जनता दरबार / शम्भु पी सिंह

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"का रे भीखू! कब तक तुम इस झोपड़ी में सड़ता रहेगा रे!" मुखिया के पति विकास बाबू की इसी पुकार ने आज भीखू को कहीं का नहीं रहने दिया। कल तक वही झोपड़ी वाले घर में अपने बीबी बच्चों के साथ खुहाल था। आज सरकारी पैसे से छोटा-सा मकान तो बन गया, लेकिन मेहरारू के बिना मकान श्मशान जैसा ही लगता है। विकास बाबू से अब उसकी कोई शिकायत नहीं रही। जब उसकी मेहरारू ही उसके पास नहीं आना चाहती, तो उनका क्या दोष! बड़े लोग हैं, दस औरत रखेंगें। औकात है उनकी। उनकी मेहरारू मुखिया है। ताकतवर हो गयी हैं। मंत्री-संतरी के साथ घूमती रहती हैं। विकास बाबू भी बेचारे क्या करें। उनकी मेहरारू कौन-सा उनका ख्याल रखती हैं। तभी तो औरत के लिये मारे-मारे फिरते हैं। दो साल पहले भी तो एक गरीब की झोपड़ी में रात बारह बजे घुस गये थे। चोर-चोर का हल्ला हुआ! पकड़े भी गये। जब लोगों ने पहचान लिया तो पिटने से बच गये। लोग करे भी तो क्या मेहरारू ताकतवर मुखिया है! इलाके में तूती बोलती है। दरोगा साहब तो रोज सलाम बजाने उनके दरवाजे आते हैं। साल।छः महीना में जिला बाबू और कभी।कभी मंत्री लोगों का आना जाना होता ही रहता है। ये सब तो ठीक है! बड़े लोग हैं, दस बीबी रख लें। लेकिन पूरी दुनियाँ में रखने के लिए सिर्फ उसकी मेहरारू ही मिली। क्या करे ससुरी हइयो है बहुतै ही खूबसूरत। बदसूरते होती, तो ज्यादे बढ़िया था। कम से कम उसके साथ तो रहती। सोचते-सोचते भीखू रूआंसा हो जाता। तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। ससुरी गयी, तो इन तीन पिल्लों को भी साथ ले जाती। लेकिन बेचारी वह करे भी तो क्या! विकास बाबू बच्चा लेके क्या करेंगें। ससुरी का तो देह नोच कर खाते होंगें! ई साला तीनों तो उन्हें ही नोच खायगा।

"का हो भैया! गेले न मुखिया के दरवाज्जे" छोटे भाई रोहन की आवाज ने उसकी निद्रा तोड़ी।

"ना हो आज त न गेली हय! कल गेल रही। तोर भौजाई कहलवा भेजलक कि तोरा संगे रहला से हमरा का भेटल! दो जून चार ठो रोटी त मिलवे न करैत रहै! तू जा अब हम यहीं मुखिया जी के ड्योढ़ी पर जीवन बिता देव!" भीखू निराश हो चुका था।

"ई तोहरा से के कहलक!" रोहन तैश में था।

"कहलक त विकास बाबू! लेकिन ई तोर भौजाई के बात रहलक" भीखू को जैसा बताया गया था, हूबहू उसने वैसा ही कहा।

"झूठ! बिल्कुल झूठ! हमनी सब उनके राज में वसैत हति का! ई सब उ विकसवा के करावल हो भैया। भौजाई को गलत न समझो।" रोहन को तनिक भी यकीन न था कि उसकी भौजाई ऐसा कह सकती है।

"भैया तू एक काम करॅ! साफ-साफ तू मुखिया से बता द कि तोहर पति के नीयत ठीक नइखे!"

"हाँ बतैले रहि! उहो कहलखिन कि तोरा का दिक्कत हवो। झोपड़ी से पक्का मकान बनवा दिये है, रहो आपन बच्चा के साथ। कुछेक दिन बाद तोहर मेहरारू भी तोहरे पास चल जायगी। का करी रोहन खेतो पथारी त सब उनकरे हवो न।" भीखू चाहकर भी मुखिया के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

"भैया तू एक काम करऽ! सुनली ह कि आजकल सभै लोग जनता दरबार में आपन गुहार रख सकी। तू चल जा कलेक्टर बाबू के जनता दरबार में। सरकारो के आदेश हवो कि कोय कोनो समस्या वहाँ रख सकत है।"

"हमनी कॅ बात के सुनी रोहन!" भीखू को तनिक भी उम्मीद न थी कि जनता दरबार में उसकी सुनवाई होगी।

"सुनि कैसे न! सरकार के आदेश हवऽ!" रोहन चौक चौराहों पर लोगों के बीच चर्चा से इस बात से भिज्ञ था कि जिलाधिकारी साहब के जनता दरबार में सबकी सुनवाई होती है।

"ठीक हवो! इहो करिके देख लै हति!"

दरअसल भीखू अंदर से विकास बाबू का खुलकर विरोध करने की स्थिति में नहीं था। जब कच्चे मकान को पक्का बनाने का प्रस्ताव लेकर विकास बाबू आये थे, तभी उसने साफ कह दिया था कि तुम्हारा मकान पक्का तो बन जायगा, उसके बदले में कुछ दिनों के लिये आपन मेहरारू को मुखिया जी की सेवा में रहने देना। यह अलग बात है कि मुखिया शायद ही अपने घर में नजर आती हैं। तो मुखिया के पति ने अपनी सेवा में उसकी बीबी को रखा हुआ है। घर-बार की देखभाल खातिर। सरकार का नया कानून न आया होता तो विकास बाबू कभी अपनी बीबी को मुखिया बनने ही न देते। मजबूरी बस पत्नी को मुखिया में खड़ा करना पड़ा। बड़े लोग हैं, जीतना तो था ही। पिछली सरकार में तो अभी से ज्यादा तूती बोलती थी। जात-बिरादरी की सरकार थी! भला किसकी हिम्मत थी विरोघ करने की। अभी तो बहुत हद तक कानून का शासन हुआ है, फिर भी पुराने रईस हैं, जाते-जाते भी वर्षों लगेंगे।

भीखू को कलेक्टर के जनता दरबार की बात पसंद आयी। सोचा यह भी आजमा कर देख ही लेते हैं। सभी अन्यायी थोड़े ही होता है। आखिर उनकी भी तो मेहरारू होगी। उनकी मेहरारू को कोई जबरदस्ती अपने घर रख ले, तो वह भी चुप थोड़े ही बैठेंगे। फिर सोचता कि चलो अपनी तो किसी तरह कट ही जायगी। चालीस पार हो ही चुका है! दस बीस साल किसी तरह और जीना है। न भी मेहरारू रहे, तो भी कोई बात नहीं। कौन-सा साली रोज साथ में सोती थी। बच्चों को लेकर एक किनारे पड़ी रहती। उसका भी क्या दोष! वह बार।बार शराब पीकर आने को मना करती, लेकिन क्या करें दिन भर खेत में काम करने के बाद शाम में थोड़ी-सी ठर्रे की लत लग ही गयी है। शराब के नशे में लड़खड़ाता देख ससुरी का दिमाग सातवें आसमान पर चला जाता। साथ क्या सोने देगी! कभी-कभी तो खाना भी नहीं देती थी। सोचते-सोचते भीखू करवटे बदलने लगता। फिर सोचता साली सच में ऐसा तो नहीं कि विकास बाबू का साथ ही उसे अच्छा लगने लगा हो। भई! हो भी सकता है। अच्छा खाना! अच्छा पहनना! अच्छी बातें! विकास बाबू का साथ! छिः कैसी-कैसी बातें आज उसके दिमाग में आने लगी है। ऐसी औरत नहीं है वह! हम गरीब जरूर हैं, लेकिन हमारी अपनी इज्जत है। वह पैसे वाले हैं तो क्या हुआ, अपनी औरत को तो संभाल नहीं पाते। आज यहाँ तो कल वहाँ। आज इसके साथ तो कल उसके साथ। ऐसे लोग भी इज्जतदार कहलाते हैं! जिनके पास इज्जत नाम की कोई चीज नहीं। सोचते-सोचते भीखू को कब नींद आ गयी पता ही न चला। जब सुबह हुई तो पौ फट चुका था। जिला कलेक्टर से भी मिलने जाना था। इसलिये जल्दी-जल्दी तैयार हो भीखू चल पड़ा जनता दरबार में।

भीखू के जनता दरबार में जाने की बात जंगल में आग के तरह फैल गई। विकास बाबू ने तो ये सपने में भी न सोचा था। दूसरा कोई चारा न देख भीखू की पत्नी को साथ ले उसके घर की ओर चल पड़ा। भीखू के दरवाजे पर आते ही उसे आवाज लगायी। भीखू तो जा चुका था। आवाज सुनकर रोहन बाहर निकला।

"का रे! आजकल बड़ा पंख लग गया है रे! मेरी शिकायत करने भाई को भेज दिया है जनता दरबार! का बिगड़ जायगा मेरा। ले अपन भौजाई को संभाल! साला मकान बनवा दिया। रोजगार दे दिया। उल्टे हमीं पर घौंस जमा रहा है।" पैर पटकते हुए विकास बाबू वापस हो गये।

रोहन अपने भौजाई को एकटक निहार रहा था। जो एक बुत बनी खड़ी थी।

"चलो घर चलो भाभी।" भाभी की स्थिति देख कुछ-कुछ समझ में बात आने लगी थी। घर के अंदर दोनों देवर-भाभी में जो बातें हुई। रोहन बर्दाश्त न कर पाया और हाथ पकड़कर घसीटते हुए अपनी भाभी को ले चल पड़ा, वह भी जनता दरबार की ओर। रास्ते भर दोनों में कोई बात नहीं हुई।

दरबार में काफी भीड़ थी। भीखू की बारी आ चुकी थी। एक सिपाही भीखू से कुछ पूछ रहा था। तभी पता चला कि कुछ देर के लिये सी. एम. साहब भी आ रहे हैं। इसी रास्ते से उन्हें गुजरना है। तो कुछ देर जनता दरबार में भी शिरकत करेंगें। सी. एम. के आने की खबर सुन, सभी कारिंदो में अफरातफरी मची थी। कलेक्टर साहब जनता दरबार में आये लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उनके एक ओर ए.डी.एम और दूसरी ओर एस.पी. महोदय भी बैठे थे। मंच पर कुछ जनप्रतिनिधि भी नजर आ रहे थे। एक सिपाही ने भीखू को आवाज लगायी और वह मंच की ओर बढ़ा तभी पुलिस सायरन के साथ कई गाडि़यों का काफिला समाहरणालय में प्रवेश किया। एक गाड़ी से सी.एम. साहब उतर कर सीधे मंच की ओर बढ़े। कलेक्टर सहित मंच पर आसीन सभी लोग खड़े हो गये। सी.एम. साहब ने कुर्सी संभाली और सभी को बैठने का इशारा किया। भीखू सर झुकाये मंचके पास खड़ा था।

"आपलोग अपनी कार्यवाही जारी रखिये। मैं इधर से गुजर रहा था, तो पता चला कि अभी यहाँ जनता दरबार लगी हुई है तो अपने आपको रोक नहीं पाया। जमीन का आदमी हूँ। जनता से जुड़ा रहना अच्छा लगता है।" तब तक सी.एम. साहब की नजर भीखू पर पड़ी।

"इनकी क्या समस्या है?" सी. एम. जानना चाहते थे।

"जी इनकी समस्या से मैं वाकिफ हूँ सर! मैं इसे साल्व कर देता हूँ।" अचानक ए.डी.एम. साहब आगे आकर भीखू को अलग ले जाने लगे।

"रूक जाइये सर" पीछे से रोहन चिल्ला पड़ा।

"इनकी समस्या का समाधान सी.एम और जनता के बीच होगा। अलग ले जाकर नहीं।" रोहन के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सभा में मौजूद हर कोई हक्का-बक्का था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। फिल्मी पर्दे की कहानी जैसी घटनायें और पात्र नजर आ रहे थे।

"आप कौन हैं?" सी. एम. ने दखल दी।

"जी! मेरा नाम रोहन है और ए.डी.एम. साहब, जिसे अलग से ले जा रहे हैं वह मेरे बड़े भाई भीखू हैं और मेरे साथ जो महिला खड़ी हैं वह मेरी भाभी यानी भीखू की पत्नी हैं। इनका नाम रोशनी है।" रोहन इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था।

"तुम्हारी समस्या क्या है?" सी.एम. की उत्सुकता बढ़ी।

"मेरे गाँव के मुखिया रामावती देवी के पति विकास बाबू से भैया ने सरकारी खर्चे से मकान बनावे खातिर गुहार लगाये थे। मकान तो बनवा दिये, लेकिन ओकर बदले में दो महीना से मेरी भाभी को अपने पास रखे हुए थे और कहते हैं कि ये अपना घर नहीं जाना चाहती है। तीन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ भला एक औरत कैसे अलग रह सकती है। आज जब भैया आपन पत्नी के छोड़ावे खातिर जनता दरबार में आये, तो विकास बाबू मेरी भाभी को मेरे घर पहुँचा दिये। सर! पूछिये इस औरत से कि पिछले दो महीने में इसके साथ क्या-क्या हुआ? यह भी पूछिये कि इस खेल में कौन।कौन शामिल हैं ये जो साहब! भैया को अलग ले जाकर बात करना चाहते हैं और इस जनता दरबार के मसीहा हैं वह भी। पूछिये इस औरत से कि इनलोगों ने क्या-क्या किया इसके साथ!।" चिल्लाते-चिल्लाते अचानक रोहन रोने लगा। दरबार में पूरी तरह सन्नाटा छा चुका था। जो जहाँ था वहीं से एक टक कभी उस औरत को तो कभी सी.एम. के चेहरे के बदलते भाव को देख रहा था। कहीं से कोई आवाज नहीं। बस! बीच।बीच में रोहन के सिसकने की आवाज आ रही थी। भीखू और उसकी पत्नी दोनों एक दूसरे को देख बुत से बने खड़े थे।

सी.एम. साहब उठ खड़े हुए। "एस.पी. साहब! इस औरत से बात करिये! जो भी दोषी है उसे अभी गिरफ्तार कर जेल भेजिये और बंद करिये ये जनता दरबार का तमाशा! आपलोग जनता के रहनुमा नहीं शोषक हैं।" सी. एम. साहब पुनः कुर्सी पर बैठ गये। दरबार से लोग खिसकने लगे। सी.एम. दोनों हाथों से अपना सर दबाये खाली होते दरबार का नजारा देखने को विवा थे। भीष्म पितामह की तरह किंकर्त्तव्यविमूढ़ एक द्रौपदी के अदृय चीरहरण का साक्षी बन चुके थे। अपने अगल-बगल दुर्योधनों-दुःशासनों की पूरी टीम नजर आ रही थी और सत्ता से बंधे रहने की भीष्म प्रतिज्ञा भी।