जटायु के कटे पंख, खण्ड-3 / मृदुला शुक्ला
"नानी नानी चिट्ठी आई है" सुवास ने अभी-अभी डाकिए से ली हुई चिट्ठी नानी को पकड़ाया।
"किसकी चिट्ठी है अम्मा जी?" अंदर के कमरे से नेहा ने पूछा।
"झरिया से आई है उषा की।" नानी ने संक्षेप में कह कर चिट्ठी पढ़ना शुरू किया ही था कि नेहा ने आकर पूछ लिया, इधर आ रही है कि नहीं?
नानी ने कुछ जबाब नहीं दिया, पत्रा पढ़ती रही। सुवास अपने खिलौने से खेल रहा था। उसने भी नानी से पूछा, "मौसी आ रही है?" नेहा ने भांजे के सर के बालों को सहलाते हुए कहा, "वह मौसी नहीं माँ है तुम्हारी।"
नानी का ध्यान चिट्ठी पर से हट गया, उसने झट से सुवास के हाथ पकड़े और कहा, "सुवास ज़रा मोड़ पर से दही ले आ तो मामा के साथ जाकर।"
सुवास जब तक मामी को जवाब देता कि वह माँ नहीं है। तब तक बाहर घूमने के नाम पर सब भूल भालकर दौड़ पड़ा अतुल के पास। सास ने नेहा से कहा, "बहू ऐसी नाजुक बातें बच्चे को धीरे-धीरे समझाई जाती है।"
"अम्माजी मैं भी तो वही कह रही थी। आखिर उषा जी ऐसी क्यों है?" माँ का मन कटकर रह गया। कैसे बताती कि कैसी थी उषा और भाग्य ने क्या खेल खेला। उस समय तो नेहा इस घर में आई भी नहीं थी।
चित्रागुप्त पूजा समिति वाले आए थे। श्रीवास्तव जी तुरंत घर में दाखिल ही हुए थे, बेटे ने आकर खबर दी। सुधीर पर्स से रुपये निकालते हुए निकला तो सम्मानित बुजुर्गों को देख वहीं पर कुर्सी लगाकर बिठा आया। जब वे वहाँ बातंस कर ही रहे थे कि झनाक से कुछ टूटने और धम्म से गिरने की आवाज आई, सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगे। सुबीर ने अपनी किताबें समेटते हुए कहा, "उषा रानी का रसोई घर में पदार्पण हुआ होगा, इसी से बर्तन टूटने की आवाज आई है।" श्रीवास्तव जी ने मुस्कुराते हुए बेटे को अंदर जाकर देखने का इशारा किया। वर्मा जी ने हँसते हुए कहा, "श्रीवास्तव जी बचपन से ही उषा ऐसी ही है एकदम चंचल चिड़िया जैसी."
श्रीवास्तव जी बोले, "लेकिन वर्मा जी अब तो बचपना छूटना चाहिए ना।" "अरे जाने दे, इतना हँसती है कि मन खुश हो जाता है।" घर के अंदर अलग ही दृश्य था। कप, प्लेट, ग्लास जो धोकर ला रही थी, सब गिरकर चूर हो गए थे। उषा भी जमीन पर औंधे मुँह गिरी पड़ी थी, सलवार का पायंचा पैर में फँस गया था और दुपट्टे के अंदर हाथ बंधे थे। जिससे उठ नहीं पा रही थी।
नीरू ने उसे सहारा देकर उठाना चाहा, "ज्यादा चोट तो नहीं आई उषा जी"
"भाभी चोट तो बहुत आई, लेकिन आप लोग अपनी-अपनी आँखें बंद कर लो न, मैं ऐसी गिरी हुई कैसी लग रही हूँ।" वह हँस-हँसकर दोहरी हो रही थी।
"भाभी भैया को नहीं बताइयेगा, हाय मैं कैसे धड़ाम से गिरी थी आह" और फिर वही हँसी का दौर "भाभी, अरे माँ अगर मेरे दाँत टूट जाते तो?" फिर हँसी—
"तो तेरी शादी नहीं होती?" अतुल ने कहा।
हाँ तू तो कहेगा ही, तेरी बीबी के नखरे उठाती यहाँ रहकर"
"उसे भी सौभाग्य कहते हैं दीदी" अतुल ने चिल्लाकर कहा।
"मुझे नहीं चाहिए, तू ही मेरे घर ऐसा सौभाग्य लेकर आना।" सब हँसने लगे। माँ ने डांटा। यहाँ सारे बरतन टूटे पड़े हैं, पता नहीं हड्डी वगैरह टूटी है कि क्या? और दोनों भाई बहन को मसखरी सूझ रही है। ठहरो सुधीर को बताती हूँ।
लेकिन ऐसी ही थी उषा, डाँट खाती जाती, ठेस लगती अंगूठा कुचला जाता, चाय बनाते समय हाथ जल जाते और वह हँसती रहती। नीरू ने उस दिन उषा के छिले हुए घुटने, केहुनी और माथे पर लगे चोट के नीले निशान और खरोच को ठंढे पानी से धोया ओर पति के पास एंटीसेप्टिक क्रीम मांगने गई. सुधीर ने चिंता प्रकट की—ध्यान देना, इतनी अल्हड़ है, कोई दाग धब्बा न चेहरे पर रह जाए. शादी ब्याह में और मुश्किल होगी। सुनयना की शादी में हो रही परेशानी से सुधीर एकदम गंभीर हो गया था।
जिस दिन सुनयना की शादी ठीक हुई श्रीवास्तव जी ने खुलकर अपने बेटों को कह दिया था कि उषा की शादी तुम भाई लोगों के जिम्मे। मैं अपनी ग्रैच्यूटी और मिले हुए पैसों को घर में लगाउ$ंगा।
सुनैना के नैन नक्श तो सुंदर थे लेकिन रंग बहुत गोरा नहीं था और पढ़ाई भी स्कूल तक ही की थी इसलिए ब्याह में परिवार को बड़ी परेशानी हुई थी।
उसी सुनयना की शादी का समय आया तो उषा फिरकिन बनकर घूम रही थी। अल्हड़ उषा घर के सारे बोझ को जैसे खेल की तरह उठा रही थी। उसी हँसते खेलते अंदाज में। कहीं पानी कहीं चाय, कहीं विधि के सामानों की फेहरिश्त कभी सुनयना दीदी की सजावट के सामानों की लिस्ट के बीच वह घूम रही थी। हाँफ-हाँफ कर भी वह सबकी टहल कर रही थी। लेकिन खुशी उसकी छलकी जा रही थी। कभी किसी जीजाजी को कभी अपने भाइयों को छेड़ती फिर अंदर भाग जाती। बड़े बूढ़े कुंवारी लड़की के इस तरह हँसने बतियाने पर टोकाटोकी करते तो वह भाभियों के झंुड में जा छिपती। कभी नीरू के कंगन को खनका देती कभी कहती, "भाभी मैं भी धूंघट कर लूं तो इतनी डाँट से बच सकती हूँ।"
सुनैना ने उसे एकान्त में समझाया, "चौदह पूरे कर चुकी हो। अब ज़रा संभल कर बैठा उठाकर। दस तरह के लोग हैं, किस-किस से शिकायतें सुनवायेगी। कल को तेरा भी ब्याह होना है"
"तुम निश्चिंत रहो दीदी, इनमें से किसी को अपने ब्याह के बीच में आने का मौका ही नहीं दूंगी।"
सुनैना ने धमकाया, "देख लव मैरेज के बारे में सोचना भी मत" उषा फिर हँस पड़ी, "अरे मुझ पाँच फुट वाली के भाग्य में-में उतनी उ$ँची शादी नहीं हुआ करती। हाँ तेरे जुड़वाँ देवर से कहो तो पटाने की कोशिश करूँ।"
सुनैना ने हाथ से रोकते हुए कहा, "उषा मजाक बंद कर, चाची आ रही है।" जीभ काटती हुई उषा वहाँ से भी भागी।
अगले दिन विदाई में अपनी दीदी से गले लगकर खूब रोई. सारा घर उदास था, कोई खा पी नहीं रहा था। शाम होते-होते उषा ने फिर घर को उठाकर बैठा दिया। चाय गरम चाय गरम कहकर हँसती हुई उषा माँ के पास आई तो माँ का गला भर आया, बोली, "उषा के ससुराल जाने के बाद तो कोई हँसकर पानी देने वाला भी नहीं होगा।" पीरपैंतीवाली काकी बोल उठी, "बेटियां तो वैसी चिड़िया होती है जो मायके का पिंजड़ा सूना कर जाती है।"
नीरू ने चाय हाथ में लेते हुए कहा, "अम्मा जी अब उषा जी को इतनी दूर जाने ही नहीं देंगे कि इनकी हँसी न सुन पाए, बस बगल की छत पर बसा लेंगे।"
उषा ने सुनकर भाभी की ओर मुड़कर देखा, "भाभी नहीं"—और जोर से हँस पड़ी।
माँ ने अपने आँसू पोंछ कहा, "दुर पगली चुप रह।"
ऐसी जिंदादिल, हँसमुख बेटी को क्या हो गया कि उसके बोल सुनने को तरस जाती है।
सुनैना जब पहली बार पति के साथ आई थी तो उसके दोनों देवर भी साथ आ गए थे। सप्ताह भर सबने छुट्टी मनाई. दिनभर धमाचौकड़ी जमती। माँ घर में बेटे, बहू, पोते के साथ बेटी जमाई भरा संसार देख एकदम निहाल थी। वह उनलोगों की चुहल और हँसी ठहाके बीच से उठकर झेंपती हुई बाहर जा बैठती।
एक दिन बाहर बैठी थी कि सुनैना के देवर प्रमोद विनोद की आवाज आई, "माँ जी आइये ना, मेरे दोनों पैर चारपाई से रस्सी से बांध दिए हैं, छुड़ाइये ना।"
वहाँ अंदर मेला लगा था। सुधीर, नेहा, सुनैना और उसके पति जानना चाह रहे थे कि-आखिर तुम सो कैसे रहे थे। सभी हँस-हँसकर दुहरे हो रहे थे। उषा ने आकर कहा, "जीजाजी, आपके भाई कष्ट में हैं, रस्सी तो खोल दें।"
वासुदेव बाबू गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे, थोड़ा नाराजगी दिखाते हुए बोले, "यह क्या बचपना है।"
उषा झट से आगे आ गई, "जीजाजी अब बचपना हम नहीं करेंगे तो क्या आप बूढ़े लोग करेंगे।"
सुनैना ने उषा को थप्पड़ दिखाया तो उषा बोली, "इन नारद भगवान को हमने इसी लिए बांध दिया कि इन्होंने कल हमारी चोटी खंभे में बांध दी थी।"
वासुदेव बाबू भी हँसने लगे। सुनैना ने कहा, "छोडिये एक ही थैली के चट्टे बटृे हैं।"
दो दिन बाद सुबह-सुबह श्रीवास्तव जी बैठक में घुसे अखबार उठाते-उठाते उनकी नजर प्रमोद विनोद पर पड़ गई. दोनों गहरी नींद में सो रहे थे, उनके बालों में रबर बैंड लगाकर सिंदूर लगा दिया गया था, माथे पर बिंदी लगी हुई थी, इसी बीच प्रमोद ने करवट बदली तो चेहरे पर स्केच पेन से बिल्ली की मूंछ बनी हुई थी। उस चित्राकारी को देखते ही श्रीवास्तव जी को बेसाख्ता हँसी आने लगी। वे बाहर आकर पत्नी से बोले, "आज उषा ने क्या किया है जाकर देखो।"
पत्नी वहाँ से लौटकर बहुओं के पास गई, उषा के विषय में पूछा कि आज उसकी खैर नहीं है। नेहा बोली, "उनका तो आज सुबह का स्कूल था। फीस देने की तारीख थी, वे चली र्गइं।"
सुनैना को जाकर माँ ने कहा, "जाकर अपने देवर का चेहरा देख लो। नारद मुनी की गत सच में बना दी है बहन ने आज।" सुनैना चाय पी रही थी, कप को हाथ में लिए ही कमरे में घुसी तो ठमक गई, चाय प्याली से छलक पड़ी, "बाप रे ये कौन सो रहा है।" वह बेतहाशा हँसने लगी। दोनों भाइयों की नींद खुली तो एक दूसरे का चेहरा देख हँस रहे थे कि भाई की ही रंगाई पुताई हुई है। तभी पैरों मेें लगे महावर पर नजर पड़ी तब समझ में आया कि दोनों की ही एक गत हुई है।
स्कूल से लौटने पर सुनैना ने उषा की चोटी खींची और कहा, "खाना तो बाद में मिलेगा, पहले बोल ये आदतें कब छोड़ेगी और नहीं तो तेरा स्वयंवर मैं इन्हीं बंदरों के बीच करा देती हूँ। बता किससे करेगी ब्याह?"
"दीदी छोड़ो मैं तो स्कूल गई थी, मैंने कुछ नहीं किया।" नेहा ने आकर ताली बजाई, "यही सजा अच्छी है, बोलिये ननद रानी किसे पहनायेगी वरमाला?"
उषा ने अपनी अंगुली प्रमोद की तरफ उठाकर कहा, "दीदी जब कुएँ में डूबना ही है तो बड़े वाले में ही थोड़ा पानी है, दूसरे में बिल्कुल अंधकार है ढपोरशंख।"
सुनैना ने अपने पति की ओर कनखी से देखा और बहन की पीठ पर एक धौल जमा दिया, "बेशर्म कहीं की।"
सबके हँसने से घर भर गया। ऐसे दिन पलक झपकते बीत गए. सुनैना का हँसता खेलता दाम्पत्य देख माँ का मन चैन से भर गया। वे लोग चले गए.
फिर खबर मिली कि सुनैना माँ बनने वाली है। खिलखिल कर उषा ने यह खबर भी आस-पड़ोस, स्कूल, गली, मोहल्ले में बाँट दिया। सातवां महीना लगते ही माँ ने सुनैना को मायके बुला लिया। ससुराल में औरतें नहीं थीं। सास और चाची सास प्रसव वेदना के समय हीं गुजर गई थीं। इसी से मुंगेर के घर में दो देवर, चाचा ससुर और ससुर रहते थे। पति नौकरी पर। वासुदेव बाबू स्वयं सुनैना को पहुँचाने आए, एहतियात के तौर पर एक दाई ससुर ने भेज दी थी। सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक वह मनहूस दिन आ गया।
श्रीवास्तव जी के मोहल्ले में रास्ते पर खड़ी औरतें बतिया रही थीं-रात में श्रीवास्तव जी के घर एम्बुलेंस आई थी, क्या हुआ? सुनैना बिटिया की कुछ खबर मिली क्या?
शर्माजी की पत्नी ने कहा कि "रात में तो जाने की आवाज आई थी, लेकिन अभी तक घर में सन्नाटा है।"
तभी श्रीवास्तव जी की दाई बाहर निकली तो सबने घेर लिया। अपने लोर पोछते हुए बोली, "सुनैना बिटिया ना रहीं। एकदम भोरे भोर बेटा का जनम दिया और दो घंटे में अपने चल गई."
औरतों ने दांतों के नीचे अंगुली दबा ली। अपने सामने पली बढ़ी, शादी ब्याह, ससुराल जाने वाली बच्ची को क्या हो गया, किसकी नजर लग गई. घर में सिर्फ़ सुनैना के ससुराल की दाई थी। बाकी लोग अस्पताल में ही थे। सब उसी तरह
गोवध लगे प्राणी की तरह अपने घर लौर्ट आइं। कुछ बोल ही नहीं सकीं। दिन किसी तरह सरक रहे थे। सुधीर और नीरू पर बड़ी जिम्मेवारी थी। सुनैना का सारा श्राद्धकर्म मायके में ही हुआ। वासुदेव बाबू टुकुर-टुकुर देखते रहे। पिता ने ही बेटे की हालत देख या कुछ और सोच अग्निसंस्कार किया।
बच्चा सतैसा में पड़ा था। वासुदेव बाबू को ससुराल वालों ने रोक लिया। सतैसा में सुनैना के ससुर आए. पूजा-पाठ होम सब एक उदासी के साथ संपन्न हो गया। जाते समय उन्होंने श्रीवास्तव जी के सामने हाथ जोड़ते हुए एकांत में कहा, "वासुदेव की हालत देख ही रहे हैं समधी जी, इस दुधमुहें बच्चे के लिए उषा को उसकी माँ बनाकर विदा कर दें तो आपका ऋणी रहूँगा।"
उस समय श्रीवास्तव जी सिर्फ़ रूमाल से अपनी आँखें पोछते रहे। उनके जाने के बाद श्रीवास्तव जी ने पत्नी को बताया। वह आँचल में मुँह डाल फफक पड़ी, "उनके घर में औरतें नहीं बचती हैं। अब अपनी दूसरी बेटी भी दे दूं।"
"चुप रहो, क्या अंधविश्वास पालती हो और कहीं वासुदेव बाबू ने सुन लिया।"
नीरू और सुधीर ने पहले से ही क्या मन में सोचा था पता नहीं, वह हर काम के लिए उषा को वासुदेव बाबू के पास भेजने लगे थे। उनकी चुप्पी और सदमें से उबरने के लिए परिवार को भी लगा कि उषा जैसी हँसमुख लड़की ही सही है।
उषा दो महीने तो कॉलेज गई थी। कितनी जिद मचाकर, रो गाकर उसने एडमीशन लिया था। तभी यह हादसा हो गया। उसके बाद कॉलेज आती तो बहन की चर्चा से बचती रहती। उसकी बातों के केंद्र में जीजाजी ही होते।
"आज जीजाजी के दोस्त के यहाँ चली गई थी। उनके पढ़ने के समय के दोस्त हैं, यहीं पोस्टिंग हो गई है।" उषा ने अपने स्वभाव की हड़बड़ाहट में बताया तो सहेलियों ने एक दूसरे को अर्थपूर्ण ढ़ंग से देखा। एक ने टोका, "परसों भी तो तू मिली थी न बाज़ार में, कृष्णा ने बताया था।"
"हाँ जीजाजी के एक रिश्तेदार ने खाने पर बुलाया था, खलीफाबाग चौक पर ही घर है उनका।" उषा भोलेपन से जवाब देती। जीजाजी अभी यहीं हैं? कभी पड़ोस की चाची पूछती।
"हाँ चाची अभी भी तो बस तकिया में मुँह छिपाए रोते रहते हैं।" उषा उदास हो जाती।
उषा बीच-बीच में कॉलेज आती तो सहेलियां उसे घेर लेतीं-उषा, रमा बता रही थी कि जीजाजी से तेरी शादी होने जा रही है।
"नहीं तो मैं तो सोच भी नहीं सकती और मुझे अभी बीए करना है।" उषा ने अटकते हुए कहा।
शिखा ने एक दिन उषा से पूछा, "उषा वासुदेव बाबू बेटे को तो प्यार करते होंगे न, तभी तो दो महीने रुक गए."
"नहीं शिखा दी वे तो उसे देखते भी नहीं। भाभी कभी-कभी लेकर आती हैं, लेकिन वे कहते हैं इसी ने मुझे सुनैना से दूर किया।"
शिखा ने जीभ काट ली, "इसमें बच्चे का क्या दोष, ऐसा नहीं कहते। इसने भी तो माँ खोया है।"
उषा के चेहरे पर असमंजस छाया रहा, "शिखा दी, जीजाजी का दुख देखा नहीं जाता। मेरी तो पढ़ाई लिखाई सब बंद है।" धीरे-धीरे उषा बदलती गई. कॉलेज तो बस कभी-कभी ही जाती। गले में सोने की चेन और कान में बाली के साथ सिल्क की साड़ी में तैयार आती तो चंद सखियां फुसफुसातीं, "सब बहन का पहन कर घूमती है, बहन को क्या याद करेगी।"
माह भर बाद आई थी उषा, आसमानी रंग की सिल्क साड़ी, गहरे नीले रंग के बोर्डर वाली, मेरुन रंग की बिंदी कानों में बड़े-बड़े झुमके, गले में चौड़े पट्टी वाली चेन के साथ मांग में सिंदूर की गहरी रेख। सुंदर लग रही थी, शालीन भी, लेकिन चेहरे पर वह लाज की लाली, वह उछाह नहीं था। साइकोलोजी का क्लास चल रहा था। तभी खबर फैली कि उषा शादी करके आई है। माधुरी दी का अनुशासन और पढ़ाने के तरीके के कारण कोई लड़की क्लास नहीं छोड़ना चाहती थी। मीतू ने कापी पर लिखकर बताया और कापी चारो ओर क्लास में घूम गई थी। नई उमर की बेसब्री थी। किसी तरह घंटी बजी और पूरा झुंड उसे देखने लगा।
सरदियां उतर आई थीं। एसएम कॉलेज की छत पर अक्सर लड़कियां गप्पें मारने बैठी रहतीं। उषा अपनी आदतवश सहेली के कंधे पर सिर रक्खे बैठी थी, थोड़ी खोई-खोई सी. सुगंधा ने टोका, " शादी कर ली और निमंत्राण भी नहीं दिया।
"शादी में किसी को निमंत्राण देने की मनाही थी, मंदिर में शादी हुई." उषा ने धीरे से कहा।
"उनकी तरफ से क्यों मनाही होगी, तुम्हारे मेहमान तुम्हारे हैं।" तृप्ति ने जाकर छेड़ा।
तबतक सभी लड़कियों ने हल्ला किया, "कब मिलाओगी जीजाजी से? उषा ने कहा-वह किसी से नहीं मिलते और तृप्ति तुम तो जानती हो कि जीजाजी से मेरी शादी हुई है।" सीधे तृप्ति की आँखों में देखती हुई उषा बोली। उसकी सपाट और सधी हुई आवाज के बाद व्यंग्य बोलने वाली टोली थोड़ी देर टल गई. तब उषा ने कृतिका को अपनी बाहों में घेरते हुए हँसकर कहा, "कृति अभी भी नहीं लगता कि सब कुछ सच है, लेकिन है तो सच ही।"
फिर धीरे-धीरे बोलने लगी, "जीजाजी मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े हैं, इसी से झिझक-सी लगती है। लेकिन माँ कहती है पहले तो इतना अंतर रहता ही था।" वह पता नहीं क्या सोचकर हँस दी।
कृति उसकी पक्की सहेली थी, उसने उसके घुंघराले बालों को धीरे से पीछे करते हुए कहा, "और तेरा प्रमोद भी तो होगा वहाँ।"
"छोड़ो वह सब तो बचपना था, लेकिन एक दिन कह रहा था कि सोचा था जिन पैरों में महावर लगाया है उसको आपसे छूने को कहूँगा। पर अब तो आप बड़ी हैं।"
उषा छत की रेलिंग से टिकी कहीं खोई हुई थी। जैसे मेले में बच्चे को समझ में नहीं आ रहा हो कि जो चीज उसे मिली है वह सही है या जो नहीं मिली वह ज़्यादा ज़रूरी थी।
सप्ताह भर में उषा अपने पति वासुदेव बाबू के साथ झरिया चली गई. जाते समय पड़ोस वाली मिश्राइन चाची ने पूछा कि सुवास भी जा रहा है क्या?
नीरू ने कहा-अभी बहुत छोटा है, अभी हमलोग ही संभाल लेंगे। अगली बार जाएगा।
बाद में दाई ने उनको बताया कि घर के सबलोग चाह रहे थे कि बच्चा साथ ही जाए, लेकिन उषा ने सबके सामने मुँह पर कह दिया, "जो कुछ कहा सब हो गया। पहले बीबी तो बनने दीजिए, फिर माँ भी बन जाउंगी।" तभी सब एकदम चुप हो गए.
उषा बोलने में तो हमेशा से स्पष्ट वक्ता थी। लेकिन बीबी बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी खिंच गई थी। मायके आती, अपने दो बच्चों, अपनी व्यस्तता का हवाला देकर सुवास का जाना टाल जाती। यहाँ भी सुवास लोगों का दुलारा बन गया था। शायद उषा को लगता कि उसके बच्चे का ननिहाल छिन गया है या कुछ और। उसका आना कम होता गया है और चिट्ठियों में तो माँ ढूँढती रहती है कि शायद सुवास के लिए भी कोई पंक्ति मिल जाए।