जटायु के कटे पंख, खण्ड-7 / मृदुला शुक्ला

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अब घर में पहले जैसी बात नहीं रह गई थी। एक दूसरे पर सभी छोटी-छोटी बात पर चिढ़ते थे। जमशेदपुर से सुधीर की चिट्ठी आई थी कि अब वह पैसे नहीं भेज सकेगा क्योंकि बच्चों की पढ़ाई का खर्च बढ़ गया है। श्रीवास्तव जी पथराये से पोस्टकार्ड हाथ में थामे सोचते रहे।

शिखा को पता चला तो वह आई और चाची तथा सुधीर सेे हिम्मत रखने को कहा। शिखा बोली, "यहाँ गेहूँ के साथ घुन पिस जाता है। बड़े-बड़े लोग माल दबाकर रखते हैं, उनकी नाव किनारे लग जाती हैं, छोटे लोग दो पाटों में पिसकर रह जाते हैं। फिर भी चाची आप चिंता न करें तीन कमानेवाले बेटे हैं। अतुल भी कहीं लग ही जायेगा।"

श्रीवास्तव जी की पत्नी ने सेल्फ पर रखे सुवीर के पोस्टकार्ड को उठाकर चुपके से शिखा के हाथ पर रख दिया। दोनों बेटी के अभाव को वह शिखा से ही मन की बात करके पूरा करती थी। शिखा ने थोड़ा इधर-उधर देखा, चाची वहाँ से जा चुकी थी और कमरे में कोई नहीं था। सुबीर की लिखावट और नाम के साथ शिखा के अंदर एक कंपन-सा हो गया। मानो पुराना दर्द चिनक गया हो। न चाहते हुए भी मानो गुजरा वक्त उसकी आँखों के आगे था। इस सुबीर की लिखी कितनी परचियाँ उसके किताब और कापियों में उन दिनों रहा करती थीं। कितना हँसती थी उन दिनों शिखा, अल्हड़-सी उम्र थी। सुबीर भी उसकी ओर आकर्षित था। कभी छेड़ देता, "अरे यह बंगालन यहाँ क्या कर रही है, यह बिहारी का घर है।"

शिखा कहती, "बंगाली बिहारी क्या लगा रखा है, यह भागलपुरिया घर है।"

शिखा को पहले सिर्फ़ संदेह था। सुबीर कभी उसकी लंबी चोटी खींच देता, कभी सुनैना से बातें करते हुए वह देखती कि सुबीर एक टक उसकी ओर देख रहा है। उसकी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखता था। इसी बीच एक दिन पूरे परिवार का फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना। शिखा को भी सुनयना जबरदस्ती ले गई थी। वापसी में पिक्चर पैलेस से खंजरपुर तक पैदल आना पड़ा था। दो रिक्शे में नीरू, उषा, आकाश, चाची और शेखर चले गए. बाकी लड़कों के साथ सुनयना और शिखा भी रह गई थी। सड़कों पर चलते-चलते कभी सुबीर, शिखा के साथ-साथ चलने लगा था, सुधीर और अतुल तेज कदमों से आगे बढ़ गए थे। सुबीर ने धीमी आवाज में शिखा को कहा था, "आज बड़ा ही अच्छा लग रहा है तुम्हारे साथ चलना।"

शिखा सिर्फ़ मुस्कुरा दी थी। सुबीर ने फिर कहा, "मैंने मुस्कुराने के लिए ये नहीं कहा है। इस पर ज़रा सोचना मेरी माछेर झोर।"

"फिर तुमने मुझे चिढ़ाया" शिखा ने बड़ी-बड़ी आँखें निकालीं तो सुबीर बोला-सुनयना आ रही है, कल बताना। "

बस यही थी उसके संक्षिप्त-सी प्रेम कथा की शुरुआत। उसके बाद वे दोनों कभी-कभी कॉलेज के बाहर मिलते, मकबरा के पास। दोनों थोड़े चौकन्ने हो गए थे। कागज की छोटी परचियों में भी मन के संदेश लिख किताबों के द्वारा भेज दिए जाते। सुनयना को सहेली के अंदर पनप रहे इस प्यार का कुछ आभास हुआ, पर वह यह नहीं जान पाई कि वह उसके भाई के प्यार में खोई-खोई रहती थी। चार पाँच माह ही बीते होंगे कि सुबीर की शादी ठीक हो गई. सुनयना ने लड़की की तस्वीर दिखाई तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि सुबीर इतनी आसानी से शादी के लिए तैयार हो जाएगा। फिर सुबीर ने एक दिन उसे मिलने को बुलाया और छलछलाई आँखों से कहा कि "मैंने माँ को सुनयना को, सुधीर भैया के द्वारा समझाने की कोशिश की थी शिखा। मेरी मजबूरी समझो। माँ बंगालन बहू लाने को एकदम तैयार नहीं हुई."

शिखा ने दर्द को पीते हुए कहा, "नहीं सुबीर, तुम भी तो कहते थे कि सुनयना तेरी इस बंगालन सहेली का इस घर में क्या काम।" सुबीर ने उसके हाथों को थाम कहा, "मैंने उस समय सच नहीं सोचा था, कुछ भी, लेकिन मुझे माफ कर देना। बाबुजी से तो माँ ही बात करती, मैं बात नहीं कर सकता।"

इसके बाद सुबीर ने चुप्पी ओढ़ ली थी। सुबीर तनाव से भरा, शादी की रश्में निभाता रहा और शिखा अपनी छिलती हुई आँखों से सबकुछ छिपाती दोस्ती को बचाती रही। सुनयना ने भी कभी उनसे कोई बात नहीं पूछी और उसने भी अपने प्रेम को अपना अपराध मान उस परिवार को हर समय सहारा देने की कोशिश की। सुबीर पत्नी को लेकर जमशेदपुर गया तो वह बहुत कम आता। शिखा भी उससे बचने की कोशिश करती। लेकिन आज सुबीर के चार पंक्ति के पत्रा से वह उस दिन से भी ज़्यादा आहत हुई थी। सोचने लगी कि शायद विधाता ने इसी से जोड़ी नहीं बनाई. उसने या तो अपनी कुंठा निकाली थी या सच ही इतना हृदयहीन था।

उसके आँखों से दो बूंद आँसू निकलकर पोस्टकार्ड पर गिर पड़े।

"अरे बेटी तुम क्यों दुखी होती हो। यह तो सुबीर ने लिख भेजा है पर यहाँ तो हमलोग रोज ही देख सुन रहे हैं।"

"नहीं चाची आप इतनी लाचार नहीं बनिए." इतना कहकर शिखा श्रीवास्तव जी की पत्नी के कंधे पर सिर रखकर सिसक पड़ी। बहुत से लेाग इस समय सहानुभूति प्रदर्शित करने आते थे। लेकिन सुधीर, जो इस बीच आकर खड़ा हो गया था, उसे शिखा की यह सहानुभूति सच्ची लगी। उसने शिखा को समझाया, "शिखा ऐसी बड़ी बात नहीं है, तुम दुखी मत होओ."

शिखा ने अपने को स्थिर किया और अंदर चलकर बैठ गई. कोलीखुटहा से दूधवाला आता था तो दोपहर हो जाती थी। उस दिन भी तीन बजे दूधवाला आया था।

श्रीवास्तव जी की पत्नी ने दूध का भगौना सामने करते हुए कहा, "कुन्दन, कल से एक किलो दूध कम कर देना।"

"क्या मायजी आप भी बीच महीना में बोल देती हैं, हम अब गहकी खोजने कहाँ जाएँगे?"

थोड़ी शर्मिंदा होते हुए श्रीवास्तव जी की पत्नी ने कहा, "देखो अभी दूध की उतनी खपत नहीं है, इसी से कहते हैं। फिर होगा तो बढ़ाऐंगे भी।" दूध लेने के बाद उन्होंने दूध का हिसाब मांगा। कुन्दन अनसुना कर खड़ा रहा। नेहा जो सब कुछ सुन रही थी। दूध कम करने की बात पर बोलने लगी, "इतने इतने बच्चे, बूढ़े, चाय-पानी सभी तरह की ज़रूरत होती है, ऐसे ही दूध पूरा नहीं पड़ता है।"

दबी आवाज में सास ने कहा, "दुलहिन अब पैसों के कारण भी तो आगे पीछे सोचना पड़ता है।"

नेहा ने उसी तेजी से जवाब दिया, "यहाँ एक तरफ छोटे बच्चों के दूध की कटौती होती है, दूसरी ओर दूसरों की जिम्मेवारी अपने सिर पर लेकर हमलोग महान बनते हैं।"

सास ने कातर नजरों से शिखा को देखा। शिखा सिटपिटा गई. उसने

दूधवाले को इशारे से जाने को कहा। उसके जाने के बाद चाची के हाथ पर धीरे से हाथ रख दिया। अपनी ही गृहस्थी के नंगेपन का अहसास उन्हें चीर गया। थोड़ा बिफरकर बोली, "दुलहिन बात जिसको लेकर हो रही है, ज़रा उसके बारे में सोचो। वह तो ऐसा अभागा है कि उसने माँ का दूध भी नहीं पिया। उसके यहाँ रहने से तुम्हें क्या तकलीफ हो रही है।"

"माँजी बात को दूसरी ओर मत ले जाइये। पहले मैंने कभी नहीं कहा, लेकिन अब तो सबको सोचना चाहिए."

"ऐसा क्या खर्च हो जाता है तुम्हारा सुवास के उ$पर, जो तुम इतनी बड़ी-बड़ी बात कह रही हो।" इस बार तेज आवाज में जब सास ने कहा तो, नेहा रोने लगी।

"मेरी तो हर बात बुरी लगती है। बड़े लोग ही दोरंगा व्यवहार करते हैं और दोष कमजोर पर लगाते हैं। सुबीर भैया और सीमा भाभी को कोई कुछ नहीं कहता, क्योंकि वे ज़्यादा पैसे कमाते हैं और मेहमान बनकर आते हैं ना।"

सास ने जब देखा कि नेहा आज घर को कलह का मैदान बनाकर छोड़ेंगी तो उसने उठते-उठते सिर्फ़ इतना कहा, " ठीक है आज से शेखर भी घर खर्च में पैसे नहीं देगा। तुम लोग जिसमें खुश रहो।

उसी समय नीरू, डॉली के स्कूल से उसे लेकर घर में घुसी. अंदर सिटपिटाई हुई शिखा, सुबकती हुई नेहा और आँखें पोछते सास को देखा तो पूछने लगी, "क्या बात है माँ जी."

सास ने कहा, "कुछ नहीं बड़की दुलहिन। सुवास के उ$पर अब खर्च भारी लगने लगा है सबको। हम आज ही उसके बाप को चिट्ठी भिजवा देते हैं कि अब बुढ़उ$ नौकरी से बैठ गए हैं। अपना बेटा आकर ले जाएँ, हम नहीं संभाल सकते।"

नीरू हड़बड़ा गई, "ऐसा नहीं कहिए माँजी, अभी मामा लोग हैं, उनकी क्या इज्जत रह जाएगी।"

"मामा लोग के अपने भी तो बच्चे हैं ना और वह भी मुझे उतने ही प्यारे हैं, इसी से कह रही हूँ कि जिसका बोझ है वहीं संभाले, छोटकी दुलहिन से भी कह देना।"

नीरू रोने लगी, "क्या आपने कभी देखा है कि मैंने सुवास और अपने बच्चे में फर्क किया है, फिर ऐसा क्यों सोचती हैं?"

"आप महान हैं भाभी" कमरे के अंदर से नेहा की आवाज आई तब नीरू को बात समझ में आई कि सास ऐसा क्यों बोल रही थी। नीरू वहाँ से तेजी से निकल कर बगान में आ गई. वह अपनी आँखों में छलछलाते आँसू को छिपाने का प्रयास करने लगी। शिखा भी पीछे-पीछे वहीं चली आई, "भाभी आप मन मत खराब कीजिए. ऐसा सब घर में चलता है। छोड़िए इन बातों को डॉली को खाना दीजिए. मैं दूसरे दिन आउ$ंगी।"

"नहीं शिखा जी ऐसे नहीं जाने दूंगी। आप तो घर की हैं, सब जानती हैं, समझती हैं। माँजी को समझा बुझाकर शांत कर दीजिए कि वे मेहमान को पत्रा नहीं लिखें।"

"हाँ-हाँ वह नहीं लिखेंगी, आप अंदर चलिए ना।"

शिखा ने स्थिति को सामान्य करने की कोशिश की। उ$पर से सबकुछ शांत भी हो गया, पर अंदर फाँस रह ही गई. रात्रि में सुवास की नानी ने श्रीवास्तव जी से इशारों-इशारों में बात की कि सुवास को अब अपने पिता के पास भेज देना चाहिए तो श्रीवास्तव जी एक टक उनका मुँह देखते रहे। थोड़ी देर बाद कहा, "जहाँ चार बच्चे रह रहे हैं, वह एक सुवास के रहने न रहने से क्या फर्क पड़ेगा। कुछ दिन निकल जाने दो, मैं भी बैठा नहीं रहूँगा कुछ काम देखूंगा।"

बात खतम हो गई थी और नहीं भी हुई थी। तभी एक दिन सुवास के पापा अपने रिश्तेदार की शादी में अमरपुर आए तो भागलपुर भी मिलने आ गए.

गोधूलि की वेला थी। सुवास अपनी गेंद ढूँढने घर में घुसा था। तभी पापा को आते देखा। वह दरवाजे की ओट हो गया। पापा ने आँख की कोर से उसे देखा और वहीं बैठक में रखी कुर्सी पर बैठ गए. तभी घर के और बच्चे अंदर की ओर। "फूफाजी आए हैं" कोरस गाते हुए भागे। वासुदेव बाबू ने झोले से मिठाई का डिब्बा निकाल कर छोटी डॉली को पकड़ाया। अंदर से नीरु हँसती हुई निकली, "अरे ननदोई जी आइये आइये, बहुत दिनों पर आपके दर्शन हुए."

घर के अंदर जो गमगीन-सी हवा ठहरी रहती थी, वह सरकती हुई लगी। घर में थोड़ी हलचल-सी जगी, "वर्मा जी आए हैं" कहते हुए सुधीर भी निकला।

श्रीवास्तव जी दूसरे कमरे में आँख मूंद कर सोने का अभिनय करते रहे। श्रीवास्तव जी की पत्नी ने शरबत का गिलास पकड़े हुए जोर से पति को सुनाया, "मेहमान जी आए हैं।"

वासुदेव बाबु ने कहा, "बाबूजी दफ्तर से बहुत जल्दी आ गए"

उनकी बात पर घर के सभी लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे। तभी

सुधीर ने अतुल को आवाज लगाई-कुर्सी बाहर लॉन में डाल दो वहीं बात भी करेंगे और नाश्ता भी। अतुल इस सबसे पहले हीं कहीं गायब हो चुका था। आखिर कुसमी ने ही बाहर कुर्सी लगाया श्रीवास्तव जी भी किसी तरह अपने को संभालते हुए बाहर आए. वासुदेव बाबु ने चिंतित स्वर में ससुर से पूछा, "तबीयत ज़्यादा खराब है क्या?"

नजरें चुराते हुए श्रीवास्तव जी बोले, "नहीं तो बस यों ही पड़ा था आलस से।" तब तक पड़ोस के शर्मा जी और महतो जी आ गए. बाहर गपशप चलने लगी। शर्मा जी ने वासुदेव बाबु को कहा-दुलहा जी आपलोगों के यहाँ तो इतनी परेशानी नहीं होगी, नहीं तो आजकल सरकारी मुलाजिम की तो हालत ही खराब है। इस सड़े गले सिस्टम में काम करना कठिन है और सिर पर हर समय तलवार लटकी रहती है। बड़े हाकिम की सुनो तो परेशानी, न सुनो तो परेशानी।

"चाचा जी हमलोगों के यहाँ दूसरी तरह की परेशानी है-यूनियन, सूदखोर महाजन और अशिक्षा होने से कोई काम करना या करवाना झंझट मोल लेना है।"

तब तक अंदर से चाय-नाश्ता आ गया। अतुल भी बाहर से आकर वहीं बैठ गया। सुधीर, वासुदेव बाबु के बगल में जाकर बैठ गया। शर्माजी ने कप उठाते हुए पूछा, "हाँ वेतन की समस्या होती होगी। कोलयरी के मालिक अक्सर मनमानी करते हैं।"

"नहीं चाचा जी हमारी कोलयरी में ये समस्या नहीं है। इस्को की कोलयरी का पेमेंट हमेशा एक तारीख को हो जाता है, मजदूरों का दस तारीख को। अब तो कोलयरीज भी नेशनेलाइज हो गई है।" महतो जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "तब तो काम भी हो चुका समय पर। सरकारी गाड़ी तो बस खिंचती है, दौड़ती नहीं।"

सुधीर ने प्लेट से बिस्कुट उठाकर बहनोई की ओर बढ़ाया और अपने दफ्तर के विषय में बताने लगा। वह स्वास्थ्य विभाग में था, रोज बांका जाना पड़ता था। वह कहने लगा सरकारी आदमी कितना भी करे फिर भी बदनाम ही रहता है। संजय गांधी के आदेश से फैमिली प्लानिंग कार्यक्रम का इतना दबाव बढ़ गया है कि और काम हो ही नहीं पाता। अनियमितता तो आयेगी ही। दिए गए आंकड़े भी हम पूरा नहीं कर पाते। समझ ही नहीं आता कि टारगेट को कैसे छुआ जाए.

वासुदेव बाबु ने साले को देखकर एक महीन मुस्कुराहट फेंकी और कहा, "हाँ हाँ सुनते हैं कि आपलेाग बूढ़ों और बच्चों को भी पकड़-पकड़कर फैमिली प्लानिंग के लिए ले जाते हैं राजकोप से बचने के लिए."

"अरे आप भी वर्मा जी अच्छा बोलते हैं। ये सब खाली प्रोपेगंडा है भला ऐसे कैसे हो सकता है?"

शर्माजी थोड़ा तनकर बैठ गए, "क्या कहते हो सुधीर ये प्रोपगंडा है। अरे मैं भी जानता हूँ मेरे साढ़ू के भतीजे के मित्रा ने अपनी आँखों से देखा था, अररिया में बस से उतारकर एक लड़के को अस्पताल ले जाते हुए. उसका आपरेशन जबरिया कर दिया।"

"चाचाजी, वहाँ के बारे में मैं क्या जानूं, लेकिन बांका में तो कोई बूढ़ा बच्चा नहीं पहुँचा है। हाँ कोई गरीब रुपये के लालच में झूठ बोलकर दोबारा आपरेशन को आ गया तो डाक्टर उसका नाम भी दर्ज कर अपनी पीठ थपथपा लेते हों तो और बात है। यह उनकी गलती है।"

अतुल का दोस्त विवेक और दीपक भी वहीं हाथ बाँधे खड़े थे। दीपक बोल पड़ा-सुधीर भैया आपके विभाग में भी घास काटने वाली का एक केश आया था, जबरिया आपरेशन का। "

तब तक अतुल बोल पड़ा, "यह निकम्मी सरकार बस ऐसे-ऐसे काम करके नाम कमाना चाहती है।" श्रीवास्तव जी जो अब तक निर्विकार भाव से बैठे थे उन्होंने अतुल की तरफ आँखें घुमाईं। कुछ हीं दिन बीते थे कि अतुल को मुश्किल से थाने से छुड़वाया था—इसी सरकार के खिलाफ जुलूस और पत्थरबाजी के केश में। सबलोग फिर उसी घर में बैठकर सरकार के खिलाफ कुछ-कुछ बोल रहे थे, इससे उनके चेहरे पर अप्रसन्नता दिख पड़ी। अतुल ने धीरे से अपने दोस्त के हाथ पर हाथ रखा। शर्मा जी को अपनी भूल का एहसास हुआ तो बोलने लगे-सचमुच श्रीवास्तव जी बड़ी घुटन होती है। अब कुछ भी कहीं भी बोलने का समय नहीं रहा। पता नहीं कब कौन आ धमके. उस दिन घंटाघर चौक पर भगत सिंह की मूर्ति की स्थापना थी। बड़ी भारी भीड़ थी। टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज के अहाते में सभा हो रही थी। भगत सिंह के बड़े भाई और बहुत से नेता भाषण दे रहे थे। बाप रे सारे लोग भाषण दे रहे थे कि आग उगल रहे थे। सड़क पर पुलिस का जत्था बेचैनी से घूम रहा था। हम अंदर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सके, बाहर से सुनते रहे। "वासुदेव बाबु ने कहा," सख्ती तो है, लेकिन कुछ काम भी हो रहे हैं। ट्रेन सही वक्त पर चल रही है। सरकारी दफ्तर में काम समय पर हो जाता है, नहीं तो दिन भर लाइन में लगे रहना पड़ता था। "

"फिर भी जीजाजी यह तो बंदूक सिर पर रखकर काम करवाने वाली बात है ना। ऐसा तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं होता था। घूसखोरी, रिश्वतखोरी या कामचोरी क्या ऐसे हट सकती हैं। एक सामाजिक बदलाव लाइये, कारणों को ढूंढिये" , उठते-उठते भी अतुल ने तेजी के साथ यह बात कह दिया।

श्रीवास्तव जी असहज से दिख रहे थे। उन्हें अपना सबकुछ याद आने लगा था। लोग धीरे-धीरे उठे और अपनी-अपनी जगह चले गए. सुवास की नानी और वासुदेव बाबु बैठे थे। वह पास ही मोढ़ा लेकर बैठ गई.

"वहाँ का हाल-चाल सब ठीक है ना।"

वासुदेव बाबु ने हाँ में सिर हिलाया तो दुबारा उन्होंने पूछा। चाहकर भी वह उषा और उनके बच्चों का नाम नहीं बोल पा रही थी। इतने साल बाद भी वासुदेव बाबु सास-ससुर के सामने पड़ते तो सुनयना बीच में खड़ी हो जाती। बाकी लोग नए सच को स्वीकार कर चुके थे।

श्रीवास्तव जी की पत्नी ने धीरे-धीरे घर-गृहस्थी की बातें शुरू की, फिर उन्होंने सकुचाते हुए मन की गाँठ खोली, "आपको चिट्ठी मेें नहीं लिखा था, लेकिन मालूम हो ही गया होगा कि सुधीर के पिताजी अब घर बैठ गए हैं। आफिस में यही होता है कहीं की गाज कहीं गिरती है। वे तो शर्मिंदगी से उबर ही नहीं पा रहे हैं। पेंशन, ग्रेच्युटी का भी कुछ पता नहीं। मकान के किराए से कुछ पैसे आ जाते हैं, अनाज पानी जगदीशपुर वाले खेती से, तो गाड़ी किसी तरह चल रही है। बच्चों का अपना भी घर संसार है, खर्च है। कैसे पार लगाएंगे प्रभु इच्छा।"

वे गाल पर हाथ रखे बोलती जा रही थीं, जैसे स्वयं से बोल रही हों। वासुदेव बाबु के पास वे कभी भी इतनी दयनीय नहीं दिखी थीं। सुनयना की मृत्यु के पश्चात भी। वासुदेव बाबु को समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या कहना चाहिए. साल भर की खुशहाली में पंद्रह दिन उन्होंने घर में सहज और स्वाभाविक ढंग से बिताए थे। उसके बाद तो एक दीवार-सी थी और सारा व्यवहार यन्त्रावत।

अंदर से नीरू खाना खिलाने की तैयारी के साथ बुलाने आई, "चलिए मेहमान रात काफी हो गई, खाना खा लीजिए."

श्रीवास्तव जी की पत्नी ने भी उठते हुए पूछा, "अभी तो आप रह रहे हैं ना?"

"नहीं माँ जी सोचा तो नहीं है, उधर से ही निकल जाने का सोचा है" अटकते हुए वासुदेव बाबु ने कहा।

"नहीं-नहीं थोड़ा ठहरिये, हड़बड़ाती हुई श्रीवास्तव जी की पत्नी बोल पड़ी-आए हैं तो थोड़ा रुक कर सुवास को लेते हुए ही जाइये।" वासुदेव बाबु हतप्रभ रह गए, वे सिर्फ़ सास का मुँह देखते रहे जो संकोच और शर्म से लाल हो रहा था। सास ने ही तब धीरे-धीरे कहना शुरू किया, "देखिए अब सुवास भी बड़ा हो रहा है। नाना की हालत देख ही रहे हैं। उसे अच्छी पढ़ाई और देखभाल की ज़रूरत है। यों तो मामा मामी देखते हैं, प्यार करते हैं पर उसे अपने घर से भी तो लगाव होना चाहिए."

कम बोलने वाले वासुदेव बाबु ने बिना कुछ बोले गरदन हिलाकर अपनी सहमति दे दी और अंदर खाने चले गए.

रात में नानी ने सुवास को बड़ी हिम्मत कर समझाया कि वह अपने सामान समेट ले, कपड़े वगैरह मामी समेट देगी, उसे पापा के साथ अपने घर जाना है।

सुवास भड़क गया, "क्यों इस बार क्या हुआ? मैं क्यों जाउ$ँ? मैं कहीं नहीं जाउंगा और अभी स्कूल में छुट्टी भी नहीं है।"

नानी ने रुंधे गले से फिर बात कहनी चाही तो बोलने लगा, "जब बड़ी मामी के साथ जाना चाह रहा था, सभी गए, मुझे रोक लिया कि यही तुम्हारा घर है और अगले दिन रो-रोकर कहा था सुनयना ने मुझे तुमको दे दिया है। अब कहते हैं तुम्हारा घर वहाँ है।"

छोटे से बच्चे के मुँह से ऐसी हृदयविदारक बातें सुन श्रीवास्तव जी की पत्नी ने रोते-रोते आंचल में मुँह छिपा लिया। सुवास बिना खाए पीये बरामदे पर लगे बिस्तर पर सो गया। बड़ी मामी के अलावा वह बस छोटे मामा से ही दिल की बात करता था। लेकिन छोटे मामा तो आजकल दूसरी ही दुनिया में रहते हैं। आते ही कहते हैं ज़रा इस कागज को सीधा पकड़, पेंसिल लेकर आओ. इस परचे को स्कूल में चुपके से बाँट देना, घर पर किसी को मत बताना। वह दौड़-दौड़कर मामा की टहल करता और नानी से डाँट खाता।

रात में अतुल ने अपनी चौकी पर सुवास को सोते देखा तो उसे एक ओर हटाकर उसकी बगल में सो गया। फिर धीरे से उसके बालों को सहलाते हुए बोला, "क्यों मेरे शेर सो गया? मेरे जाने के बाद नानाजी का मूड कैसा था?"

"मुझे पता नहीं" , कह कर सुवास ने मुँह फेर लिया। अतुल जैसा कि अक्सर करता था उसे गुदगुदाने लगा, "अरे तेरा मुँह क्यों गोलगप्पे-सा फूल गया है।"

सुवास देह हाथ झाड़ने लगा, "मामा अच्छा नहीं लगता मुुझे छोड़ दो।"

"अरे तुझे कैसे छोड़ दूं, तू तो मेरा पी.ए है, तेरे बिना मेरा काम कैसे चलेगा?" अतुल मस्ती के रंग में था।

"यह पी ए, फी ए क्या होता है? मैं तो किसी का कुछ नहीं हूँ।" सुवास उठकर बैठ गया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरों को देख अतुल हँस पड़ा, "हाँ अब तू एकदम अपने बाप जैसा लगता है जिसे हँसना आता ही नहीं।" तभी अतुल की नजर सुवास की आँखों से बहते आँसुओं पर पड़ी जो गाल पर बहकर आ गए थे। वह हड़बड़ा गया, "अरे नहीं-नहीं तू तो मेरा भांजा है अतुल श्रीवास्तव का, तू कैसे रो सकता है।"

"मुझसे मेरे बाप की बात मत करो मुझे पता है कि तुमलोग मेरे कोई नहीं हो। तभी तो नानी कहती है कि अपने घर जा, वहीं पढ़ाई कर।" अतुल ने सुवास को अपनी ओर खींचा, "अरे मजाक किया होगा नानी ने, फिर जीजाजी तो सुबह अपने काम से जा भी रहे हैं, फिर तू कैसे जाएगा।"

"नानी ने उन्हें भी रोक लिया है।" अपने पिता को किसी भी सम्बोधन से पुकारने का उसे अभ्यास नहीं था, अतः लड़खड़ा रहा था। अतुल ने उसे छाती से चिपका लिया, "तू एकदम फिकर मत कर। पहले तो नानी जाने नहीं देगी। अगर यहाँ से गया तो वहाँ भी इससे ज़्यादा खुश रहेगा।"

अतुल को पिछले एक साल में घर के अंदर होने वाली छोटी मोटी घटनाएँ याद आने लगीं। नेहा भाभी का माँ पर व्यंग्य करना भी स्मरण हो आया। गहरी सांस लेकर सुवास से पूछा-जीजाजी कब तक जाएँगे?

"मुझे पता नहीं" सुवास ने कहा और चादर से मुँह ढँककर सो गया।

अगले दिन नानी की आँखें सूजी हुई थीं फिर भी वह सुवास के कामों में व्यस्त रही। नीरु ने उसके कपड़े धो दिए और दो नए कपड़े भी खरीद लाई. उसका मन बार-बार मथने लगता, लेकिन कुछ बोल नहीं पा रही थी। सास को कहीं अंदर दुख पहुँचा था और यह बात जमाई तक चली गई थी। इसलिए सुधीर का आदेश था कि चुप रहना ही उचित होगा।

दो दिन बाद वासुदेव बाबु वापस आए तो अतुल के साथ सुवास के स्कूल गए. टीसी वगैरह लेना था। प्रिंसपल ने सुवास को आफिस बुलवाया तो सुवास समझ गया उसने कातर नजर से अपने मैथ्स टीचर को देखा जो उसे बहुत प्यार करते थे। वह परमीशन मांग बाहर निकल रहा था तो चपरासी ने कहा कि अपना बैग वगैरह ले लो तुम्हारे पापा आए हैं। उसके दोस्त उसको देखने लगे। उसने धीरे से अपने दोस्त शशांक को कहा, "अब मैं यहाँ नहीं पढूंगा क्योंकि मैं जा रहा हूँ।"

दोस्त उसका मुँह देखने लगे। चेतन दूसरे सेक्शन में था, उससे तो भेंट भी नहीं हुई. वह शांत बना कक्षा से बाहर निकल आया।

प्रिंसपल ने उसके सिर पर हाथ रखकर प्यार किया, एक टाफी का डिब्बा पकड़ाया और कहा, "गॉड तुम्हारी देखभाल करेगा, तुम्हें सच्ची खुशी देगा। तुम्हारे लिए मैं प्रेयर करूंगा।"

सुवास रास्ते भर आँसुओं को पीता हुआ घर आया। सबों से नजरें चुराता रहा। रात की बस से, अपने पिताजी के पास की सीट पर दुबका वह झरिया आ गया।

नानी ने सुवास के जाते समय रुलाई रोकने के लिए आंचल मुँह में ढूंस लिया था। उसे लग रहा था कि सुनयना की रही सही यादें भी अब उस घर से जा रही हें। नीरू तो कमरे से ही नहीं निकली। यशोदा ने जब कृष्ण को भेजा होगा, तब कैसा लगा होगा। यही सोचकर बस आँखें पोछे जा रही थी। डॉली के जनम के समय दो महीने वह सुवास से अलग रही थी, लेकिन उसका ध्यान हमेशा सुवास पर रहता। सुवास भी डॉली के आने के बाद भी उसे हटाकर आदतवश उसकी बगल में सो जाता था। ऐसे रिश्ते बड़ा दर्द देते हैें। पलभर में पराये बन जाते हैं। बेटे की तरह चाहा, प्यार दिया, अपने से जोड़ बैठी, लेकिन अधिकार कहाँ मिल पाया उसे रोकने का। उसे रखने या भेजने का अधिकार तो सास के पास ही रहा क्योंकि वह सुनयना की माँ थी। उसके जाने के बाद खंजरपुर का वह घर सन्नाटों से भर गया।