
सुवास विद्यालय के माहौल को बदलने में लगा रहता। कमजोर बच्चों की अलग से कक्षाएँ लगवाता, खेल के सामान और मैदान के लिए व्यवस्था के साथ दौड़भाग में लगा रहता। स्कूल का मुखिया होने के कारण वह हमेशा अपने शिक्षकों को ज़्यादा समय बच्चे के साथ बिताने को प्रेरित करता। उन्हें यह भरोसा देता कि उनकी परेशानी और मुसीबत में विद्यालय सदा खड़ा रहेगा, बस विद्यार्थियों को जितना भी अच्छा वे दे सकते हैं, वे देते रहें, सिर्फ़ क्लास रुम में नहीं, खेल के मैदान में, प्रार्थना सभा में वनभोज की सैर पर वे जैसे चाहें।
उसने शिक्षकों से कहा कि अक्सर हमारे विद्यार्थी गुटखा, खैनी जैसी चीजें खाते है, वे छिप-छिपकर सिगरेट भी पीते हैं। इसलिए इन किशोरों की खातिर शिक्षक स्वयं विद्यालय या बाहर उन बच्चों के सामने अपनी कमजोरी का प्रदर्शन न करे तभी वे उन्हें समझा सकेंगे। क्योंकि सुवास को पता था कि कुछ शिक्षक अपनी खैनी और सिगरेट लाने भी विद्यार्थी को ही कह देते थे। लेकिन सुवास को उस दिन बहुत खुशी और सुखद आश्चर्य हुआ जब झा जी ने पान खाना घर के लिए ही सुरक्षित कर दिया।
दस वर्षों का असर दीखने लगा था। विद्यालय अन्दर और बाहर से बदल रहा था। बच्चे साफ सुथरे कपड़े में नए आत्मविश्वास के साथ स्कूल आते। पाकेट में कुछ पन्ने की कापी और सर्ट के दो खुले बटन के साथ आने वाले छात्रा अब स्वयं बदल गए थे। विद्यालय सुचारु रूप से चल रहा था। चित्रा के विद्यालय में छुट्टी थी। संकेत प्रतीक्षा ड्राइंग कापी फैलाए अपने में मस्त थे।
मोबाइल के बजने से चित्रा ने सुवास की ओर देखा। सुवास बहुत दिन बाद एक सुखद नींद ले रहा था। चित्रा ने उसके सिरहाने से मोबाइल उठाकर बात किया तो वह अचानक जोर से बोल उठी, "क्या?"
सुवास की नींद टूट गई, वह उठ बैठा और चश्मा लगाकर चित्रा के हाथ से फोन लेकर बात करने लगा। गोमिया से वरुण का फोन था। उसी ने बताया कि राहुल, जो नागपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था, मनसे के उग्र हिंसक प्रदर्शन में जान से हाथ धो बैठा। उसके दोस्त ने फोन कर बताया कि राहुल कहीं भी उसमें शामिल नहीं था, लेकिन एक दुकान पर भीड़ से घिर गया और डंडे लाठी से बुरी तरह पिटाई हुई और बिहारी होने के कारण उसकी मौत हो गई. स्कूल में शोकसभा हुई थी। सारे शिक्षक स्तब्ध थे। वरुण स्वयं चित्रा और सुवास को बताते-बताते रो पड़ा।
सुवास कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। वह अपने चेहरे को ढँककर बैठ गया। चित्रा थर-थर काँप रही थी। संकेत पानी का गिलास लेकर माँ से पानी पीने का आग्रह कर रहा था। चित्रा के बहते आँसू से प्रतीक्षा सहम कर सुवास के पास सट गई. सुवास को समझ में नहीं आ रहा था कि बच्चों को कैसे समझाए. सुवास ने उस शाम अपने को मजबूत कर बच्चों को खिलाकर सुलाया। चित्रा तब से एक शब्द नहीं बोल रही थी। उसका कुछ भी कहना ज़रूरी था। सुवास भी अन्दर से बेचैन था। लगता था दिमाग की नसें फट जाएँगी।
वह बाहर कुर्सी निकाल कर आसमान की ओर देखते हुए आँसुओं को पीने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद चित्रा भी बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गई. सुवास ने डबडबाई आँखें दूसरी ओर फेर लीं। थोड़ी देर बाद चित्रा उठकर सुवास के पास आई और उसके कंधे को धीरे से छुआ। सुवास एकदम बिखर गया, "चित्रा कब तक ऐसा ही चलता रहेगा। तुम हर बार मुझे सहेज कर खड़ा कर देती हो, मैं हिम्मत से लड़ता हूँ। लेकिन कुछ भी नहीं बदलता। बचपन में ननिहाल में रिफ्यूजी लड़के को मार खाकर आँसू पोछते देखा था, जिसकी शकल नहीं भूल पाता था। मेरे पहले प्यार की बलि चढ़ गई, जाति के नाम पर, शिखा मौसी बंगाली होने के कारण नानी की बहू नहीं बन पाई. गोमिया में पंजाबी प्रिंसपल ने बिहारी होने के कारण हमेशा मुझे हेय समझा। झारखंड बनने के साथ डोमिसाइल के नाम पर गोलीबारी, आगजनी होने लगी और अब प्रान्तवाद ने महाराष्ट्र में एक बिहारी छात्रा की जान ले ली। आखिर यह कब तक चलेगा कब तक?"
चित्रा ने भरे गले से कहा, "राहुल हमारे आदर्श का, हमारे प्रेम का, हमारे शिक्षण पेशे की शुद्धता का एक प्रतीक था। आज उसकी मौत से लगता है मैं कितनी कमजोर हो गई हूँ।"
सुवास ने सिर उ$पर उठाकर ओठ भींच लिए थे, "कैसे टूटेंगी ये दीवारें, समझ नहीं पाता।"
चित्रा फफक पड़ी, "सुवास, तुम शायद मेरी तकलीफ समझ रहे हो। मैं मराठी हूँ, जिसने बिहारी से शादी की है और आज मराठी बिहारी के नाम पर हमारा राहुल मारा गया। चित्रा फफक कर रो पड़ी-मेरी त्रासद यात्रा का अन्त कब तक होगा।" तब तक आवाज सुन दोनों बच्चे आँखें मलते सामने आकर खड़े हो गए थे।