जनचेतना और संघर्ष की कविता (विजेंद्र नारायण सिंह) / नागार्जुन
जन का अर्थ है समाज की श्रमजीवी जनता, जो भौतिक मूल्यों का उत्पादन करती है और वे वर्ग और सामाजिक श्रेणियां भी जो अपनी वस्तुगत अवस्था के कारण किसी देश और युग विशेष में प्रगतिशील ऐतिहासिक कार्यों को पूरा करती हैं। इस जन की रचना सामंती समाज से कुछ भिन्न होती है। जन और सर्वहारा में अंतर है। सर्वहारा कारखाने का मज़दूर वर्ग है, पर जन में बहुत छोटे किसान और भारत के संदर्भ में धन, धर्म और धरती से रहित दलित भी शामिल हैं। इस कारण जनचेतना की व्याप्ति सर्वहारा की चेतना से अधिक है। सामंत और पूंजीपति वर्ग से इतर जो है वह है जन। अतः यह भारत का आम आदमी है। जन की वर्ग-चेतना जिस पल अपनी मांगों को व्यक्त करना शुरू करती है, वही पल होता है, जब वह एक संगत यथार्थ पैदा करती है जो समग्र प्रक्रिया में सक्रिय हस्तक्षेप है। हम पूंजीवादी समाज में जन की दुर्दशा को तथा उत्पादन की शक्तियों के हाथों उसकी असहाय दासता को प्रतिबिंबित होते देखते हैं। जनता के एक व्यापक वर्ग-चेतन समूह द्वारा राज्य की वास्तविक शक्ति का अधिग्रहण स्वयं बुर्जुआ समाज के आसन्न पतन की उपज होता है और इसलिए उसके अंदर उचित समय पर उसके आगमन की आखथक और राजनीतिक चेतना पायी जाती है। केवल जन ही समाज के यथार्थ को सक्रिय ढंग से भेद सकता है और उसे उसकी पूरी समग्रता में बदल सकता है। जन एक ही हमले में असमर्थता की दुविधा को नष्ट कर देता है। इस दुविधा को भाग्यवाद के रूढ़ नियमों ने जन्म दिया है। मार्क्सवादी विचारधारा में जन की अवधारणा इसकी सामान्य अवधारणा से भिन्न है और इसका व्यावर्तक लक्षण है वर्ग का समावेश। पंूजीवादी और मार्क्सवादी धारा का एक अंतर जन के साथ रिश्ते को लेकर भी है। जन-चेतना सामंती और पूंजीवादी चेतना का प्रतिलोम है। यह मनुष्य के सामाजिक विकास की विकसनशील परिणति है। यह जनचेतना हमारे बीच है और हमारे चारों ओर है। ऐतिहासिक कारणों से जनचेतना सामंती समाज की अपेक्षा पूंजीवादी समाज में अधिक तीव्र हो गयी है और वर्ग-संघर्ष गहन हो गया है। जनचेतना की रचना जन को अपनी स्थिति के अहसास से होती है। यह अहसास उसकी आत्मगत चीज़ है जो उसकी वस्तुगत स्थिति से उत्पन्न होती है। इस जनचेतना का विकास सत्ता के लिए राजनीतिक संघर्ष से होता है। इसलिए संघर्ष का सीधा तात्पर्य राजनीतिक सत्ता के लिए जन का संघर्ष है। जनचेतना का विकास जन-आंदोलन पर निर्भर है और यह आंदोलन का रूप लेता है मज़दूर, छोटे किसान और दलित की एकजुटता से। ये सब मिलकर जन-आंदोलन और जनचेतना का निर्माण 252 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 करते हैं। इस जनचेतना का विकास बुद्धिजीवी के सहयोग से होता है क्योंकि अधिक प्रबुद्ध होने के कारण वे नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। यह जनचेतना समाज को समग्र रूप से प्रभावित करती है क्योंकि यह सजगता परिवर्तन लाने का माध्यम बनती है। चूंकि जनचेतना इस तरह परिभाषित होती है, इस कारण यह ऐतिहासिक रूप से आरोपित विषय बन जाती है। इस चेतना के विकास के कारण अपने आप में वर्ग ;ब्संेे पद पजेमसद्धिए अपने लिए वर्ग ;ब्संेे जव पजेमसद्धि में रूपांतरित हो गया है। जहां चेतना का जागरण होता है वहां ‘अपने लिए वर्ग’ होता है। यदि चेतना को हम विचारधारात्मक अंतर्वस्तु से रहित कर देते हैं, तब कुछ नहीं बचता है। जन एक वर्ग के रूप में स्वयं को तब तक मुक्त नहीं कर सकता जब तक वह साथ ही साथ स्वयं वर्गीय समाज का उन्मूलन न कर दे। विचारधारा जन के लिए जंग का परचम नहीं होती, न वह उसके सच्चे उद्देश्यों के लिये किसी आवरण जैसी होती है वरन् वह स्वयं उद्देश्य और शस्त्रा होती है। केवल जन की चेतना ही वह मार्ग खोलती है जो पूंजीवाद के गतिरोध से उसे बाहर ले जाती है। जन, यथार्थवाद और सत्य में जैव संबंध है। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत जन इज़ारेदार पूंजीपतियों के खि़लाफ़ खड़े हैं। पूंजीवादी समाज व्यवस्था पर एक सटीक निर्णय सुनाना, पूंजीवादी समाज को बेनक़ाब करना जन का सबसे अहम प्रकार्य है। जन-चेतेतना रूसी आलोचक बे¯लस्की ने लिखा है कि सच्ची कविता वही है जो जनता के साथ रिश्ता व्यक्त करती है। जन ही वह क्षेत्रा है जहां विचारधारा और राजनीति कविता में अपने को अभिव्यक्त करती है। नागार्जुन ने ऐसी कविताएं लिखीं जिनमें जनता का संघर्ष है। जनचेतना नागार्जुन की रचना में आदि से अंत तक है और इस कारण यह रिश्ता एक सौंदर्यपरक अमूर्त्तन बन गया है। संघर्ष की कविता से सीधा तात्पर्य राजनीतिक सत्ता के लिए जन का संघर्ष है। नागार्जुन खांटी राजनीतिक कवि हैं। उनमें जन ऐतिहासिक प्रक्रिया की निर्णायक शक्ति है। इतिहास की रचना प्रधानमंत्राी निवास या राष्ट्रपति भवन में नहीं, मंत्रियों के निवास स्थान तथा संसद भवनों में नहीं बल्कि खानों और कारखानों में, खेतों और खलिहानों में, दुकानों में, निर्माण स्थलों पर, भौतिक उत्पादन के क्षेत्रा में होती है। मंदिरों और राजभवनों से उतर कर नागार्जुन की कविता जन के इन्हीं क्रियाकलापों के बीच रची गयी है। पूंजीवादी समाज में बुर्जुआ राजनीति और प्रगतिशील रचनाकार की रचना में निरंतर संघर्ष चलता रहता है और बहुत बार अनजाने रूप से ही रचनाकार बुर्जुआ व्यवस्था का विध्वंसक बन जाता है। स्वयं को जन के प्रतिनिधि के रूप में रखता हुआ कवि लिखता है: मैं रूपक हूं दबी हुई दूब का हरा हुआ नहीं कि चरने दौड़ते। यह कवि की ही नियति नहीं, जन की भी नियति है। यानी जन को सब लूटते हैं। नागार्जुन की विचारधारा मार्क्सवाद है जिसके केंद्र में जन है। उन्होंने सामंती और पूंजीवादी दोनों को तिरस्कृत कर जन को व्यवस्था-विमर्श के केंद्र में प्रतिष्ठित किया। नागार्जुन की सोच को तैलंगाना के विद्रोह ने विचारधारा का रूप दे दिया। उनके जनवाद का उत्स यही है। मार्क्सवाद का प्रभाव 1948 से उनकी कविताओं में दीखने लगता है। हालांकि लेनिन की वंदना में एक कविता उन्होंने 1944 में ही लिखी थी। तैलंगाना में विद्रोह की वंदना उन्होंने ‘लाल भवानी’ नामक नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 253 कविता में की। 1948 ही वह वर्ष है जब नागार्जुन की रचनात्मकता परवान चढ़ती है। इस साल उन्होंने जनपीड़ा की अनेक कविताएं लिखीं। ‘सच न बोलना’ नामक कविता में वे शोषक वर्ग की तस्वीर यों पेश करते हैं: ज़मींदार हैं, साहुकार हैं, बनिया है, व्यापारी है अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है। सब घुस आये, भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर एक बार तो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर फिर फिर। कविता लेखन का आरंभ उन्होंने जन से तो नहीं किया पर जन तक पहुंचने में उन्हें थोड़ा ही समय लगा। 1944 ई. में प्रकाशित ‘महामानव लेनिन’ शीर्षक कविता में वे सीधे जन-चेतना को परिभाषित करते हैं: जन चेतना तन-मन लगाकर मथते हैं सागर अमृत निकाल कर पीते हैं ढाल-ढाल कर स्वयं उत्पादक स्वयं हम विभाजक। यानी जन-चेतना है श्रम की संस्कृति। श्रम की संस्कृति ही जन और अभिजन का पार्थक्य रचती है। नागार्जुन ने भारतीय जन को सर्वहारा के रूप में देखा है। यानी जिसके पास कुछ नहीं है वे उसकी विपन्नता के अनेकशः चित्रा देते हैं। स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद राजनीतिक दासता से मुक्ति मिली किंतु सवाल रोजी-रोटी का है, जीविका का है। यदि जनता का पेट नहीं भरता है तो आज़ादी केवल काग़ज़ का टुकड़ा बन कर रह जाती है। राष्ट्रगीत के ‘जनगणमन’ को स्वाधीन देश की सरकार ने मखौल बना दिया है। यथा: जनगणमन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्रा तुम्हारी है भूख-भूख चिल्लाने वाले अशुभ, अमंगलकारी है। भारत की स्वाधीनता के संबंध में उनका मत भारतीय साम्यवादी दल वाला ही है। वे भारत की स्वाधीनता को जनता के साथ दग़ाबाज़ी मानते हैं। उनकी राजनीतिक कविता का यह भी एक प्रस्थान बिंदु है। 1948 के स्वाधीनता दिवस पर वे लिखते हैं: जन्मदिन शिशु राष्ट्र का है आज ही तुम मिल गये थे दुश्मनों से, गुनहगारों से छोड़कर संघर्ष का पथ भूलकर अंतिम विजय की घोषणाएं भोंककर लंबा छुरा तुम सर्वहारा जनगणों की पीठ में लड़खड़ा कर गिर पड़े आज ही के रोज़ 254 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 स्पष्ट ही नागार्जुन का जन सर्वहारा ही है जो उ$पर की पंक्ति में स्पष्ट है। 1960 में स्वाधीनता के तेरह साल बीतते हैं। तब भी जन का वही हाल है। बेहतरी का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। ‘बीते तेरह साल’ कविता में वे लिखते हैं: अंदर संकट, बाहर संकट, संकट चारों ओर जीभ कटी है, भारतमाता मचा न पाती शोर देखो धंसी-धंसी ये आंखें, पिचके-पिचके गाल कौन कहेगा, आज़ादी के बीते तेरह साल ? और इस जन की एक प्रजाति है प्राथमिक पाठशाला का शिक्षक। इस पाठशाला में पढ़ाते दुखरन मास्टर की यह छवि है: घुन खाए शहतीरों पर की, बाराखड़ी विधाता बांचे फटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचे इसी तरह से दुखरन मास्टर गढ़ते हैं आदम के सांचे। दुखरन मास्टर आज़ादी की निष्फलता की छवि प्रस्तुत करते हैं। उनकी उक्ति है: ‘जन-सामान्य हमारी आशाओं के प्राण केंद्र हैं।’ संघ्ंघर्ष की कविता ग़रीबी स े बढ़कर र्काइे दुख नही ं हाते ा ह,ै ‘नहि दरिद्र सम दुख्ुख जग माही।’ आदमी चते ना शन्ू य हाने े लगता है। उसमें जीवन का स्पंदन नहीं रहता है। इस चेतना-शून्यता को रेखांकित करते हुए कवि लिखता है: दरअसल तुम्हारे जिस्म के कुछ ही हिस्से ¯जदा दरअसल तुम्हारे दिल और दिमाग़ के अंदर ढेर-सा कूड़ा सुरक्षित है दुनिया हमसे पूछती है लोथ की अखंडता भला किस काम की? पुराने रोगों के अपने कीटाणुओं ने तो तुमको लोथ बना रखा है न? इस कविता का शीर्षक है ‘हुकूमत की नर्सरी।’ हुकूमत ऐसी है जिसने अपने लाभ के लिए जनता को लोथ बना रखा है। स्वाधीन भारत की सरकारी नीति की यह शव-परीक्षा है। सत्ता के लिए जन के संघर्ष में वे सीधे ¯हसा का समर्थन करते हैं। जन ने निकाला है स्वयं की मुक्ति का मार्ग। कवि कहता है: मशीनों पर और श्रम पर, उपज के सब साधनों पर सर्वहारा स्वयं करेगा अपना अधिकार स्थापित दूहकर वह आंत जोंकों की, मिटा देगा धरा की प्यास करेगा आरंभ अपना स्वयं ही इतिहास। नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 255 संघर्ष आवश्यक है। समतामूलक समाज की स्थापना के लिए पहले उग्र संघर्ष आवश्यक है। यथा: रुद्रता अनिवार्य होगी भद्रता के पूर्व सर्वहारा वर्ग के नील लोहित फूल, तुम बहुतेरा फलो- टुकड़ी के बहादुर बंधु! जनता की अनंत शक्ति को वे संघर्ष की अनंत चेतना के रूप में यों निरूपित करते हैं: हे महारुद्र, हे निर्मोही हे शाश्वत मल के महाकाल तुम मानवता के दूषित गलित अवयवों पर प्रलयांतवह्नि बन बरस रहे हो रहा तुम्हारे लोहित नील स्फुलिंगों से त्रिभुवन का तम-तोम हरण हे कोटिशीर्ष, हे कोटि बाहु, हे कोटिचरण। नागार्जुन ने कई कविताओं में जन और भद्र के पार्थक्य को रेखांकित किया है पर इस पार्थक्य को रेखांकित करने वाली सबसे अच्छी कविता ‘वे और तुम’ है: वे हुलसित हैं अपनी ही फसलों में डूब गये हैं तुम हुलसित हो चितकबरी चांदनियों में खोये हो उनको दुख है नये आम की मंजरियों को पाला मार गया है तुमको दुख है काव्य-संकलन दीमक चाट गये हैं। ये हैं दो वर्ग: दो संस्कृतियां। एक है मिथ्या संस्कृति जो पूंजीपतियों, भद्रलोक के जीवन से उत्पन्न है, एक ऐसी संस्कृति जो अमानुषिकता और भोगवाद का प्रचार करती है। दूसरी है जो मनुष्य जाति के सामने स्वाधीनता के उ$ंचे मूल्य, शांति और मनुष्य के व्यक्तित्व का मानवीय प्रश्न प्रस्तुत करती है। यह परस्पर विरोधी चेतना की कविता है। चेतना के ऐसे प्रतिलोम की रचना हिंदी के किसी और कवि ने नहीं की है। लक्ष्मी वाहन उलूक है और ग्रीक पुराकथा में इसका प्रतिरूप है मिनर्वा। पैसा आदमी को अमानुषिक और अंधा बना देता है। हेगेल ने लिखा है: ‘जब शाम का धुंधलका गहराने लगता है तभी मिनर्वा का उल्लू अपने पंख फैलाता और उड़ता है।’ नागार्जुन की चेतना में श्रमजीवी और काश्तकार हावी रहे हैं। उनकी चेतना की संरचना यही है। उनकी कविताओं में परिवर्तन और संघर्ष यथार्थ के दो चरण हैं। संघर्ष परिवर्तन के लिए है। यहां मार्क्स नागार्जुन की आंखों में उंगली डाल कर बतलाते हैं: ‘दार्शनिकों ने तरह-तरह से विश्व की केवल व्याख्या की है, असल सवाल इसे बदलने का है।’ (मार्क्स: फायरबाख संबंधी प्रस्थापनाएं)। समाज को बदलने का आह्वान कवि नागार्जुन करते हैं: 256 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 सड़ गयी है आंत पर दिखाये जा रहे हैं दांत छोड़कर संकोच, तजकर लाज दे रहा है गालियां यह जीर्ण-शीर्ण समाज खोलकर बंधन, मिटाकर नियति के आलेख लिया है मुक्तिपथ को देख। नदी पार कर लेने पर नाव को लादकर कोई नहीं चलता। पंत ने कहा था, ‘द्रुत झरो जगत के जीर्णपत्रा।’ नया समाज बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। नागार्जुन को इतिहास में जनता की ताक़त का एहसास है। ‘अन्न पचीसी’ कविता में कहते हैं: कूच करेंगे भुक्खड़, थर्रायेगी दुनिया सारी काम न आयेंगे स्त्राी भर विधि-निषेध सरकारी। भारतीय साम्यवादी दल की राजनीति ही उनकी राजनीतिक कविता का आधार रही है। उसी की दृष्टि से उन्होंने भारतीय लोकतंत्रा की धज्जी उड़ायी है। पर, भारतीय साम्यवादी दल के विचलन की उन्होंने खुलकर भर्त्सना की। उन्हें लगा कि भोग की लालसा में साथी भी भद्रजन का जीवन जीने लगे हैं: आग उगलते थे जो साथी चिकने उनके गाल हो गये। आपातकाल का उन्होंने विरोध किया था जबकि भारतीय साम्यवादी दल उसके समर्थन में खड़ा था। उन्होंने इसका सीधा विरोध किया है: तेवर तो हैं छद्म वाम के दक्षिणपंथी भोगलाग की विकट गंध है पतन और विच्युत विभ्रम का जरासंध है। कवि नागार्जुन का संघर्षशील मन प्रतिबद्ध है। उनकी कविता जन के विचारों और आकांक्षाओं से एकाकार है। अपनी प्रतिबद्धता की व्याप्ति का वे यों निरूपण करते हैं: प्रतिबद्ध हूं, जी हां प्रतिबद्ध हूं बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ अविवेकी भीड़ के ‘भेड़ियाधसान’ के खि़लाफ़ अंध-बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से उतारने की खातिर प्रतिबद्ध हूं, जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं। कविता लंबी है और जीवन के सभी क्षेत्रा, समाज के सभी प्रसंग इस प्रतिबद्धता के वृत्त में आ गये हैं। विचारों के बिना कोई प्रतिबद्धता नहीं होती है। इस कारण प्रबिद्धता का संबंध कवि की विश्वदृष्टि से है। उनकी विश्वदृष्टि का संबंध सीधे जन की चेतना से है। प्रत्येक यथार्थवादी कविता जन से जुड़ी होती नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 257 है। वह जन-कवि इस अर्थ में भी हैं कि वे वर्तमान क्षण की सेवा में हैं, आज के समय में यथार्थ के मुंशी हैं, जन के दर्द के दस्तावेज़कार हैं। उनकी प्रतिबद्धता इस बात में सन्निहित है कि उनकी पूरी प्रतिभा, उनकी पूरी साधना जन को समखपत है। उनके लिए कविता का एक ही लक्ष्य है जन के लिए संघर्ष और जन की सेवा कविता या कला में प्रतिबद्धता और बातों के अतिरिक्त एक सौंदर्यानुभूति भी है जो कि एक साथ ही कलात्मक रचना की विशिष्ट प्रकृति और रचनाकार की निजता को भी प्रकट करती है। इसी बिंदु पर केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन का अंतर स्पष्ट होता है। नागार्जुन संघर्ष के कवि हैं, विद्रोह के कवि हैं और यह संघर्ष और संघर्षशील जीवट का प्रमाण है। यह संघर्ष उनका असल चेहरा है। उनके स्वप्न और उनके संघर्ष एकाकार हो गये हैं। स्वप्न जनचेतना का है और संघर्ष उसको स्थापित करने का है। ऐसे में क्रांति का क्षण स्वयं ही लक्ष्य बन जाता है; या एक भविष्य सूचक या समूह सुखबोध बन जाता है। यह अस्तित्व का रूपांतरण जैसी बड़ी चीज़ है न कि उत्पादन के संबंध या कानूनी संबंध के परिवर्तन की कोशिश। यह तो मानना होगा कि उनकी कविताओं में साम्यवाद और आतंकवाद का पुराना झगड़ा सर उठाता है। मार्क्सवाद उनकी विचारधारा है पर नक्सलवाद जैसे आतंकवादी आंदोलन को भी वे शह देते हैं। संपूर्ण क्रांति जैसी अराजक अवधारणा के पक्षधर बन जाते हैं। इस विचारधारात्मक उलझन में असली चीज़ है उनकी ईमानदारी। परिवर्तन की आकांक्षा और संघर्ष के मार्ग के संबंध में उन्हें कोई संदेह नहीं है। उनकी कविता की वास्तविक ताक़त यही प्रतिरोध की शक्ति है। उनकी कविता में संघर्ष का लक्ष्य है मेहनतकश लोगों द्वारा सत्ता पर अधिकार प्राप्त करना। उनकी कविता का नायक बहुत स्पष्ट है: जन। नागार्जुन ने कविता लिखना 1936 से शुरू किया था और यही ‘कामायनी’ के प्रकाशन और छायावाद के अंत का काल है। उनकी कविताओं से हिंदी कविता व्यक्तिवाद की कुहा से निकलकर जनचेतना के प्रकाश में आ जाती है। वह छायावादी भाषा की कुहा से भी बाहर निकलती है। व्यक्तिवाद का भाषा की कुहा से कोई न कोई संबंध है। नागार्जुन ने भाषा खेतों, खलिहानों और मज़दूरों से ली है। कवि नागार्जुन प्रकृति से विद्रोही हैं। मार्क्सवाद उनका वैचारिक आधार ज़रूर है पर जहां उसका विचलन होता है वहां वे उसे भी नहीं बख्शते हैं। एक कवि अपनी प्रकृति से ही प्रतिरोधक होता है। वह सत्ता का दुश्मन होता है, व्यवस्था का शत्राु होता है। उन्हें स्वयं इसका अहसास है: हमने तो रगड़ा है इनको भी, उनको भी, उनको भी। रगड़ा तो उन्होंने हर किसी को। किसी को नहीं बख्शा है, न कांग्रेसियों को, न साम्यवादियों को, न चीनियों को, न सोवियत रूस को, न नेहरू को और न इंिदरा गांधी को। उनकी आत्मा एक परम ईमानदार व्यक्ति की आत्मा है। जहां बेईमानी देखी, वहां वे क्रुद्ध हो जाते हैं। वे ऐसा बुद्धिजीवी हैं ‘जो न तो किसी के राज्य में रहते हैं न किसी के अन्न पर पलते हैं। स्वराज्य में विचरते हैं और अमृत पीकर जीते हैं’ (जयशंकर प्रसाद)। एक सच्चा बुद्धिजीवी, एक यायावर। अपने ढंग के करपात्राी, अपने ढंग के अग्निहोत्राी। इसी यायावरी ने उन्हें एक योद्धा का कलेजा और एक कवि का विद्रोही स्वभाव प्रदान किया। मो.: 09430061479