जड़ों की तलाश / नीरजा हेमेन्द्र

Gadya Kosh से
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सुरेन्द्रनाथ आज कुछ अधिक ही प्रसन्न थे। प्रसन्न तो वे लगभग प्रतिदिन ही रहते हैं। यदि कभी किसी दिन मन उदास भी हो जाता है तो भी प्रसन्न दिखने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु आज वो सचमुच प्रसन्न हैं। प्रसन्न हों भी क्यों न? अगले माह की चार तारीख को उनकी बंगलौर की फ्लाईट है। अपनी पत्नी के साथ वे सुदीप्त के पास बंगलौर जायेंगे। सुदीप्त उनका इकलौता बेटा है। आज बीस तारीख है। मात्र चैदह दिनों के पश्चात् वे अपने बेटे के पास होंगे। बेटे को देखने की... उसके के पास जाने की सुखद अनुभूति ही उनकी प्रसन्नता का कारण है।

“मैं तो पहली बार हवाई जहाज में बैठूँगी। मुझे लगता है आप भी पहली बार ही हवाई जहाज में बैठेंगे? सुरेन्द्रनाथ की पत्नी सुनन्दा ने मुस्कुराते हुए पूछा।

“हाँ... हाँ... इससे पूर्व कभी मौका ही नही मिला हवाई जहाज में बैठने का।” उन्होंने कहा।

“हूँ” । सुनन्दा ने सिर हिलाया।

“चाय बनाती ज़रा।” बातें करते-करते सहसा सुरेन्द्रनाथ की यह मांग सुनन्दा को अच्छी नही लगी।

“चलो हटो... भोजन करने के उपरान्त कोई चाय पीता है भला?” चुहल करते हुए सुनन्दा ने कहा।

“हाँ... हाँ... जानता हूँ। बस, आज मन हो रहा है। बना दो।” सुरेन्द्रनाथ ने लगभग अनुरोध करते हूए कहा।

सुनन्दा मुस्कराते हुए रसोई की ओर चल दी। सुरेन्द्रनाथ और सुनन्दा दोपहर का भोजन कर के घर के आँगन में कुर्सी डाल कर बैठे थे। उनका यह वार्तालाप जो चल रहा था वह आवश्यक भी था तथा दोपहर का टाईमपास भी। वैसे तो प्रतिदिन वे दोपहर का भोजन करने के उपरान्त कुछ देर लेटते हैं। किन्तु तीन दिनों पूर्व जब से सुदीप्त का फोन आया है कि चार तारीख की फ्लाईट में उनकी सीट बुक करा दी है, तब से वे दोपहर को सोना भूल गये हैं। जब भी समय मिलता है घूमफिर कर अपनी चर्चा में सुदीप्त व उसके पास जाने की बात शामिल कर लेते हंै। वे इस छोटे से कस्बे सोनबरसा में रहते हैं। सुरेन्द्रनाथ की यही जन्मस्थली भी है। उन्होने यहीं पर शिक्षा प्राप्त की, यहीं पर डाकघर में सहायक पोस्टमास्टर की नौकरी मिल गयी। यह तब की बात है जब नौकरी के लिए इतनी मारामारी नही थी। लगभग हर पढ़ेलिखे को उसी के शहर-कस्बेे में नौकरी मिल जाती थी। सुरेन्द्रनाथ यही से पोस्टमास्टर के पद से सेवानिवृत्त भी हुए हैं। उनका इकलौता पुत्र सुदीप्त यहाँ से दूर बंगलौर के एक निजी कम्पनी में कार्यरत् है। 
सुनन्दा दो प्यालों में चाय लेकर आँगन में आ चुकी थीं। दोनों चाय पीने लगे। आँगन में लगे शहतूत व नीम के वृक्षों के पत्तों से आ रही सरसराहट की ध्वनि भली लग रही थी। छोटे-से इस शहर का ये पुश्तैनी घर बड़ा व खुला-सा है। घर का ये मुख्य आँगन जहाँ ये बैठे हैं आधा पक्का और आधा हिस्सा कच्चा है। कच्चे हिस्से की जमीन के एक तरफ अमरूद व शहतूत तथा दूसरी ओर नीम का पेड़ है। शेष हिस्से में मौसमी सब्जियाँ लगी रहती हैं। सर्दियों की धूप में चाय व दोपहर का भोजन ये लोग यहीं करते हैं। पूरे आँगन में पसरी धूप देर शाम तक बनी रहती है। यदाकदा दोपहर की हल्की-फुल्की झपकी भी सुरेन्द्रनाथ आँगन में पड़े तख्त पर ले लेते हैं। इस घर में एक बड़े बैठक के अतिरिक्त तीन अन्य कमरे, बाहर दालान व घर में मध्य में यह बड़ा-सा आँगन है। आँगन के दूसरी ओर रसोई व छोटा-सा मन्दिर है। बाहर के दालान फल-फूल, तुलसी व अन्य उपयोगी पौधे लगे हैं। घर का वातावरण खुला व हरा-भरा है। पास-पड़ोस में सब एक दूसरे को जानते हैं। यहाँ सब कुछ अच्छा है किन्तु सुदीप्त के बिना सब कुछ फीका लगता है। 
जब से सुदीप्त बंगलौर गया है मन में यही विचार आता है... काश! या तो सुदीप्त यहाँ होता या हम ही वहाँ चले जाते। किन्तु इतनी शीघ्र ये सब कहाँ सम्भव है। नौकरी व नये शहर में...  व्यवस्थित होने में समय तो लगता ही है। सुदीप्त को गये लगभग डेढ़ वर्ष होने वाले हैं। अब उसने वहाँ एक फ्लैट किराये पर लिया है तथा दोनों के लिए वहीं से फ्लाईट में टिकट बुक करा दी है। जब से फोन द्वारा उसने बताया है मन किसी परीन्दे की भाँति पंख लगा कर कल्पनालोक में विचरण करने लगा है। 

“सुना है बड़ा शहर है। जगमग... जगमग करता हुआ। बड़ी सुविधायें हैं वहाँ। आने-जाने, खाने-पीने, मनोरंजन-मन बहलाव के नये-नये तरीके हैं।” सुनन्दा ने कहा।

“हाँ भाई! चलना तो सब घूमना-देखना।” सुरेन्द्रनाथ ने सुनन्दा की बच्चों-सी बातें सुनकर मुस्कुराते हुए कहा।

प्रतीक्षा के एक-एक दिन व्यतीत करते-करते वो दिन भी आ गया जब उन लोगों को जाना था। सभी तैयारियाँ उन्होंने पहले से पूरी कर ली थीं। अब आज घर बन्द कर के जाना था। घर की देखभाल सुरेन्द्रनाथ के भाई जो पड़ोस में ही रहते हैं, करेंगे। सुरेन्द्रनाथ के भाई रेलवे स्टेशन तक उन्हें छोड़ने आये। ट्रेन से वे दो घंटे का सफर तय कर नजदीक के बड़े शहर के एअरपोर्ट तक आये। वहीं से बंगलौर के लिए हवाई जहाज जाते हैं। सुनन्दा तो हवाई अड्डे को ही अचम्भित होकर देख रही सुरेन्द्रनाथ ने देखा कि हवाई जहाज में भी सुनन्दा बड़े गर्व के साथ बैठी थीं। ऐसा हो भी क्यें न? हवाई जहाज में वो पहली बार बैठी थीं वो भी बेटे ने टिकट बुक कराया था। वे बंगलौर पहुँच गये वो भी अत्यन्त कम समय में... 

“आ गये क्या?” हवाई जहाज के रनवे पर रूकते ही सुनन्दा ने पूछा ।

“हाँ! बंगलौर आ गया।” सुरेन्द्रनाथ ने कहा।

“चढ़ते देर नही कि हम आ पहुँचे...!” सुनन्दा ने आश्चर्य से कहा।

बाहर बेटा सुदीप्त टैक्सी लेकर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। बड़े शहर की चैड़ी व व्यवस्थित सड़क पर टैक्सी चल पड़ी। इतने बड़े शहर में वे पहली बार आये थे। कितना सुन्दर शहर है। चैराहों पर लगी लाल-हरी बत्ती के निर्देश पर चलता टैªफिक, सड़कों के दोनों ओर गगनचुम्बी इमारतें, चैराहों पर रंग-बिरंगे फौव्वारे, शापिंग माॅल, व्यवस्थित सजी दुकानें, सब कुछ भरपूर आकर्षक लग रहा था। कुछ ही देर में वे एक बहुमंजिली इमारत में सुदीप्त के फ्लैट में पहुँच गये। लिफ्ट में लगे बटन जब सुदीप्त दबा रहा था... सुनन्दा बड़े ध्यान से देख रही थी। 

“बाप रे...! इतने सारे बटन...! हम तो कभी भी लिफ्ट न चला पायेंगे।” सुनन्दा ने आश्चर्य से कहा।

सुदीप्त का कमरा, छोटी-सी रसोई... सब कुछ व्यवस्थित था। फ्लैट से लगी बाहर छोटी-सी बालकनी भी थी। सब कुछ देखकर सुनन्दा बस मुस्कराये जा रही थी। बेटे द्वारा सजाया छोटा-सा आशियाना अच्छा लगा। सुरेन्द्रनाथ व सुनन्दा को रात भर नींद नही आयी। कदाचित् प्रथम रात्रि व नयी जगह होने के कारण ऐसा था। अभी इस बार वे पन्द्रह दिनों के लिए यहाँ आये थे। सुदीप्त कह रहा था बाद में अधिक दिनों के लिए उन्हें यहाँ रहना पड़ेगा। हमेशा आते-जाते रहना पड़ेगा। कभी-कभार वे गाँव भी जायेंगे। वो बाद की बात है। अभी तो उन्हें इस बात की प्रसन्नता हैं कि पन्द्रह दिनों तक वे अपने बेटे के पास रहेंगे। दूसरे दिन सुदीप्त कार्यालय चला गया। सुरेन्द्रनाथ और सुनन्दा दिन में बैठे चर्चा कर रहे थे कि यह शहर कितना बड़ा और अच्छा है। सुनन्दा पास-पड़ोस देखना चाहती थी। दोपहर के भोजन के उपरान्त सुनन्दा ने घर का मुख्य दरवाजा खोलकर बाहर झाँका। बिल्डिंग के सभी घरों के दरवाजे बन्द थे। लम्बी गैलरी में सांय-सांय सन्नाटा पसरा था। वे गैलरी में कुछ दूर तक गयीं। बिल्डिंग के बाहर सड़कों पर चल रही गाडि़यों की दूर से आती मद्धिम आवाजों के अतिरक्त अन्य कोई हलचल नही, कोई आवाज नही। वे घर में आ गयीं और दरवाजा बन्द कर लिया।

“यहाँ सुदीप्त के घर के अतिरिक्त सभी घर खाली हैं क्या?” कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने सुरेन्द्रनाथ से पूछा।

“नही...! नही...! सभी घर भरे हुए हैं। सब में लोग रह रहे हैं। यहाँ शीघ्र कोई घर खाली नही मिलता। बड़ी मुश्किल से एक वर्षों तक ढूँढने के पश्चात् सुदीप्त को ये घर मिला है।” सुरेन्द्रनाथ ने समझाते हुए सुनन्दा से कहा।

“इससे पहले सुदीप्त अपने कार्यालय के किसी मित्र के साथ उसके कमरे में रहता था।” सुरेन्द्रनाथ ने अपनी बात पूरी की।

“हूँ... किन्तु बाहर कोई नही दिख रहा है।” सुनन्दा ने अपने मन की दुविधा प्रकट करते हुए कहा ।

सुरेन्द्रनाथ को कोई उत्तर नही सूझा। वो चुपचाप बैठे रहे। समय व्यतीत नही हो रहा था। अतः ड्राइंग रूम के कोने में रखे दीवान पर लेट गये। लेटने से आराम मिलने के स्थान पर और थकान महसूस हुई। पुनः उठ कर बैठ गये। सुनन्दा चुपचाप बैठीं उनकी प्रत्येक गतिविधि देख रही थीं। शाम को सुदीप्त के कार्यालय से आ जाने के पश्चात् दोनो को अच्छा लगा। इसी प्रकार की दिनचर्या में दोनों के पाँच दिन व्यतीत हो गये। रविवार के अवकाश में सुदीप्त उन दोनों लेकर बाहर निकला। शहर की चहल-पहल, चकाचैंध उन दोनों के लिए नयी थी। सड़कों पर भीड़ देखकर उन्हें घबराहट होने लगी। ऐसा लगा जैसे पूरा शहर घर से बाहर निकल आया हो। हर तरफ भीड़ इतनी किन्तु सब एक दूसरे से अनजाने व... बेगाने-से... । पूरा शहर भागता नज़र आ रहा था... न जाने कहाँ? दूसरे दिन से सुदीप्त का कार्यालय खुल गया था। नौ बजे सुदीप्त कार्यालय चला जाता। वे दोनों घर में बन्द से रहते। सुनन्दा तो दिन में कई बार घर का दरवाजा खोलकर बाहर झाँक लेती, कदचित् किसी पड़ोसी से बात हो जाये... परिचय हो जाये किन्तु असफल रहती। वो सोचती कि अब यहाँ आना-जाना लगा रहेगा। पास-पड़ोस से जान-पहचान आवश्यक है। दो-चार दिन और व्यतीत हो गये सुनन्दा को ऐसा महसूस होता जैसे कुछ दिन और रूकी तो अस्वस्थ हो जायेंगी। किसी से बोले-बतियाये बिना यहाँ उनका दम घुटता। वहाँ सोनबरसा जो कि छोटा-सा कस्बा किन्तु वहाँ पर अपने खुले घर में पेड़-पौधे, चिडि़यों, गिलहरियों को देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता। दिनभर पास-पड़ोस से बातचीत होती रहती। दालान से बाहर कुछ देर खड़े हो जाने पर ही पास-पड़ोस व आने जाने वालो की चिर-परिचित मुस्कान व काकी, बुआ, ताई, चाची आदि के अपनत्व भरे सम्बोधन से हालचाल दुःख-सुख की बातें हो जातीं। अकेलेपन की अनुभूति न होती। सुबह उठ कर सुनन्दा घर बाहर पूरे दालान को बहुारतीं। सुरेन्द्रनाथ पौधों में पानी डालते तथा घर के अन्य कार्यों में उनका हाथ बँटाते। दोपहर में खुले आँगन में बैठ कर भोजन करने के उपरान्त वहीं बैठकर बातें करते तथा... आराम करते। शाम को बस्ती की हाट से फल-फूल, ताजी सब्जियाँ व घर की आवश्यकता की वस्तुयें लेने निकल जाते। कभी कुछ न भी लाना होता तो यूँ ही टहल आते। गर्मियों की शाम घर के बाहर व जाड़े की शाम घर के अन्दर कटती। कोई कमी... कोई खालीपन नही मात्र सुदीप्त की चिन्ता रहती है दोनों को। यहाँ की दिनचर्या, रहन-सहन व सामाजिक वातावरण सब कुछ भिन्न है वहाँ से।
सुरेन्द्रनाथ सुनन्दा की मनोदशा समझ रहे थे। वे स्वंय भी शारीरिक अस्वस्थता का अनुभव कर रहे थे। उन्हें आभास होने लगा था कि अब शीघ्र व बार-बार वे और सुनन्दा यहाँ नही आ पायेंगे। उन्हें सुदीप्त की चिन्ता होने लगी। वे भी तो यहाँ अकेला रहता है। उसे भी तो यहाँ किसी का साथ चाहिए। सुनन्दा भी कदाचित् यही सोच रही थीं। 

“सुनिए! क्यों न हम सुदीप्त से कहें कि अब वो अपने विवाह के बारे में सोचे।” सुनन्दा के स्वर सुन कर सुरेन्द्रनाथ का चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी।

यही तो वे भी चाहते हैं। पहले नौकरी मिल जाने तक...  तत्पश्चात् कुछ दिनों तक नौकरी में व्यवस्थित हो जाने तक... सुदीप्त ने उनसे रूकने को कहा था। अब तो सब कुछ ठीक है। ऊपर वाले की कृपा है। सुदीप्त का व्याह अब हो जाना चाहिए।

“हाँ” सुनन्दा की बात का समर्थन करते हुए सुरेन्द्रनाथ ने कहा।

शाम को सुदीप्त के आने पर सुरेन्द्रनाथ ने उसका विवाह कर देने की अपनी इच्छा से उसे अवगत् कराया। उन्हें यह जान कर प्रसन्नता हुई कि सुदीप्त अपने साथ कार्य कर रही किसी लड़की को पसन्द करता है तथा उससे विवाह का इच्छुक है। यह बात सुनकर सुनन्दा भी अत्यन्त प्रसन्न थीं। उन्होंने सुदीप्त से कहा कि वो शीघ्र विवाह की तिथि निश्चित कर ले। विवाह की सभी रस्में वो पारम्परिक ढंग से पूरी करना चाहती हैं। सुदीप्त उनकी ये इच्छा पूरी करने के लिए तैयार था।
पन्द्रह दिन व्यतीत हो गये। आज उनका बंगलौर से लौटने का दिन था। सुदीप्त का बड़ा मन था कि माँ-बाबूजी कुछ दिन उनके पास और रहें, किन्तु फ्लाईट से लौटने का टिकट पहले से आरक्षित था, और वो आज का ही था। हवाई जहाज में जाने के लिए बैठते समय सुरेन्द्रनाथ और सुनन्दा के मन से वो प्रसन्नता विलुप्त थी जो यहाँ आने के समय विद्यमान थी। कारण स्पष्ट था। आने और जाने के मध्य इन पन्द्रह दिनों में बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका था। हवाई जहाज आसमान में उड़ चला... बड़े शहर से छोटे कस्बे की यात्रा पर। सुरेन्द्रनाथ व सुनन्दा यद्यपि चुपचाप बैठे थे किन्तु उनके विचारों का प्रवाह गतिमान था। वे सोच रहे थे कि गाँव के परिवेश में पले-बढ़े एक पुराने बरगद के वृक्ष को उखाड़ कर यदि किसी महानगर में रोपित कर दिया जाये तो उसके सूख जाने की आशंका बनी रहती है। बड़े शहर में उसी वातावरण के अनुरूप यदि नन्हा बिरवा बोया जाये तो वह अवश्य पुष्पित-पल्वित होगा। यह बिरवा सुदीप्त व उसकी पत्नी हैं। 
सुदीप्त अपनी पसन्द की लड़की से विवाह करे... सुखी रहे। पुष्पित-पल्वित हो। अवकाश मिलने पर वह अपने माता-पिता के पास आता रहे तथा वे दोनों भी बेटे के परिवार से मिलने कभी-कभी आते रहंे। दोनों अपनी-अपनी जड़ों के साथ सुरक्षित रहें। दोनों की बस अब यही इच्छा है। सुनन्दा ने एक निश्चिन्तता भरी लम्बी साँस ली और सुदीप्त के विवाह की तैयारियों की कल्पनाओं में स्वंय को व्यस्त कर लिया।