जटायु के कटे पंख, खण्ड-6 / मृदुला शुक्ला
शहर में कुछ भी सामान्य नहीं था। शहर ही नहीं देश भी आंदोलित था। फुसफुसाहटों के बीच दूसरी आजादी या दूसरी क्रांति का नारा लग रहा था। आफिसों में कहकहे लगने बंद हो गए थे। स्कूल, कॉलेज के एग्जाम्स कड़ाई से लिए जा रहे थे। गली में कुछ लोग जोर-जोर से बात कर रहे थे। कुसुमी का मन कहाँ मानने वाला था। हाथ से मांजने वाला बरतन नीचे रख और उसी तरह अहाते से बाहर गली में निकल गई. नीरू ने कुसमी की खोज की उससे चटनी पिसवानी थी, लेकिन नहीं मिली तो खुद पीसने बैठ गई. थोड़ी देर बाद लौटी तो नीरू ने पूछा, "बीच-बीच में कहाँ गायब हो जाती है कुुसुमी?"
"हाय दैया पहरेदारी करती हें भौजी, काम के समय में तो यही रहती हूँ"
"बात पहरेदारी की नहीं है, तेरे भैया को खाना देना था, चटनी पिसवाने के लिए खोज रही थी।"
"भौजी वहाँ गली में लोग जोर-जोर से बात कर रहे थे कि बड़ी खंजरपुर में मियाँ लोग सरकारी आदमी से गुस्साए हुए हैं। राशन कार्ड बनाने वाला सरकारी आदमी घर-घर घूम रहे हैं, फर्जी नाम काटने के लिए, उसी से।"
नीरू ने उतावली से सुधीर से पूछा, "अच्छा राशन कार्ड बनाने वाला घूम रहा है, इस बार दो नाम बढ़वा देना। आकाश, विकास का नाम तो है ही, सुवास और सोनू का नाम भी चढ़ाना होगा, चीनी का कोटा थोड़ा बढ़ जाएगा।"
सुधीर ने गिलास उठाकर पानी पिया और दही का कटोरा हाथ में लेते हुए बोला, "सुना नहीं कुसुमी क्या बोल रही है। मियाँ टोली का आदमी लोग क्यों भड़का हुआ है। सरकारी अफसर उनके घर के जनानियों को भी सामने आकर नाम लिखाने बोल रहे थे। उनके यहाँ तो परदा है, बुरका चलता है। हमारे घर में तो ऐसा बहाना भी नहीं चलेगा। फिर कहाँ से दिखाएंगे व्यस्क दो आदमी। पहले से ही कुसुमी और उसकी माँ का नाम लिखवा दिया है।"
सब तो यही करते हैं, उस पर दो चार महीने पर कभी चीनी या गेहूँ के दरशन होते हैं। नीरू के उत्साह पर पानी फिर गया।
"हाँ सब करते थे, अब नहीं कर सकते ना। संजय गाँधी का हुकुम चलता है।" थोड़े व्यंग्य से बोलकर सुधीर आफिस जाने के लिए खड़ा हो गया।
नीरू ने झुंझलाहट के साथ कहा, "ये संजय गांधी क्यों हर बात में टांग अड़ाता है?"
"ऐसे नहीं बोलो माँ। हमारे स्कूल में भी भाषण हुआ था परचा छपा था। लोग कह रहे थे कि संजय गांधी कहते हैं-कम अन्न खाओ ज़्यादा सब्जी उगाओ."
तब तक आकाश और विकास दोनों भाई डेगजी लेकर बजा बजाकर गाने लगे, "बच्चे, दो या तीन अच्छे।"
नीरू और नेहा मुँह घुमाकर हँसने लगी, क्योंकि सामने से श्रीवास्तवजी आ रहे थे। उनके लिए खाना परसने नीरू चौके में घुस गई. अतुुल गुनगुनाता हुआ घर के अंदर घुसा तो सामने पिता को देख वह भी हकबका गया।
श्रीवास्तव जी हडबड़ी में थे। आधा खाना ही खाकर उठ गए. पत्नी ने टोका तो बोले, "दफ्तर में एक मिनट भी देरी हो तो साहब को सौ जवाब देने पड़ते हैं। काम भी बहुत हो गया है। अब तो अति है। गदहे की तरह काम करो और मुँह बंद रखो।"
पत्नी ने चश्मा और मनीबैग देते हुए कहा, "रेखा की चिट्ठी आई थी कि उसके बेटे को काम से बैठा दिया गया है। भौजी बता रही थी, पैसों की कुछ गड़बड़ी थी आफिस में, इसका दोष भी नहीं था।"
श्रीवास्तवजी लंबी-सी हूँ कहकर निकल गए. औरतें जहाँ आपस में मिलतीं बस आधी अधूरी जानकारी के साथ इंदिरा गाँधी और सरकार की ज्यादतियों के बारे में बोलती रहती। उन्हें किसका भय था। उन्हें तो बस इतना पता था कि उनके पति, बेटे या भाई परेशान हैं। बीच-बीच में जुलूस और धरने भी चल रहे थे। हर मोहल्ले से प्रतिदिन विद्यार्थियों का झुंड बारह घंटे की भूख हड़ताल पर बैठते। अखबर वाले आते, मोहल्ले या शहर का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रोफेसर, डाक्टर या समाजसेवी शाम को शरबत पिलाकर उनका अनशन तुड़वाते।
नौकरीपेशा खुलकर सामने नहीं आते। अपनी भीरुता को ढँकते हुए बच्चों को शाबासी देते। लेकिन अपने घर के बच्चों को हिदायत भी देते कि इन सबसे दूर रहें। फिर भी उनके अंदर का क्षोभ और आक्रोश सामने आ ही जाता।
इसी माहौल के बीच सुवास का परीक्षाफल निकला। वह अपनी कक्षा के सभी सेक्शन में प्रथम आया था। सीएमएस स्कूल के प्राथमिक सेक्शन के हेड ने रिपोर्ट कार्ड देते हुए, उसके सर के बाल सहलाए, "गॉड तुमको आगे भी अंगुली पकड़कर चलाएगा। बस इसी तरह पढ़ते रहना।" दौड़ता उछलता सुवास घर आया था। घर में वह हमेशा दबा-दबा-सा रहता था। लेकिन आज उसने नानी की गोद में रिपोर्ट कार्ड देकर बताया कि वह फर्स्ट आया है, उसे कार्ड के साथ मेडल भी मिला है। नानी की आँखें छलक गईं। आज अगर सुनैना होती तो यह खुशी, उसी के हिस्से की थी।
उसने बक्स खोलकर रुमाल से रुपये निकाले और अतुल से लड्डू मंगवाकर महावीर स्थान में चढ़ाने चली गई. वहाँ से लौटी, घर के सारे बच्चे लड्डू की ही राह देख रहे थे। वह हँसती हुई बोली, "थोड़ा ठहर जा, पहले सुवास को भरपेट मिठाई खा लेने दे फिर सबको खिलाउ$ंगी।"
नेहा थोड़ी खिंची खिंची-सी थी। उसने अपनी जिठानी की ओर देखा और हँसकर कहा, "माँ हमारे बच्चों के पास होने पर तो कभी मिठाई चढ़ाने नहीं जाती, आज सुवास के पास करने पर गई." नानी के हँसते मुस्कुराते चेहरे पर धुंध छा गई. सोचने लगी नेहा क्या बोल गई, बिना सोचे या सचमुच अब उसकी आँखों में सुवास खटकने लगा।
थोड़ी देर बाद उसने नेहा से सीधे आकर पूछ लिया कि "ऐसा क्या हुआ कि तुम्हें इतना बुरा लगा।"
"माँजी आप सुवास में इतना खोई रहती हैं कि आपको याद भी नहीं रहता कि आपके पोते पोतियां भी हैं।"
नीरू बाहर फूल के पौधों में पानी दे रही थी, वह बिल्कुल चुप खड़ी रही। सुवास की नानी ने लड्डू की थाली बरामदे पर रख दिया और दनदनाती हुई अहाता पारकर बाहर निकल गई. उस समय घर में सिर्फ़ बच्चे और दोनों बहुएँ थीं। सब कुछ बस थम-सा गया। सुवास सिर्फ़ सबका मुँह देखे जा रहा था। फिर नानी के पीछे-पीछे वह भी निकला। थोड़ी दूर जाकर शायद श्रीवास्तव जी की पत्नी ने सोचा कि बात आगे ना बढ़े तभी अच्छा है और आँचल से आँसू पोछ गली के मोड़ तक जाकर वापस आ गई. फिर सबकुछ सामान्य करने के लिए छोटी डॉली को गोद में उठाया और नीरू को कहा, "बच्चों को प्रसाद बाँट दे।"
नीरू ने सुवास को अपने कमरे में बुलाया और कहा, "क्यों सुवास रिजल्ट निकलने पर सबको प्रणाम करना चाहिए ना। तूने किसी को प्रणाम ही नहीं किया।"
सुवास अब कुछ-कुछ समझने लगा था, पर आज की बात उसकी समझ में नहीं आई कि छोटी मामी को बुरा क्यों लगा, क्यों नानी रोई. सबकुछ भूलकर वह हँसते लजाते हुए मामी को प्रणाम कर बाहर जाकर छोटी मामी और नानी को प्रणाम करने लगा। तभी आकाश और विकास भी सामने आ गए, "बच्चू मैं भी तेरा भैया हूँ, मुझे भी प्रणाम कर।"
सुवास थोड़ी देर यों ही खड़ा रहा फिर बोला "नहीं तुम उतने बड़े नहीं हो।" तब नानी ने हँसते हुए कहा-अरे है तो तेरा भैया ही। प्रणाम कर ले। आखिर झेंपते हुए सुवास ने प्रणाम किया तो सब हँसने लगे। थोड़ी देर में तनाव के वे बादल भी छँट गए.
उसी सांझ सब बाहर बैठे थे। धूप अपनी आखिरी चादर खींच रही थी। लोग आलस से धूप के पास से हटना नहीं चाहते थे। बच्चे धमाचौकड़ी में व्यस्त थे। अब नए साल में नए क्लास में जाना था, नए टीचर मिलने थे, बड़े होने का अहसास भी था। नीरू ने उन्हें इस तरह से उछलते मचलते देखा तो सोचा कि बच्चों के लिए आलू मटर की सब्जी और पूरी बनाकर खिला दे। यही सोचकर वह रसोई में चली गई.
तभी श्रीवास्तव जी घर आए. पत्नी ने उनकी उतारी हुई कमीज और चश्मा हाथ में पकड़ा तो लगा कि श्रीवास्तव जी काँप रहे हैं। सिर उ$पर उठाया तो श्रीवास्तव जी का चेहरा स्याह हो रहा था। वे कुर्सी पर बैठ गए. पत्नी ने जल्दी से पानी का गिलास लाकर दिया। पानी पीकर वे थोड़े संभले और बाथरूम चले गए. पत्नी ने बच्चों को बाहर के कमरे में जाने और शोर नहीं मचाने को कहा। सुवास अपने रिजल्ट को लेकर बहुत उत्साहित था, इसी से बड़े बेमन से निकला।
थोड़ी देर में सुधीर घर आया तो उसे बाहर ही भनक लग चुकी थी। श्रीवास्तव जी के सहकर्मी सिंह चाचा ने बता दिया था कि भ्रष्टाचार और अनियमितता के विरुद्ध सरकार द्वारा चलाए सख्त अभियान में श्रीवास्तव के आफिस में भी तीन लोगों पर गाज गिरी थी। दो को तो नौकरी से ही निकाल दिया गया। श्रीवास्तव जी की उम्र का लिहाज कर कम्पलसरी रिटायरमेंट देने का फरमान दे दिया गया।
श्रीवास्तव जी सोच ही नहीं पा रहे थे कि इस बात को घर में कैसे कहें और समाज इसे किस रूप में लेगा। इसी से कमरे की बत्ती बुझाकर चुपचाप लेटे थे। आस पड़ोस के लोग घुसुर-पुसुर में व्यस्त थे। कुछ ऐसे जीव थे, जिन्हें दूसरे के घर में झांकने की आदत रहती है, वे बाहर मंडरा रहे थे ताकि कोई घर से निकले तो उनसे कुछ पूछ सकें।
नीरू ने सभी बच्चों को कड़ी हिदायत दी थी इसी से कोई बाहर नहीं निकला। पूरी तलने के लिए चढ़ी कढ़ाई भी नीरू ने उतार कर नीचे रख दी।
उस रात किसी ने खाना नहीं खाया। दरवाजे वगैरह खुला देख जब नीरू गेट में ताला लगाने निकली तो देखा कि सभी बच्चे एक ही पलंग पर गुड़ीमुड़ी होकर आड़े तिरछे सोए हैं। अतुल भी उन्हीं के बीच में आकर सो गया था। उसने सभी बच्चों के हाथ पैर सीधे किए और अतुल को बाहर के कमरे में जाकर सोने और दरवाजा बंद करने को कहा। अंदर जाते-जाते नीरू सुवास के पास रुक गई. सुवास नींद में भी अपनी रिपोर्ट कार्ड पकड़े सो रहा था, जिसे वह शायद नाना को दिखाना चाह रहा था। उसकी आँखें भीग गईं और वह डॉली को गोद में उठाए अपने कमरे में चली गई.
तीन दिन बाद दिनचर्या जब सामान्य हुई तब श्रीवास्तव जी ने ही हिम्मत की। यह गृहस्थी की गाड़ी आगे खींचनी ही थी। परंतु सुवास का रिपोर्ट कार्ड उसके हाथ और आँसुओं से मैला हो चुका था और उसका उत्साह भी खतम हो चुका था।