जद्दोजहद / अर्चना राय

Gadya Kosh से
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पिछले बीते कुछ पल, उसे सदियों से भी लंबे प्रतीत हो रहे थे। चेतना शून्य-सा खडा, उसकी सोचने समझने की क्षमता मानो खो-सी गई थी॥एक तरफ़ माता-पिता के दिए हुए संस्कार तो दूसरी तरफ़ जीवन जीने की जद्दोजहद, जैसे आमने-सामने खड़े थे। सामने बिस्तर पर पड़े मरीज की नब्ज थम चुकी थी और कमरे के बाहर, आस लगाए बैठी उसकी गरीब असहाय माँ, वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करें? उसका वजूद मानो दो हिस्सों में बँट गया था।

"डॉक्टर को भगवान का रूप कहा जाता है।"-उसके एक हिस्से ने कहा।

"जब ख़ुद के जीवन पर बन आई हो तो, अपने हित के बारे में सोचना ही पड़ता है।"-दूसरे हिस्से ने उसे चेताया।

"पर, क्या उस गरीब माँ से झूठ बोल पाएगा?"

"तो, क्या गाँव में बैठी माँ की उम्मीद तोड़ देगा?"

"उस क़सम का क्या जो डाॅ। बनते समय खाई थी?"

"उस वादे का क्या? जो तुमने बहिन से किया था?"

उसके दोनों हिस्से दलीलों में उलझ गए थे। कुछ सोचता वह आगे बढ़ा ही था कि

"देखो? ... ये कोई खैराती अस्पताल नहीं है, शहर का नामी हास्पिटल है। जिसे चलाने में बहुत सारे पैसे चाहिए होते हैं, यूँ तुम हरिश्चंद्र बनकर काम करोगे तो कैसे चलेगा? एक लास्ट चान्स है, तुम्हारे पास।"-बडे़ डॉ की चेतावनी याद आ गई और वह ठिठक गया।

"अ...म्मा, ज... जी... आपका बे...टा कोमा में चला गया है, उसे आई-सी यू में शिफ्ट करना होगा।"-बाहर बैठी मरीज की माँ के पास आकर वह बडी मुश्किल से कह सका।

"डॉ साब मेरे बेटे को बचा लीजिए।"-झुर्रियों वाले चेहरे ने हाथ जोड कर कहा।

"हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। आप जाकर काउंटर पर बात कर पैसे जमा कर दीजिए, ताकि जल्दी से जल्दी इलाज़ चालू कर सकें।"-कहते हुए उसके आगे के दो दांत लंबे होकर बाहर निकल आए, साथ ही सिर पर सींग भी उग आए।

"हाँ, ...डॉ साब इसके बापू गए हैं, ज़मीन बेचने... बस पैसे लेकर आते ही होंगे।"-वृद्धा ने आँखो से बहते आँसू पोछते हुए कहा।

"क्या? ज़मीन बेचकर। ।"-मन ही मन सोचकर, अब वह चुप न रह सका और

नहीं, अम्मा जी । ...अब ...शायद ज़रूरत न...नहीं पडेगी। "

आखिरकार शैतान को मारकर, भगवान उसके वजूद में समा ही गए।