जनता को रोटी से काम / रवि रंजन

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“जब हिन्दी प्रदेश की श्रमिक जनता एक जुट होकर नई समाज-व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़ेगी .....निम्न मध्यवर्ग और किसानों और मजदूरों में भी जन्म लेने वाले कवि दृढ़ता से अपना सम्बन्ध जनांदोलनों से कायम करेंगे, तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन की समस्या फिर दरपेश होगी और साहित्य और राजनीति में उनका सही मार्गदर्शन करने वाले अपनी रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करने वाले, उनके प्रेरक और गुरु होंगे कवि नागार्जुन।” ---रामविलास शर्मा

हमारे समय में हुक्मरानों द्वारा अवाम को इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश करा दिए जाने का बार-बार दावा किया जा रहा है. मंदी के इस दौर में वृद्ध पूंजीवाद को सहारा देने के लिए सूचना तंत्र की वैशाखी का अंधाधुंध इस्तेमाल काबिलेगौर है.बीसवीं सदी के अंतिम चरण में गांधी के सपनों को साकार करने का दावा करने वाली काँग्रेस पार्टी द्वारा ‘मनमोहनिमिक्स’ के तहत जब राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर ‘विश्व बैंक’, ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’, ‘वाशिंगटन आम राय’ एवं ‘विश्व व्यापार संगठन’ की नीतियों का तत्परता के साथ अनुपालन करते हुए क़र्ज़ पर आधारित अर्थव्यवस्था और विदेशी पूँजी निवेश के लिए कालीन बिछाई जाने लगी तो नागार्जुन ने उसका मखौल उड़ाते हुए लिखा था:

‘हम तो ठहरे घीसू माधव की औलाद !
क्या रहेगा याद, क्यों रहेगा याद ?
मिलता रहे क़र्ज़, बढ़ता रहे मर्
छुट्टियाँ मनेंगी टापू में
फर्क नहीं रह जाएगा
बा और बापू में ।

आज यह याद रखना बहुत ज़रूरी है कि तमाम प्रगतिशील इतिहासकारों एवं समाज वैज्ञानिकों ने सन् 1947 में भारत को मिली आजादी को देशी सामंतवाद-पूँजीवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवाद एवं साम्राज्यवाद के बीच हुए समझौते के रूप में रेखांकित किया है, जिसमें आजादी के बाद भारतीय बुर्जुआ के शासन काल में देश में साम्राज्यवादियों के आर्थिक हितों की सुरक्षा की गारंटी दी गई थी। डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में “भारत में लोकप्रिय मंत्रिमण्डल किस प्रकार ब्रिाटेन के आर्थिक हितों की रक्षा करें, इसकी ट्रेनिंग सबसे पहले कांग्रेस नेताओं को 1937 वाले दौर में मिली। दूसरी बार यह ट्रेनिंग उन्हें सन् 46-47 की अंतरिम सरकार के दौरान मिली।” हालांकि सन् 1929 में जवहारलाल नेहरू के माध्यम से कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता का लक्ष्य घोषित कर चुकी थी, पर 1937 में प्राप्त यह लक्ष्य भारतीय बुर्जुआ के लिए भले ही पूर्ण हो, आम जनता के लिए यह निश्चय ही अपूर्ण रहा है। कारण यह कि इस तथाकथित आजादी के बाद भी “भारत से ब्रिाटेन के आर्थिक हित गायब नहीं हो गए, विदेशी बैकों के कर्ज लेकर दरअसल भारत सरकार ने विदेशी पूँजी के दबाव को बढ़ने दिया।”

ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति में जनपक्षधर बुद्धिजीवियों एवं पार्टी के नेताओं ने यदि भारत की आजादी के खोखलेपन को उजागर करते हुए राष्ट्रवादी कही जानेवाली कांग्रेस पार्टी के जनविरोधी चरित्र का पर्दाफ़ाश किया तो इस कारण उन्हें राष्ट्रविरोध बताने वालों की नीयत स्वत: स्पष्ट हो जाती है। न केवल राजनीति के क्षेत्र में ही, बल्कि उस समय साहित्य एवं संस्कृति के मोर्चे पर सक्रिय प्रगतिशील कवियों-लेखकों की अनेकानेक रचनाओं तथा उनके वक्तव्यों में भी हमें आजादी के ठीक बाद राष्ट्रीय पूँजीपतियों एवं उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों के विरूद्ध मुखालफत का अत्यंत मुखर स्वर सुनाई पड़ता है। उदाहरण के लिए सन् 1949 (25 सितंबर) में इलाहाबाद में आयोजित युक्त प्रांत के प्रगतिशील लेखकों के सम्मेलन में अध्यक्षपद से दिये गये नागार्जुन के भाषण का एक अंश दृष्टव्य है : “हम शासक-शोषक वर्ग के पिछलगुआ जी-हुजूर, चाटुकार लेखक नहीं हैं। हम बिड़ला-टाटा डालमियाँ के चाकर नहीं हैं। हम नेहरू और पटेल की थाप पर थिरकने - ठमकने वाले आर्टिस्ट नहीं हैं। सर्वसाधारण जनता को ही हम अपनी अधिस्वामिनी समझते हैं। हमारी सारी प्रेरणाओं और कल्पनाओं का मूल रुाोत वही है।”

कहना न होगा कि एक रचनाकार द्वारा सर्वसाधारण जनता को ही अपनी अधिस्वामिनी तथा सारी प्रेरणाओं एवं कल्पनाओं के मूल रुाोत के रूप में अंगीकार किया जाना उसकी वैज्ञानिक समझ एवं प्रगतिशील दृष्टि का परिचायक है। कारण यह कि साहित्यकार को जहाँ से प्रगति के लिए असली ताकत मिलती है, उसकारुाोत जनता ही है। डॉ. विजय बहादुर सिंह को लिखित अपने पत्र में भी नागार्जुन ने स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य को स्वीकार किया है- “किसने, कब, कहाँ, मेरे प्रसंग में क्या कहा? मेरे पक्ष या विपक्ष में अमुक शोधकर्ता ने क्या राय जाहिर की है या किस परिचर्चा गोष्ठी में कौन मेरा परिहास कर रहा था? मेरे हितैषियों ने समय-समय पर मुझे इस बात की सूचना देने की कोशिश की है। वामपंथी एवं वामगंधी बंधुओं के परामर्श, चेतावनियाँ शीतोष्ण उपदेश यह सब मेरे इन कानों तक पहुँचते रहे हैं, परन्तु सर्वाधिक परवाह जिस तत्व की मैं करता हूँ वह कोई और तत्त्व है। जिस शक्ति से मैं ऊर्जा हासिल करता हूँ, वह कोई और शक्ति है। मुझे संघर्षशील जनता का विपन्न बहुलांश ही शक्ति प्रदान करता है। कोटि-कोटि भारतीयों के वे निरीह, पिछड़े हुए, अकिंचन, दुर्बल समुदाय जो चाहने पर भी अपना मतपत्र नहीं डाल पाए, मेरी चेतना उनकी विवशताओं से ऊर्जा हासिल करेगी।”

जाहिर है कि अनेक फैशनपरस्त तथाकथित प्रगतिशील रचनाकारों की तरह नागार्जुन जिंदगी को केवल किताब से मापनेवाले लेखक कतई नहीं रहे हैं। इसीलिए सामाजिक - राजनीतिक विसंगतियों के संदर्भ में उनका कृत्य महज बौद्धिक मुठभेड़ तक सीमित न रहकर जनांदलनों का पीछा करने के लिए उन्हें समय-समय पर उत्प्रेरित करता रहा है। निश्चय ही उनकी सक्रिय भागीदारी कई बार ऐसे आन्दोलनों के साथ भी रही है जो माक्र्सवादी दृष्टिकोण विचारने पर भी प्रतिक्रियावाद की गर्भ से पैदा हुए सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए केलानिया के मठ से जब उनका किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती के साथ किसानों की समस्याओं को लेकर पत्र-व्यवहार हुआ और स्वामी जी ने उनको लिखा- “वहाँ मुर्दों के चक्कर में क्या पड़े हो? आओ और जनता के लिए काम करो।” - तो तरूण बौद्ध सन्यासी नागार्जुन खुद को रोक न सके। वे केनालिया से आकर किसान आन्दोलन के साथ सक्रिय रूप से जुड़ गये और इस क्रम में बिहार के सिवान जिले के पचरूखी प्रखंड में वे कैद भी किये गये थे। डॉ. प्रभाकर माचवे के अनुसार नागार्जुन ‘भारत लौटे, सन् 38 के मध्य में। अमबारी (बिहार) के अत्याचारी भूस्वामी के खिलाफ राहुल सांकृत्यायन ने नेतृत्व किया। उनके भिक्षु जैसे मुंडित सिर पर लाठी पड़ी। रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘योगी’ में संपादकीय लिखा। नागार्जुन को किसानों के नेतृत्व के लिए पकड़ लिया गया। छपरा और हजारीबाग जेल में दस महीने रहना पड़ा। इस किसान आन्दोलन में उनके जेल के साथियों में समाजवादी युवा नेता श्यामनन्दन मिश्र और किसान सभा के प्रसिद्ध नेता पंडित कार्यानंद शर्मा भी थे। इन्हीं दिनों दो-एक बार नागार्जुन का पत्र-व्यवहार सुभाष बोस जैसे नेताओं से भी हुआ।’ उनके कवि-व्यक्तित्व के निर्माण के बारे में डॉ.खगेन्द्र ठाकुर का कहना है कि ‘सन ’४६ में नौसेना में विद्रोह हुआ, पुलिस में विद्रोह हुआ, लाल सेना के नेतृत्व में प्रन्नपा का किसान संघर्ष, तेलंगाना का किसान संघर्ष, बंगाल का तेभागा आंदोलन, रेल-हड़ताल, अनेक उद्योगों में हड़ताल और ‘आज़ाद हिंद फौज’ के समर्थन में राष्ट्रीय कार्रवाइयाँ हो रही थीं और इन सबका नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी ने किया, नौसेना के समर्थन में मुंबई के मजदूरों ने कार्रवाई की ।.....केदार और नागार्जुन की काव्य-चेतना पर सन ’४६ के क्रांतिकारी जन-उभार का गहरा असर है।....नागार्जुन की काव्य-चेतना में स्वाधीनता संघर्ष और क्रांतिकारी किसान-संघर्ष में स्वयं भाग लेने के अपने अनुभव भी हैं।’ नागार्जुन सन् 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाये गये ‘बिहार आन्दोलन’ से भी जुड़े जिस आन्दोलन का चरित्र आदि से अंत तक बुर्जुआ चरित्र था और इस क्रम में भी वे गिरफ्तार किये गये। पर जेल से छूटने पर उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि ‘मै रंडियों भडुओं के कोठे पर पहुँच गया था।’ बिहार आन्दोलन में अपनी शिकायत को नागार्जुन ने अपनी एक कविता में इस प्रकार ‘कन्फेस’ किया है-

रहा उनके बीच मैं।
था पतित मैं, नीच मैं
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में
धंस गया आकंठ कीचड़ में
सड़ी लाशें मिलीं
उनकी मध्य लेटा रहा आँखे मींच, मैं
उठा भी तो झाड़ आया नुक्कडों पर स्पीच मैं
रहा उनके बीच मैं।
था पतित मैं, नीच मैं!!

इस कविता का स्वर मुक्तिबोध की ‘बहुत शर्म आती है’ से भिन्न है। कारण यह कि मुक्तिबोध के मध्यवर्गीय काव्यनायक की शर्मनाक तटस्थता के विपरीत यहाँ कविता का प्रथम पुरुष अपने किए पर ग्लानि से गल रहा है। दूसरे शब्दों में उसे अपने विचलन का मर्मांतक बोध हो रहा है जिससे उसे भविष्य में अपनी सक्रियताओं के दिशा निर्धारण में सहायता मिलेगी और वह फूँक-फूँक कर कदम बढ़ायेगा। ज्ञातव्य है कि सन् १९७४ में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आहूत तथाकथित ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ एवं तदनंतर सत्ता परिवर्तन को नागार्जुन ने ‘खिचड़ी विप्लव’ के रूप में अभिहित किया था ।

नागार्जुन निर्विवाद रूप में एक सच्चे जनपक्षधर कवि हैं। माक्र्सवादी विचारधारा में उनका गहरा विश्वास रहा है। किन्तु इन सारी बातों के बावजूद वे भारत की विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों एवं उनसे जुड़े लेखकों के संघटनों की नीतियों के कभी कायल नहीं रहे। पार्टी-विशेष के प्रति अपने लेखकीय व्यक्तित्व को समर्पित कर देने के बजाय वे रचनाकार के लिए जनपक्षधरता को ज्यादा जरूरी मानते हैं-

चाहते हो-
अगर तुम निर्विघ्न होकर
शांतिपूर्वक
शिल्प-संस्कृति-कला का,साहित्य का निर्माण करना
इतर साधारण जनों से अलहदा होकर मत रहो
कलाधर या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो-

स्पष्ट ही सर्वहारा जन्म से ही वर्ग-सचेतन नहीं होता। वह समय के साथ इसे अर्जित करता है। ऐसी स्थिति में प्रतिबद्ध लेखक के लिए जरूरी है कि वह वर्ग चेतना से लैस सर्वहारा तथा दिशाविहीन भीड़ में फर्क को समझे। कवि नागार्जुन न केवल इस फर्क को भली-भाँति समझते हैं, बल्कि वे अपने "व्यामोह" से उत्पन्न खतरे के प्रति भी सचेत हैं, तभी उनमें यह कहने का नैतिक साहस है-

…अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बहिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी व्यामोह से बारंबार उभारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ।

किन्तु कवि की इस प्रतिबद्धता को किसी राजनीतिक दल की पाबंदी स्वीकार नहीं है, हालांकि वह आरंभ से कम्युनिस्ट पार्टी एवं प्रगतिशील आन्दोलन से संगठन के स्तर पर भी जुड़ा रहा है। अत: ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद के नाम पर कई तथाकथित प्रगतिशील लेखकों की तरह साम्यवादी शासन वाले देशों के प्रति नागार्जुन की आत्यंतिक ललक का तो प्रश्न ही नहीं उठता। डॉ. विजय बहादुर सिंह से बातचीत करते हुए नागार्जुन कहते हैं कि यदि लेखक ""पार्टी के इनर सर्किल में आयेगा तो मूलत: साहित्यकार नहीं रह सकता। मैं तो 62 तक सी.पी.आई का सदस्य रहा। यह और बात है कि मेरी सदस्यता हमेशा ढीले किस्म की रही। .... मेरे संदर्भ में राष्ट्रीय माक्र्सवादी शब्द ज्यादा सही होगा। भारत में ही क्यों संपूर्ण दक्षिण एशिया में माक्र्सवाद तभी फलदायी होगा जब वह राष्ट्रीयता से जुड़ेगा। न्न्न् अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद जब राष्ट्रीय हो लेगा तभी वह राष्ट्रीय माक्र्सवादी की संज्ञा पा सकेगा। मेरे लिए इसका मतलब स्थनीय समस्याओं और निकट के संघर्षों से जुड़ना है। बाहर-बाहर तो हम प्रगतिशील बने रहे और भीतर वही प्रतिक्रियावाद काम करता चले तो फिर कैसी राष्ट्रीयता और कैसी साम्यवादिता .... मैं स्थानीय घटनाओं से निर्लिप्त रहकर माक्र्सवादी नहीं रहना चाहता।”

‘राष्ट्रीय माक्र्सवाद’ विषयक नागार्जुन की इस अवधारणा तथा व्याख्या को ध्यान में रखकर यदि हम उनकी माओत्से तुंग और मार्शल टीटो को लक्ष्य कर लिखित काव्य पंक्तियों पर दृष्टिपात करें तो कवि की माक्र्सवाद-लेनिनवाद के प्रति आस्था को लेकर किसी भ्रम की गुंजाइश न रहेगी, जो कि एक जमाने में प्रगतिशील शिविर में पैदा हो गयी थी ।

जाहिर है कि सन् 1962 के चीनी साम्राज्यवादी आक्रमण का भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन पर बहुत बुरा असर पड़ा। इस संदर्भ में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के रूख पर भी प्रश्न चिह्न लगाया जाता रहा है। किन्तु एकाध अपवाद को छोड़कर अपनी जमीन से जुड़े जिन अधिकांश प्रगतिशील रचनाकारों ने इस आक्रमण का जमकर विरोध किया था उसमें नागार्जुन का स्वर संभवत: सबसे ऊँचा था।ऐसे तो सन् 1962 के बाद नागार्जुन ने ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ’से त्यागपत्र दे दिया पर इसका मतलब कतई यह नहीं है कि वे देश में जगह-जगह पर विभिन्न तबकों द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न आन्दोलनों से भी विमुख हो गये हो। सच तो यह है जनांदोलनों से जुड़ना नागार्जुन के कवि की प्रकृति है, जहाँ से उन्हें रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। उन्हें इस बात का बोध है कई सामाजिक यथार्थ स्थिर रहने के बजाए अपने अन्तर्निहित द्वन्द्व के चलते सतत परिवर्तनशील होता है और इसीलिए लगातार बदलता भी रहता है । भोजपुर में किसानों के सशस्त्र संग्राम पर रचित अपनी एक कविता में कवि ने उस क्षेत्र को एक तरह से तीर्थस्थल की महिमा प्रदान की है जहाँ सदियों से दबे-कुचले लोग अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं-

यही धुआँ मैं ढूँढ़ रहा था
यही आग मैं खोज रहा था
यही गंध थी मुझे चाहिए
बारूदी छर्रे की खुशबू!

भोजपुरी माटी सोंधी है,
इसका यह अदभुद सोंधापन!
लहरा उठ्ठी है
कदम-कदम पर, इस माटी पर
महामुक्ति की अग्निगंध!
ठहरो-ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ
अपना जनम सकारथ कर लूँ।

कहा जाता है कि जब कथाकार गोगोल ने जनता की तरफदारी का रास्ता छोड़कर ईसाइयत के आदर्श के नाम पर भूस्वामियों, किसानों एवं दासों को मिल- जुलकर शांतिपूर्वक रहने की शिक्षा देनेवाली एक किताब लिखी थी जो वस्तुत: जारशाही के हित में थी तो प्रख्यात रूसी आलोचक बेलिंस्की ने अपने इस मित्र को एक पत्र में लिखा था कि “बात यह है कि तुम रूस को बहुत वर्षों से सुन्दर-सुदूर से देखने के आदि हो गए हो । कौन नहीं जानता कि चीज़ों को अपने मनचीते रूप में देखने का सबसे आसान तरीका है उन्हें दूर से देखना । तुम भला कैसे देख सकते थे कि रूस की मुक्ति न तो रहस्यवाद में है, न वैराग्यवाद में, न भक्तिवाद में । उसकी मुक्ति है तो सभ्यता में, प्रकाश में और मानवता की सफलताओं में ।..... ...आवश्यकता है ऐसे अधिकारों और कानूनों की जिन्हें गिरिजा के उपदेशों का अमृत छिड़क कर नहीं, वरन् सामान्य बुद्धि और न्याय के आधार पर पढ़ा जाए और यथासंभव दृढ़ता से उनका पालन किया जाए.”

भारत में गाँव-देहात में किसानों-मजदूरों के संघर्ष को शहरी दूरबीन से देखने के अभ्यस्त तथाकथित क्रान्तिकारियों के विपरीत आन्दोलनकारियों की जमात में खुद भी शामिल होकर पुलिस-दमन का स्वाद चखने की कवि की इच्छा उसकी जनपक्षधरता के जिस स्तर का पता देती है उसे व्याख्यायित करना अपेक्षित नहीं है -

मुन्ना, मुझको
पटना-दिल्ली मत जाने दो
भूमिपुत्र से संग्रामी तेवर लिखने दो
पुलिस-दमन का स्वाद मुझे भी तो चखने दो
मुन्ना मुझे पास आने दो
पटना दिल्ली मत जाने दो।

कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य न होते हुए भी विभिन्न जनांदलनों से नागार्जुन के इस हार्दिक जुड़ाव से मिलती-जुलती स्थिति ही प्रगतिशील लेखकों के विभिन्न संगठनों एवं गुटों के साथ उनके संबंध को लेकर भी है। वामपंथी रुझान वालें तीनों शिविरों (प्र.ले.स, ज.ले.स.एवं ज.स.म.) के साथ-साथ जिला शहरों, कस्बों एवं गाँव-देहात तक में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा काव्य गोष्ठियों में उन्हें काव्य पाठ करते और नये से नये रचनाकार की कविताओं को सुनते-सराहते देखा गया है। बर्तोल ब्रेख्त के बारे में अपनी एक कविता में नागार्जुन ने लिखा है-

क्या नहीं है, इन घुच्ची आँखों में!
इन शातिर निगाहों में
नफरत की धधकती भट्ठियाँ
प्यार का अनूठा रसायन
अपूर्व विक्षोभ
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताज़गी
ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई
प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता ।

इस कविता की अंतिम अंश से गुजरते हुए अनायास मुक्तिबोध का स्मरण हो आता है जिन्होंने नागार्जुन की "ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई" को अपने ढंग से अभिव्यक्त करते हुए लिखा है -

“ह्यदय में मेरे प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
जो हँस- हँस कर अश्रुपूर्ण मत्त हुआ जाता है
जगत स्वायत्त हुआ जाता है।”

यदि हम नागार्जुन की आत्मवक्तव्य-सी एक कविता से उनकी ब्रेख्त वाली कविता को जोड़कर पढ़ें तो स्पष्ट होगा कि नफरत, प्यार, विक्षोभ, जिज्ञासा, ममता आदि जिन गुणों को कवि ने ब्रेख्त के व्यक्तित्व में लक्ष्य किया है, वे मात्रा-भेद से कहीं न कहीं नागार्जुन के अपने व्यक्तित्व में भी विद्दमान हैं । उन्हें हिन्दी कविता का ब्रेख्त कहना अतिशयोक्ति न् होगी :

नफरत की अपनी भट्ठी में
तुम्हे गलाने की कोशिश ही
मेरे अंदर बार-बार ताकत भरती है
नव-दुर्वासा, शवर-पुत्र मैं, शवर-पितामह
सभी रसों को गला-गला कर
अभिनव द्रव तैयार करूँगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
अष्टधातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक भरूंगा
देखोगे, सौ बार मरुँगा
देखोगे सौ बार जियूँगा
हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका खून पियूँगा
प्रतिहिंसा ही स्थाई भाव है मेरे कवि का
जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूँ उस रवि का।

अपने समय की विसंगतिपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों की ठीक-ठीक रचनात्मक आलोचना वही कवि-लेखक प्रस्तुत कर सकता है जिसमें आत्मलोचन की प्रवृत्ति होगी और जो हरदम सत्ता पक्ष ही नहीं, बल्कि विपक्षी दलों के द्वारा भी अपने रचनाकार को ‘एप्रोप्रिएट’ किए जाने के खतरे को लेकर सतर्क रहेगा। दूसरे शब्दों में जो कवि अपने व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों कोआत्मालोचन द्वारा समझ कर निर्ममतापूर्वक उन पर भी प्रहार कर सकता है, वही अपने समय के साथ रचना-क्रम में न्याय कर पायेगा। अपनी एक कविता में नागार्जुन खुद से सवाल करते हैं -

थकित-चकित-भ्रमित भग्न मन को
स्फूर्ति देता है किसी समर्थ का सहारा
तो क्या मुझे भी प्रभु की सत्ता स्वीकारनी होगी
तो क्या मुझे भी आस्तिक बन जाना होगा ?

गहरे आत्मलोचन के उपरान्त कवि का जीवन-विवेक उसे ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धा तथा आस्तिकता के विरोध में ले जाकर खड़ा कर देता है। उसे बुद्ध की तरह धर्म, आस्था आदि उस नौका की तरह प्रतीत होते हैं जो नदी पार करने का साधन मात्र है- ‘कुल्लुपमं देशेस्सरसि वो भिक्खवे धम्मं ,तरणत्थाय नो गहणत्थाय ।’ नागार्जुन ने लिखा है :

‘कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान

खोलकर बंधन, मिटाकर नियति के आलेख
लिया मैंने मुक्ति पथ को देख
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूँ क्यों पीठ पर मैं लाद.

नागार्जुन न केवल प्रदत्त सामाजिक मूल्यों की विसंगतियों पर ही निर्ममतापूर्वक प्रहार करते हैं , बल्कि वे अपने प्रति भी कम निर्मम नहीं है। इसके चलते उनके व्यंग्य में अनेक बार आत्मव्यंग्य सहज रूप में शामिल हो गया है, जो निराला के काव्य-विवेक की याद दिलाता है। उनकी “पछाड़ दिया है मेरे आस्तिक ने” जैसी मर्मभेदी कविता इस बात को पुष्ट करती हैं-

‘सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आँचलिक कथाकार!)
आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भर कर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्ध
गुनगुनाएँगे गदगद होकर- -
ओ नमो भगवते भुवन-भास्कराय

पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे नास्तिक को
साक्षी रहा है तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का!
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ।’

नागार्जुन की ऐसी अनेक कविताओंके मद्देनजर डॉ.विजय बहादुर सिंह ने ठीक ही लिखा है कि “नागार्जुन उन कठमुल्लों में नहीं हैं जो अपने संस्कारों के साथ जबर्दस्ती या नाइंसाफी करे और उन लोगों में से भी नहीं है जो अपने अनुभवों को किन्हीं राजनीतिक या आर्थिक दबावों के चलते छिपा ले। एक कवि की सबसे पहली ही नहीं सबसे आखिरी जिम्मेदारी भी अपने काव्यानुभव के प्रति होती है। भारतीय मीमांसा यह राय रखती है कि मानव-व्यक्तित्व एक अविभाज्य पूर्णता है और उसके सभी अंग और इंद्रियाँ एक दूसरे पर आश्रित और एक दूसरे के कार्य में सहायक हैं ।यह भी कि सभी मानव क्रियाएँ जो समाज को स्वस्त और अखंड़ बनाए रखती हैं, समान रूप से महत्त्वपूर्ण और सार्थक हैं, और वे परस्पर संबद्ध हैं। इसलिए जब कवि के अनुभव की बात चलती है तो उसे लोक या काल निरपेक्ष नहीं माना जा सकता। नागार्जुन का कमाल यह है कि वे कुछ ज्यादा ही समय सापेक्ष हैं। वे विराट काल पर भी निगाह रखते हैं और उनके क्षम-क्षण परिवर्तित रूप पर भी। इस रूप में वे सृजन के भीतर स्वयं एक परम्परा का निर्माण करते हैं। ठीक धरती की गति की तरह विराट विश्व की परिक्रमा तो करते ही हैं, अपनी धुरी पर भी वे घूम लेते हैं।कुछ लोग हैरान होते हैं कि वे एक ही साँस में परस्पर भिन्न राग कैसे गा लेते हैं। पर यह उनकी समझ का खोट है। नागार्जुन का प्रकृत-दोष नहीं।”

माक्र्स के चिंतन में हमें वर्ग संघर्ष की धारणा तथा वर्गों के ऐतिहासिक विकास के संबंध में वर्गों, उनके स्वरूप और व्यवस्था में उनकी स्थिति का विषद् विवेचन प्राप्त होता है। उनके अनुसार पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ और सर्वहारा के अलावा एक तीसरा वर्ग भी होता है जो निम्न पूँजीवादी रूझान से ग्रस्त होता है। निम्न वर्ग का निकटतम वर्गीय होने के बावजूद यह वर्ग हमेशा उच्च वर्ग की नकल करता है। पूँजीवादी व्यवस्था में निम्न पूँजीवादी रूझान वाला यह मध्यवर्ग हरदम अपने वर्गीय स्थिति को लेकर असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहता है। इस वर्ग की आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति पर चोट करते हुए नागार्जुन “घिन तो नहीं आती है?” कविता लिखते हैं जिसमें अपनी तथाकथित सुरूचि के चलते निम्न वर्ग से एक खास दूरी बनाकर रहने वाले मध्यवर्गीय सफेदपोशों की खबर ली गई है।

मध्यवर्गीय निम्न पूँजीवादी रूझान पर प्रहार करती उनकी कविताओं की धार अत्यंत तीक्ष्ण है, जो दूर तक मार करती है । नागार्जुन की ऐसी कविताओं में आवेश संयत होकर व्यंग्य का रूप धारण कर लेता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व सरकार द्वारा कपड़े की राशनिंग को लेकर हिन्दी में यशपाल रचित ‘परदा’ कहानी अपनी प्रभावान्विति के चलते बहुचर्चित रही है। इसी विषय पर रचित नागार्जुन की ‘मन करता है’ कविता पर यदि विचारे तो स्पष्ट होगा कि हिन्दी में ऐसी कविताएँ विरल हैं-

मन करता है
नंगा होकर कुछ घंटों तक सागर-तट पर मैं खड़ा रहूँ
यों भी क्या कपड़ा मिलता है?
धनपतियों की ऐसी लीला!

इस कविता पर टिप्पणी करते हुए परमानन्द श्रीवास्तव ने लिखा है कि “ऐसी कविता लिखने के लिए विराट ऊर्जा और साहस के साथ यह सच्चा विक्षोप भी जरूरी है, जो खरी सच्ची नैतिकता का समकक्ष होता है।... महज काव्य कौतुक के लिए या बौद्धिक या काव्यात्मक अमूर्तन के कलात्मक प्रलोभन में से निकल दिखने की कोशिश एक चीज है, सिनिसिज्म को विद्राह चेतना का लगभग पर्याय बना सकने के लिए गहरा नैतिक विवेक या नैतिक विक्षोभ भी चाहिए, जो नागार्जुन की कविता का खास चरित्र है।”

राजनीति नागार्जुन की कविताओं का सर्वाधिक सशक्त एवं महत्त्वपूर्ण पक्ष है। दूसरे शब्दों में राजनीति नागार्जुन-काव्य का मेरूदण्ड है। "राजनीति का प्रश्न नहीं रे ! आज जगत् के सम्मुख" की उदघोषणा करनेवाले छायावादी कवियों-कलाकारों की तरह राजनीति से दूर रहकर संस्कृति की सुरक्षा में लगे रहने का उपदेशामृत पिलाने वाले लोगों की संस्कृति विषयक बुर्जुआ अवधारणा को नकार कर नागार्जुन का कवि जीवन और राजनीति को एक-दूसरे का पर्याय घोषित करता है-

“जीवन है राजनीति, राजनीति है जीवन
अन्तस की अभिव्यक्ति ही तो होगा साहित्य।”

आज की राजनीति में अपने-आप को आम आदमी का एक मात्र प्रवक्ता बताने वाले तथाकथित क्रांतिकारियों के प्रतिक्रांतिकारी रूख एवं प्रतिगामी आचरण से भी नागार्जुन पूरी तरह परिचित हैं। ऐसे छद्म परिवर्तनकामियों की खोटी नीयत कवि के लिए बर्दाश्त से बाहर की चीज है। वे कहते हैं-

मैं नरक के गलियारों तक
इस दुष्ट का पीछा करूँगा
‘आम आदमी’ का एक मात्र प्रवक्ता होने की
उसकी यह ढोंग मैं कभी बर्दाश्त नहीं करूँगा।

नामवर सिंह ने लिखा है कि “नागार्जुन की गिनती न तो प्रयोगशील कवियों के सन्दर्भ में होती है न ‘नयी कविता’ के प्रसंग में,फिर भी कविता में रूप संबंधी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किये हैं, उतने शायद ही किसी ने किये हों और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने स्तर हैं कि कोई भी अभिभूत हो सकता है. तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिन्दी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है.” उनका यह भी मानना है कि ‘व्यंग्य की विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है ।’

वस्तुत: नागार्जुन क्रान्ति के ढिंढोरची कवियों से भिन्न एक यथार्थवादी कलाकार हैं । उनकी कविता में सौंदर्यबोध के कई अछूते बिम्ब मिलते हैं । ’गरीब देश के धनिक’ कवि को ‘कोढ़ी-कुढ़ब तन पर मणिमय आभूषण’ की तरह दिखाई देते हैं, ‘मादा सूअर’ उसे ‘मादरे हिंद की बेटी’-सी लगती है, पूस-माघ की सुहावन धूप उसे ‘शिशु के गालों की सी मनहर’ प्रतीत होती है और अगरबत्ती की सुगंध के बजाए ‘बारूदी छर्रे की खुशबू’ उसे लुभाती है । इनसे बिलकुल अलग मिज़ाज की नागार्जुन की कई कविताओं में हम भारतीय काव्य-परम्परा के वैभव से परिपूर्ण क्लासिकी बिम्ब विधान देखते हैं जिनमें आधिभौतिक अनुभूति और पारदर्शी अभिव्यक्ति के बाह्यान्तर योग से कला की सिद्धि संभव हुई है :

‘दुर्गम बर्फानी घाटी में / शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले / निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-हो कर / तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है ।’

याद आ सकते हैं तोल्स्तोय जिन्होंने कला को ‘मानव जीवन की एक इन्द्रिय माना है, जो मनुष्य के विवेकयुक्त बोध को भाव में संप्रेषित करती है.’

आधुनिक युग में लगभग यह मान लिया गया था कि मध्यकाल में ‘दोहा’ जैसे काव्यरूप में भक्ति, नीति एवं शृंगार विषयक कविता उस हद तक लिखी जा चुकी है कि उसमें कुछ नया कहना असंभव है । पर इस पुराने काव्यरूप में ‘शासन की बन्दूक’ एवं ‘अन्न पचीसी के दोहे’ में नागार्जुनपन को देखकर कवियों-आलोचकों को सुखद आश्चर्य हुआ । इसी प्रकार रैदास के सुप्रसिद्ध पद ‘प्रभुजी ! तुम चन्दन हम पानी’ से मुखड़ा लेकर बाबा की अमरीकी राष्ट्रपति जानसन पर लिखित व्यंग्य कविता पारंपरिक रूप एवं आधुनिक अंतर्वस्तु के बीच आवयविक सम्बन्ध का एक श्रेष्ठ उदाहरण है । उनकी तमाम ऐसी कविताओं में संवाद की लय अन्तर्निहित है जिससे कविता में एक विलक्षण नाटकीयता उत्पन्न होती है और इसी वजह से ऐसी कविताएँ हमारी ज़बान पर बड़ी आसानी से चढ़ जाती हैं । इस दृष्टि से ‘इस गुब्बारे की छाया में’ कविता खास तौर से रेखांकन के योग्य है । संभवत: इसीलिए डॉ.रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य’ का विरल कवि कहा है ।

नागार्जुन के कवि को अपने समय के राजनीतिक तापमान का गहरा एहसास रहा है। उनके विभिन्न काव्य-संग्रहों में उपलब्ध राजनीति विषयक अनेक कविताओं से गुजरते हुए उनकी काव्य-ऊर्जा को महसूस किया जा सकता है। पर सवाल यह उठता है कि नागार्जुन की ऐसी कविताओं के आधार पर ‘राजनीतिक कविता’ की कोई खास संकल्पना क्या निर्मित होती है या हो सकती है? कहना न होगा कि खास तौर से उनकी राजनीति विषयक कविताओं में “उबड़-खाबड़पन” ज्यादा है जिसके कारण कुछ कविताएँ काव्यत्मक प्रभाव की दृष्टि से कम सशक्त प्रतीत होती हैं । बावजूद इसके कवि का नैतिक साहस किसी भी शब्दकर्मी के लिए अनुकरण के योग्य हो सकता है । जिस समय में पढ़े-लिखे लोग सामान्य विवाद से भी दूर रहने की रणनीति के तहत न्याय की पक्षधरता का दावा करने पर भी ऐन वक्त पर चुप्पी साध लेते हों, उसमें क्षेत्रीय व भाषाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ अपनी बुलंद आवाज उठाने से नहीं चूकते. ‘शिव सेना’ को ‘महाराष्ट्र का सबसे भारी रोग’ और ‘बाल ठाकरे’ को ‘बर्बरता की ढाल’ कहने की हिम्मत संभवत: अकेले नागार्जुन में थी। इस कविता में शब्दकर्मियों की बेबसी को रेखांकित करते हुए कवि कहता है : ‘चुप है कवि डरता है शायद खींच नहीं ले खाल ठाकरे ।’ बहरहाल, कहना यह है कि भारतीय समाज के एक खास समय की सामाजिक – राजनीतिक समस्याओं को कविता में पुनर्रचित करने के बावजूद उनके ऐसी तात्कालिक कही जाने वाली कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं ।

अभी हाल-हाल तक हिन्दी के प्रगतिशील कवि-लेखक भारतीय समाज में वर्ग-वर्ण के द्वैत अथवा द्वन्द्व को लेकर दुविधा की स्थति में थे। जबकि सच्चाई यह है कि इस चुनौती का सामना किये बगैर भारतीय समाज की संरचना की समझ तथा उनके यथार्थ-चित्रण का सवाल ही नहीं उठता। वर्ण-व्यवस्था व जाति-व्यवस्था हमारे समाज की एक सच्चाई है जिससे मुँह मोड़कर केवल वर्ग-आधार पर सामाजिक संघर्ष को अंजाम नहीं दिया जा सकता। इसी के साथ सच का दूसरा पहलू वर्ग से सम्बंधित है जिसे नज़रंदाज़ करना ऐतिहासिक भूल होगी ।

वस्तुत: हमारे समाज में कुछ अपवादों को छोड़ दें तो शोषित वर्ग एवं वर्ण में ज्यादा अंतर नहीं है। इस संदर्भ में थोड़ी गंभीरता के साथ विचारें तो स्पष्ट होगा कि भारत में धन, जाति और शिक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े दलित जाति के बहुसंख्यक लोग ही वास्तविक सर्वहारा हैं जिन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी है। अपने एक साक्षात्कार के क्रम में नागार्जुन इस वस्तविकता को अपने ढंग से स्वीकार करते हुए कहते हैं- “हम तो प्रतीक्षा में होंगे कि कोई ऐसी पार्टी निकले जो इन तमाम वामपंथियों से अलग हो और जिसका नेतृत्व शोषित वर्ग से उभरे।” इस संदर्भ में अंतिम बात यह है कि यदि सामाजिक आन्दोलन को केवल जाति या वर्ग के आधार पर चलाया जाता है तो उनके दिशा-विहीन होकर अराजक रूख अख्तियार कर लेने के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता। अत: इस मुद्दे को लेकर क्रांतिकारी नेतृत्व वर्ग को बहुत ही संतुलित तथा सतर्क रहना होगा। नागार्जुन अपनी ‘हरिजन गाथा’ कविता में उपेक्षित समुदाय के जिस नवजातक ‘कुलए’ की तदबीरों से भविष्य में शोषण की बुनियाद हिलने में विश्वास प्रकट करते हैं वह अतिवादी एवं अराजक नहीं बल्कि बहुत ही सूझ-बूझ वाला होगा-

सबके दुख में दुखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझ-बूझकर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा।

नागार्जुन के कवि का यदि अपने समय की तथाकथित संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कोई विश्वास नहीं रह गया था तो यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि आज के कठिन एवं त्रासद समय में हममें से ज्यादातर लोगों को सत्ता-व्यवस्था के प्रति कोई खास मोह नहीं है। इस व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर करते हुए जब हम कवि को समाज के सर्वाधिक पिछड़े तबके की कतार में खड़ा पाते हैं तो जाति-प्रथा की कोढ़ से ग्रस्त हमारे समाज की वर्गीय संरचना के बारें में उनकी समझ एवं पक्षधरता को अलग से रेखांकित करना अवश्यक हो जाता है। स्पष्टत: कवि की दृष्टि में दलित जाति के लोग ही मौजूदा व्यवस्था का नरक भोगने के लिए सर्वाधिक अभिशप्त हैं जिनके सर पर हमेशा अभाव का चाबुक लहराता रहता है :

“सुखी हैं चाटुकार
मगर मस्त हैं लबार
जिनके हित दिल्लीगत त्रिविधतापहारी
लहू की फेंके थूक
मरे शूद्र शंबूक
खेले क्रिकेट राम योजना बिहारी
स्वर्ग है पार्लमेण्ट
करता है बहुमत जनहित की चांदमारी।”

विडम्बना यह है कि समाज में, देश में जिनकी बहुमत है उनके हितों के विरूद्ध संसद में रोज-ब-रोज तथाकथित बहुमत से निर्णय लिए जा रहे हैं, क्योंकि संसद में एक तो उनके सच्चे प्रतिनिधि कम हैं और यदि कभी एकाध होते भी हैं तो उनकी राय नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। ऐसी स्थिति में यदि कोई जनकवि संसद को कब्रा में दफना देने की बात करता है तो कविता में लोकतांत्रिक मूल्यों, कलात्मक अनुशासन एवं संयत आवेग की दुहाई देकर उसके काव्य-विवेक पर अंगुली उठाना कहीं से उचित नहीं होगा। ग्राम्शी की शब्दावली में कहें तो नागार्जुन ‘राजनीतिक प्रणाली’ के कवि नहीं, ‘नागरिक प्रणाली’ के अविचल जनवादी रचनाकार हैं। तभी उन्हें यह कहने में संकोच नहीं हुआ :

‘होंगे दक्षिण, होंगे वाम, जनता को रोटी से काम।’