जटायु के कटे पंख, खण्ड-9 / मृदुला शुक्ला
इमरजेंसी के बाद चुनावी दस्तक के दिन थे। सुवास के लिए ही नहीं सभी के लिए माहौल अजनबी-सा था। लोग कुछ बोलने से कतराते थे। कभी दबी जुबान में लोग कहते, "इस देश के लिए इमरजेंसी ही सही है, कम से कम काम तो सही समय पर होते हैं।" उधर से तुर्शी भरी आवाज उभरती, "आपको पता है, सारी विकास की योजनाएँ रुकी पड़ी रहती हें इमरजेंसी में, आपके विचार से तो गुलामी ही अच्छी है क्योंकि उसमें कुछ सोचना विचारना नहीं पड़ता है।" जितने लोग उतनी बातें, जैसे लोग वैसी भाषा का प्रयोग। जीतपुर कोलयरी उनींदा-सा सबका गवाह बनकर भी अपनी ही दुनिया में मस्त था। ओवर टाइम, बोनस, वेतन से उबरकर ज़्यादा सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझता। पोलिंग बूथ बन जाने से झरिया के भी विद्यालय वगैरह चार दिन के लिए बंद हो गए थे।
सुवास घर में बैठा-बैठा उ$ब जाता। स्कूल का अंतिम साल था, पढ़ाई के बोझ से सुवास हर समय झुका रहता। थककर वह थोड़ी देर टहलने निकलता था। उस समय उसके साथ नन्हीं वर्षा होती। इधर सुवास स्कूल से लौटता तो सबसे पहले वर्षा को ढूँढता। अपने काम निबटाकर वह उसे लेकर सड़कों पर निकल जाता। कहीं कीचड़ या गंदगी होती तो कंधे पर चढ़ा लेता था। वर्षा भी इस भाई से हिलमिल गई थी। सुवास अपने बचाए पैसों से, स्कूल से लौटते वक्त छोटी मोटी चीजें खरीद लाता था। घर या बाहर कहीं भी कुछ बँटता या वर्षा को कोई कुछ देता तो वह सुवास का हिस्सा भी मांग बैठती थी। घंटे भर का शाम का समय सुवास को सुकून और शांति देते थे, जब वह अपनी नन्हीं-सी बहन की टूटी फूटी बातें और अटपटे सवालों को सुनता था।
सुवास पढ़ते-पढ़ते थक गया तो उठकर अपनी कमीज बदली और वर्षा को भी तैयार कर ले जाने लगा। तभी पापा ने रूखे स्वर में कहा, "इसे लेकर बाहर क्यों चले जाते हो।" वह वर्षा के नन्हें हाथों को थामे हुए था। उसने प्रश्न भरी दृष्टि से पापा की ओर देखा। मौसी ने नजरें बचाते हुए कहा, "लड़की जात है, बाहर अच्छे लोग नहीं होते। जुआरी, शराबी के बीच से निकलना होता है।"
"पर मैं-मैं तो" सुवास ने लड़खड़ाती जुबान से कुछ कहना चाहा तब तक पापा की तर्जनी उठ गई. वह थोड़ी देर अकबकाया-सा खड़ा रहा। फिर धीरे से वर्षा के नन्हें हाथों से अपने हाथ को छुड़ाया और झटके से घर से बाहर निकल गया। सुवास तेज-तेज चलता जा रहा था और सोच रहा था, "क्या क्या बोलते हैं सब यहाँ। इतनी छोटी-सी वर्षा-लोग उस पर भी लड़की, लड़का जैसे सवाल उठाने लगे। शायद उनको मेरा कुछ भी पसंद नहीं आता।" उस दिन सुवास जल्दी ही तकिए में मुँह छिपाकर सो गया। खाने को भी मना कर दिया।
चुनाव परिणाम घोषित हो रहे थे। इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गई थीं। देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनने जा रही थी। सड़कों पर पटाखे छूट रहे थे। धुर कांग्रेसी वर्मा जी चुपचाप अपनी चारपाई पर लेटे थे। सिंह जी और बैनर्जी बाबू की आवाज गली में सुनाई दी तो वर्मा जी भी उठकर बाहर आए. सिंह जी बोले, "देखिए वर्मा जी हर अति का अंत होता है।"
वर्मा जी ने प्रतिक्रिया दी, "देखिए आगे क्या होता है? देश चलाना भी हँसी खेल नहीं है।"
बैनर्जी बाबु बोल उठे, "अरे दुर, ये देश क्या नेता चलाएगा, वर्मा जी ये सारा देश तो हमारे और आपके जैसा क्लर्क चलाता है। आप विश्वास करेगा कि इंदिरा गांधी को क्लर्क का नौकरी भी नहीं मिलेगा यदि न्याय हो तो।"
वर्मा जी ने कुछ कहना चाहा तभी सड़कों पर पटाखों की भड़ाम-भड़ाम आवाज से खीजकर वर्मा जी अंदर आ गए. आकर चाय की फर्माइश की और बुदबुदाते रहे, "फिर लौटकर आयेगी कांग्रेस भी और इंदिरा गांधी भी।" तब तक उनकी नजर उषा पर पड़ी जो चूल्हे पर चढ़ी चाय को देख रही थी। उषा भी अपने पिता की नौकरी छुटने का जिम्मेवार किसे मानती है, यह सोच कर वे चुप हो गए.
जब से वर्षा को नहीं ले जाने का फैसला हुआ सुवास भी घर में ही पड़ा रहता। फिर उसने जीतपुर के लड़कों से ही दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की। निखिल भी सुवास के स्कूल में ही पढ़ता था। एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोनों के बीच क्लास में बातचीत होती थी। सुवास अब उसी के साथ स्कूल से लौटने लगा था। पढ़ाई में वह भी अच्छा था, किसी से ज़्यादा सरोकार नहीं रखता। लाइब्रेरी की एक किताब सुवास ने निकाली थी, जो निखिल के पास रह गई थी। निखिल ने स्कूल में ही उससे गणित के एक सवाल को दिखाया था जो उससे बन नहीं रहा था। सुवास लाइब्रेरी की किताब लेने के लिए और गणित का सवाल हल करने के नाम पर निखिल के घर पहुँचा। बड़ी देर बाहर खड़े रहने के बाद निखिल ने बाहर ही दो टूल लगाया और बैठकर बात करने लगा। सुवास ने उससे मैथ्स का वह सवाल मांगा और उसे हल करने लगा। निखिल का घर भी वहाँ के आम घरों की तरह ही था। झुकी-झुकी सी, घर की छतें, घर के बाहर कच्चे कोयले का ढेर, यहाँ से वहाँ तक राख ही राख। सुवास को अब इस सबकी आदत हो गई थी। लेकिन दोस्त अंदर भी नहीं बिठाएगा यह बात नहीं सोच पाया था। दो चार बूदें पानी की टपक पड़ी तो निखिल ने हड़बड़ाते हुए कहा, "अब तुम्हें घर जाना चाहिए, बारिश होने वाली है।" तब तक सुवास गणित का सवाल हल कर चुका था। उसने आसमान की ओर देखा और अपनी पुस्तक मांगी। निखिल जब अंदर गया तो दरवाजे के पीछे से फुसफुसाती हुई आवाज आई-घर में दोस्तों को क्यों बुला लेते हो, हमारे यहाँ लड़कियां भी है। "दूसरी आवाज शायद निखिल के पापा की थी," यह बर्मा जी का बेटा है पहली बीबी से, पढ़ने में अच्छा है। "सुवास बिना पुस्तक लिए वहाँ से चल पड़ा। पहली पत्नी से" ये शब्द उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। लड़कियों वाले घर में उसे नहीं जाना चाहिए, यह मंत्रा भी उसने उस दिन सीख लिया और निखिल से वह बस स्कूल तक बात चीत सीमित रखने लगा था।
सुवास टहलने की जगह अब खेलने जाता था। इसी क्रम में उसके बहुुत से दोस्त हो गए थे। वर्मा जी उसके शाम के वक्त के विषय में ज़्यादा रोक टोक नहीं करते थे। उस दिन ज़्यादा लड़के नहीं आए थे इसलिए खेल जमा नहीं। वहीं बैठकर सब बातें करने लगे। खेलने का सामान प्रायः अनिल चौधरी का ही होता था। वह मुजफ्फरपुर का था। उसके पिता नहीं थे। फुआ के घर ही रहकर पढ़ता था। फुआ बहुत प्यार करती थी, इसी से बैट, बॉल वगैरह खरीद दिया करती कि वह अपने पिता के अभाव को महसूस न करे। सीधे सादे अनिल को इसी कारण खेलों में शामिल कर लेना लड़कों की मजबूरी थी। लेकिन सुवास, अनिल को पसंद करता था। दो तीन माह बीतने पर उस दिन सुवास ने अनिल को अपने घर आने को कहा। अनिल ने सहमति दे दी तो सुवास बोल पड़ा, "यहाँ मेरा मन नहीं लगता है, जानते हो कोई किसी के घर जाता आता ही नहीं। लगता ही नहीं कि जान पहचान है। अजीब जगह है।" अनिल कुछ कहने को मुँह खोल ही रहा था कि बगल में खड़ा टिंकू नागपाल बोल उठा, "हाँ क्या बोलता है, अजीब जगह है। क्योंकि लोग किसी को घर नहीं बुलाते। क्यों जायेगा किसी के घर, यहाँं शरीफ लोग बसते हैं।"
अनिल ने प्रतिवाद किया, "इसमें शरीफ और अभद्र लोग की क्या बात है।"
नागपाल ने तमक कर कहा कि "तुम तो चुप ही रहो, जाओ फुआ के पास" सुवास कुछ समझ नहीं पा रहा था, अनिल रुआँसा हो गया। नागपाल के पिता ठीकेदारी करते थे, इसलिए पैसों की ठसक के साथ भाषा भी वैसी ही बोलता था। वह सुवास की ओर मुड़कर बोला, "हाँ सुवास तुम्हारे पिताजी के ऑफिस में जो बड़ा बाबू है ना बुढ़वा गोसाँई, वह खूब जाता था मुखर्जी के घर। लोग कितना तरह का बात बोलते थे।"
इस बार अनिल चुप रहा। सुवास ने ही पूछा, "हाँ हाँ बताओ क्या और क्यों बोलते थे किसी के घर जाने पर।"
नागपाल ने शातिर निगाहों से सुवास को देखा और बोला, "उसकी बीबी को देखा है कभी, कैसी मस्त है, अरे वही जो सबको बुलाती रहती है।"
सुवास को मुखर्जी चाची की याद आई. जब वह बरसा को लेकर निकलता था तो वह उसे ज़रूर बुलाती थी। फिर बरसा को खूब-खूब प्यार करती थी। कभी-कभी सुवास से कहती, "सुवास तुम माँ को आने को बोलना। सारा दिन घर में क्या करती है।" सिंदूर की बड़ी-सी बिंदी और लंबी मोटी चोटी के अलावा कुछ भी ऐसी सजधज नहीं होती कि कोई कुछ कटाक्ष करे। उसके शुवास कहने के तरीके पर उसे शिखा मौसी की याद आ जाती। उसने एक बार मौसी को सुनाते हुए यह बात बादल से कही थी। मौसी ने तब बताया था कि उनके कोई बच्चा नहीं है, इसलिए सभी बच्चों को बुलाकर प्यार करती है।
लेकिन आज नागपाल के बोलने के तरीके से पहले तो वह झेंप गया फिर यह सोच कर ग्लानि भी हुई कि वह जिनके साथ रहता है, इस उम्र में अपनी माँ जैसी उम्र की चाची के विषय में कैसी बात बोल रहा था।
सुवास की आवाज कड़ी हो गई थी, "हमें नहीं सुनना, तुमलोगों की बात, भला ऐसे भी बोला जाता है।"
"सुन भगलपुरिया शेखी मत बधार। तुम अभी यहाँ के लोगों को कितना जानता है। यहाँ सब इसी चक्कर में किसी के घर जाता है।"
मैदान के घेरे वाले पाइप पर बैठकर नागपाल पैर झुलाने लगा। आसपास उसके चेले चपाटी से साथी खड़े-खडे़ हँसते रहे। उस दिन सुवास ने क्रिकेट खेलने का सारा सामान बैट, बॉल, पैड, विकेड सभी समेटकर अनिल को थमाया और कहा, "मैं अब कल से खेलने नहीं आउ$ंगा।"
इस पर धीरे से नागपाल ने कुछ कहा और उसके साथी खी-खीकर हँसने लगे।
सुवास तमतमाते हुए घर तो आया, लेकिन फिर वर्षा के साथ बातें कर सहज हो गया। रात्रि में बहुत देर नींद नहीं आई सोचता रहा कि इन्हीं सब वजह से तो मौसी ने बाहर निकलना बंद नहीं कर दिया। मजदूरों की बस्ती के नीचे बसे बाबुओं के घर के मोटे परदे के पीछे भी यही सोच थी, यह जानकर सुवास उद्विग्न रहा।
सप्ताह होते-होते सब कुछ सामान्य हो गया था। सुवास परीक्षा की तैयारी में सिर से पैर तक डूब गया था। किसी भी हालत में उसे बोर्ड परीक्षा में मेरिट लिस्ट में आने की धुन थी।
अप्रेल का महीना लग गया था। गरमी पड़ने लगी थी। सुवास के उ$पर चढ़ा हुआ परीक्षा का भूत उतर चुका था। सारी परीक्षाएँ खत्म हो गई थीं, बस प्रैक्टिकल रह गए थे। सुवास भी तनावमुक्त हो आंगन में बैठा था। पिछले दिनों दिए गए परचे को उलट-पलटकर देख रहा था। वर्मा जी घर में नहीं थे। शाम का समय था और बादल, वरसा दोनों ही अंदर के कमरे में पढ़ाई में लगे थे। इसी बीच गली में कुछ शोर हुआ। अपने प्रश्नपत्रों की और प्रैक्टिकल की फाइल बरामदे में ही रख वह गली का दरवाजा खोल बाहर निकल गया। गली में सिंह जी के घर के बाहर भीड़ लगी थी। सुवास भी जाकर उसी भीड़ का हिस्सा बन गया। सुवास की लंबाई अच्छी थी, अपने पापा पर गया था, इसलिए वह पीछे ही प्रायः खड़ा होता था। उसने वहीं से देखा कि अंदर कमरे में सिंह जी जमीन पर पड़े थे, चारो तरफ उल्टियां फैली थीं वे हाथ पैर मार रहे थे। सिंह जी की पत्नी घुटनों में मुंह छिपाये बैठी थी, बेटियाँ रोकर अपने पिताजी को उठाना चाह रही थीं। पहले तो सुवास डर गया, लेकिन भीड़ तमाशबीन की तरह खड़ी थी तो सोचा, कुछ खास बात होगी। झा जी ने दरवाजे से उनकी बड़ी बेटी को आवाज दिया, "गायत्राी, क्या हुआ पिताजी को, बचिया रो क्यों रही थी?"
गायत्राी की माँ घूंघट कर पीछे के कमरे में चली गई. गायत्राी ने आँख पोछते हुए कहा, "शाम से बस उल्टियां कर रहे हैं, आँखें नहीं खोल रहे और देह हाथ ऐंठ रहे हैं।"
झा जी ने घर के बगल में रहने वाले सुशील कंपाउंडर को बुलाा। उसने नाड़ी पर हाथ रखकर कहा, "शराब तो ये पीते ही हैं, आज जहरीली शराब पी ली है, स्लाइन चढ़ाना पड़ेगा। पहले दवा तो दे दूं।" गायत्राी और उसकी बहन मिलकर पिता को उठाकर किसी तरह चौकी पर सुलाना चाहती थी, लेकिन उससे हो नहीं पा रहा था। पूरे घर में बास भरी थी, इसी से बाहर गाल बजाने वालों की भीड़ से कोई आगे नहीं बढ़ रहा था, या फिर सिंह जी की सिर्फ़ लड़कियां ही थी, इससे भी कोई लड़का घर के अंदर नहीं घुस रहा था। सुवास से रहा नहीं गया। सिंह चाचा से उसकी कभी-कभी बातचीत हो जाती थी या फिर कभी-कभी वही छेड़कर उसे कुछ कह देते थे। उन्हें कैसे छोड़ देता। वह अंदर कमरे में चला गया, जिसकी छत नीची और चौखट उ$ंची थी। सुवास को झुककर जाना पड़ा था। सुशील के साथ मिलकर उसने सिंह चाचा के कपड़े बदले, शरीर को पोछवाया और तब चौकी पर उठाकर सुला दिया। सुशील की दवाई से ऐंठन थोड़ी कम हुई, स्लाइन चढ़ाकर सुशील वहीं बैठ गया। सुवास को अपना काम खतम लगा तो वह बाहर आ गया।
भीड़ अभी भी जुगाली कर रही थी। झाजी ने कहा, "इसका तो हर पंद्रह बीस दिन में यही हाल है, पी लेगा और लुढ़क जायेगा।"
शिवाधन महतो ने कहा, "क्या करेगा घर का अकेला मर्द है। पाँंच पाँच बेटियों का बाप है, वारिस की चिंता तो होगी। इसी से जब बर्दास्त नहीं होता तो पी लेता है।"
झा जी ने कहा-इससे परिवार को दिक्कत हो जाती है महतो जी समझे"शिवाधन ही सिंह जी का पीने पिलाने का साथी था उसे बात अखर गई," कौन बड़ा जुर्म कर लिया, संयोग की बात है। यहाँ कौन नहीं पीता। कोयला पत्थर हजम करने के लिए पीना पड़ता है। सभी अब संत बन रहे हैं। "
मंटू सरकार ने बीच में टोका, "जो कहो ये ठीक नहीं है, बच्चा लोग पर खराब असर पड़ता है।"
नौरंगी मिस्त्राी वहीं पर खैनी ठोकते हुए बोला, "अरे बंगाली बाबु जब साहब लोगों का पार्टी होता है, तब तो आप भी मुफ्त की पी ही लेते हैं।" सभी लोग हो-होकर हँस पड़े थे। अंदर से सिंह चाची की आवाज आ रही थी, "वे कंपाउंडर को बता रही थी-कल ही तीन सौ रुपया मिला था। महाजन का कर्जा था, डेढ़ सौ छिपाकर रख दिया तो बिगड़ कर मेरे उ$पर हाथ उठा दिया और सारा रुपया लेकर निकल गए. दोपहर में आए तो न पाकेट मेें रुपया था और हालत भी खराब होती जा रही थी। कल दस तारीख है, पठान सुबह-सुबह पहुँचेगा ब्याज नहीं मिलने से बहुत बोलता है।"
बगल में रहने वाली लक्ष्मी ने कहा-चुप रहो भौजी, बच्चियां डर जाएँगी। सुवास सबके बीच में बस अचम्भित-सा खड़ा था। ज़िन्दगी का नया पन्ना खुल रहा था। यहाँ सिंह चाचा की जान पर बनी है और सब हँसी मसखरी में लगे हैं।
महाजन के पैसे की बात सुन नौरंगी मिस्त्राी फिर बतीसी दिखाते हुए बोल पड़ा, "अरे कुछ नहीं होगा, सुबह यह सिंह बहादुर मरा हुआ जैसा नाटक करके पड़ा रहेगा और जोरु कहेगी कि सिंहजी बाहर गए हैं।"
इस पर किसी ने कहा, "जाने दो भाई आज तो मस्ती में कट गया। कल पठान, मोगल आएगा तो अपना माथा ठोकेगा।"
सुवास अब वहाँ से निकलने की ही सोच रहा था तभी वर्मा जी झरिया से बाज़ार कर रिक्शा से लौटे। भीड़ को देखकर उतर पड़े। माजरा समझने से पहले ही सुवास पर नजर गई तो आँख के इशारे से उसे घर जाने का संकेत किया। सुवास सिटपिटा गया। बड़ों के बीच पहली बार खड़ा था और वह भी बड़ों की इस करतूत का गवाह बनकर। लेकिन उसकी क्या गलती थी। वह धीरे-धीरे सिर झुकाए वहाँ से घर चला आया। बादल ने उसे सवालों के घेरे में लिया, "भैया मैट्रिक परीक्षा देने से कोई इतना बड़ा हो जाता है कि कहीं भी चला जाए." सुवास ने मुस्कुरा कर उसे मुक्का दिखाया। मौसी कनखी से देख रही थी, लेकिन बिना कुछ बोले सबका खान निकालने लगी।
दूसरे दिन जैसा कि रात में ही पता था सुबह-सुबह हल्ला हुआ था। पठान पैसा वसूलने के लिए आया तो सिंहजी पड़े रहे घर के अंदर और पत्नी महाजन के सामने हाथ जोड़े उसकी गाली सुनती रही। लेकिन असल तमाशा तो मोहली के घर पर हुआ। मोहली जैसे ही रुपया लेकर पठान को देने के लिए बाहर आया, पीछे से मोहली की पत्नी झपटती हुई आई और उससे पैसे छीन अपनी ब्लाउज में डाल लिए, "हट मुँहझौंसा पैसा लेगा। अपने बच्चे को मारकर तुम्हें पैसे दूं, इतना तो पैसा खा गया। दम है तो निकाल ले पैसा।" भीड़ वहाँ भी थी पर थोड़ी दूर पर खड़ी थी, वह मूछों में मुस्कुरा रही थी। पठान रोता झींकता धमकी देता रहा, "अगले महीने सूद दर सूद जोड़कर रखवा लूंगा, नहीं तो तेरा मरद का हाथ पैर तोड़ दूंगा।"
महली की बीबी ने हाथ चमकाकर कहा, "जा जा बड़ा आया सूद जोड़ने वाला, अगले महीने बचेंगे तो देखेंगे, आज तो नहीं देंगे।"
सुवास आज अपने दरवाजे पर ही खड़ा था, लेकिन आज भी भौंचक था। अंदर से उसे खुशी भी हो रही थी, महली चाची की बहादुरी पर। उस दोपहर को अनिल से मिलने पर उसने पूछा, "जब इनको पता है कि ये पठान सूद बहुत ज़्यादा लेते हैं तो इतना कर्ज नहीं लेना चाहिए."
अनिल ने बताया कि "ये पठान पहले इन्हें कर्ज की लत लगाते हैं, आसानी से मिल जाने पर कर्ज को लोग भी मुफ्त समझते हैं फिर ब्याज के चक्कर से उबर ही नहीं पाते।"
सुवास ने गहरी सांस ली, उसे सिंह चाचा के बारे में सोचकर सचमुच बुरा लग रहा था।
प्रैक्टिकल परीक्षा खत्म होने के बाद नानी के पास भागलपुर सबसे मिलने चला आया था। इसी समय अतुल भी आया हुआ था। सुवास को मुँहमांगी मुराद मिल गई थी। एक दिन परीक्षा सम्बंधी ढेरों बातों के बीच अतुल ने पूछा, "क्यों सुवास पढ़ाई में तो अच्छा कर ही रहे हो, अब तो मन लगता है ना वहाँ?"
"मामा आप मेरी दुखती रग छेड़ते हो। कहते थे अरे बहुत पैसा है वहाँ तेरा भविष्य है। पता है सड़कें, बाजार, गलियां कहाँ से शुरु होती है कहाँ खतम होते हैं पता ही नहीं चलता। हम देखते हैं किसी के आंगन में खड़े हैं। रेल के डिब्बों से बने घर, धौड़ा, चॉल, राख की ढेरी यही सब तो है वहाँ। जलते टायरों की गंध से भारी हवा होती है। मामा मुझे गंगा का किनारा चाहिए. यह हवा मैं सांसों में भर लेना चाहता हूँ। अतुल बड़ी देर तक उसे देखता रहा फिर मुस्कुरा कर बोला-भांजा मैट्रिक करते-करते तू पूरा कवि बन गया। इतनी अच्छी हिन्दी बोलता है सच। लेकिन तेरे अंदर जो ये आग है ना, वही तुझे एक दिन बतायेगी कि कोयले में ही हीरा छिपा होता है।"
सुवास झेंपकर मुस्कुराने लगा, "मामा आप अभी भी मुझे चिढ़ाते हैं।" तब तक अतुल ने उसे अपने से सटा लिया। बहुत दिनों से इस स्पर्श के लिए तरस गया था।
रात में बड़ी मामी उसके लिए दूध का गिलास लाई तो सुवास हँस पड़ा, "मामी मैं अब बच्चा नहीं हूँ।"
मामी ने आँखें दिखाते हुए गिलास पकड़ाया और बैठ गई, "वहाँ सब ठीक तो है ना सुवास।"
सुवास घर के बारे में बात नहीं करना चाहता था बोला, "मामी क्या ठीक होगा, शराब तो जैसे वहाँ बुरी चीज है ही नहीं। पठानों से कर्ज लेते हैं लोग कितनी गंदी गालियां जोर-जोर से देते हैं, किसी के बारे में लड़के तक, कुछ भी बोल देते हैं चाची लोगों के बारे में भी। मामी मुझे तो वहाँ घुटन होती है।"
"सुन सुवास ये तो कोई समस्या नहीं है। सभी जगह ऐसे लोग होते हैं। शायद वे उतने चालाक नहीं हैं, इसी से सब कुछ दीख जाता है। मन के साफ सच्चे हो तो सब ठीक हो जाता है।"
सुवास को लगा मामी ने उसे अंतर्द्वंद से उबार लिया।