जद्दनबाई : प्रेम की तक धिना धिन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 दिसम्बर 2016
जिया सरहदी ने बलराज साहनी अभिनीत 'गरमकोट' नामक फिल्म बनाई थी और संयोग है कि बलराज साहनी ने एमएस सथ्यू की फिल्म 'गरम हवा' में भी अभिनय किया था। वे संभवत: एकमात्र फिल्म अभिनेता हैं, जिन्हें जेल से भी फिल्म शूटिंग के लिए रिहा किया गया था। प्रतिदिन पुलिस उन्हें प्रात: 9 बजे स्टूडियो छोड़ती और सायं 6 बजे वापस जेल ले जाती। संजय दत्त ने अपनी सजा के दरमियान कोई शूटिंग नहीं की थी। बलराज साहनी अपने साम्यवादी विचारों के लिए जेल भेजे गए थे, उन्होंने कोई चोरी या कत्ल नहीं किया था। आज भी भारत की विभिन्न जेलों में एक धर्म विशेष के हजारों युवा केवल शक के आधार पर जेल में हैं और उन्हें अभी तक अदालत में प्रस्तुत नहीं किया गया है। धर्मनिरपेक्षता और समानता केवल कागज पर अंकित शब्द मात्र हैं।
बलराज साहनी के सुपुत्र परीक्षित साहनी ने रूस के एक फिल्म विधा पढ़ाने वाले संस्थान से शिक्षा पाई परंतु फिल्मकार न बनकर वे केवल अभिनय से संतुष्ट रहे। दरअसल, प्राय: लोग अपने भीतर असंतोष को कुचलकर संतुष्ट दिखने का अभिनय करते हैं। बकौल दुष्यंत कुमार, 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए'। आजकल छोटे परदे पर कवियों के जीवन पर कुमार विश्वास एक सार्थक कार्यक्रम कर रहे हैं। इसी तरह कथा और उपन्यास विधा के पुराधाओं पर भी कार्यक्रम बनना चाहिए, जिसका प्रारंभ मुंशी प्रेमचंद या सआदत हसन मंटो से किया जा सकता है और फणीश्वरनाथ रेणु वाले एपिसोड में शैलेंद्र की सर्वकालिक महान फिल्म 'तीसरी कसम' के अंश दिखा सकते हैं। इस तरह साहित्य आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत करने से छोटे परदे को बड़े परदे की अनुभूति मात्र बनने से बचाया जा सकता है।
आज सुर्खियों में है कि सआदत हसन मंटो के जीवन पर बनने जा रही फिल्म में शबाना आजमी नरगिस की मां जद्दनबाई की भूमिका का निर्वाह करेंगी। नंदिता दास द्वारा निर्देशित की जाने वाली यह फिल्म महान संभावना है। नंदिता दास और शबाना आजमी ने 'फायर' नामक फिल्म में विलक्षण अभिनय किया था। अत्यंत साहसी विषय पर बनाई यह फिल्म इस्मत चुगताई की 'लिहाफ' नामक कथा की याद ताजा कर देती है। जद्दनबाई कोलकाता के एक कोठे में ठुमरी प्रस्तुत करती थीं। उस दौर में कोठे दो प्रकार के होते थे। एक में गीत-संगीत व नृत्य प्रस्तुत किया जाता था, दूसरे में आदिम देह व्यवसाय किया जाता था। कहा जाता है कि एक धनाढ्य परिवार की बारात पर डाकुओं ने हमला किया। वर को मार दिया गया और वधू भगदड़ में भाग निकली। बाद मंे वह परिवार में लौटी तो उसे विधवा की तरह कष्टभरा जीवन जीना पड़ा। एक दिन वह नदी किनारे कपड़े धोते समय भजन गुनगुना रही थी। वहां एक नौटंकी के सदस्य ने उसे अपनी टोली के साथ भाग चलने को कहा, क्योंकि उस विधवा को कष्ट देकर मार डालने की योजना थी। उसने साहस दिखाया और वह भाग गई। कालांतर में वह इस नौटंकी से निकलकर एक कोठे पर गाने वाली बन गई। इसी नायिका की सुपुत्री जद्दनबाई थीं।
पंजाब के एक धनाढ्य परिवार के मोहन बाबू कोलकाता से पानी के जहाज द्वारा लंदन पढ़ाई के लिए जाने वाले थे। वे डॉक्टर बनना चाहते थे। जहाज जाने में विलम्ब था। अत: वे एक शाम जद्दनबाई के कोठे पर पहुंचे और जद्दनबाई पर इस कदर मोहित हुए कि उससे विवाह करके मुंबई आ गए। उन्होंने अपने वंश को त्याग दिया। इस तरह वैभव व डॉक्टरी के सम्मानजनक पेशे को गाने वाली से प्रेम के कारण छोड़ देना साहसी निर्णय था। नरगिस इसी मोहनबाबू और जद्दनईबाई की संतान थीं। मोहनबाबू उसे डॉक्टर ही बनाना चाहते थे परंतु जद्दनबाई अपने पहले विवाह से जन्मे पुत्र अनवर को अभिनेता लेकर एक असफल फिल्म बना चुकी थीं। अत: कर्ज अदायगी के लिए नरगिस से अभिनय कराना आवश्यक हो गया।
जद्दनबाई पृथ्वीराज कपूर का सम्मान करती थीं। अत: युवा राज कपूर की पहली फिल्म 'आग' व दूसरी 'बरसात' में उन्होंने नरगिस को अभिनय की इजाजत दे दी परंतु 'बरसात' के निर्माण के समय ही उन्होंने राज-नरगिस के उस समय अंकुरित होते हुए प्रेम को भांप लिया था। इसलिए उन्होंने 'बरसात' की शूटिंग कश्मीर में करने का विरोध किया। वे एक माह के लिए नरगिस और राज पूर को साथ काम करने देने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं। अत: राज कपूर को वह आउटडोर शूटिंग खंडाला में करनी पड़ी। बेचारी जद्दनबाई केवल उस घटना को कुछ समय के लिए टाल ही पाई। 'आवारा' के निर्माण पूर्व ही जद्दनबाई की मृत्यु हो गई और उस अंतरंगता को कोई रोक नहीं पाया। प्रेम की 'तक धिना धिन' किसके रोके रुकी है।