जनपदीय प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति / महेश चंद्र पुनेठा

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नागार्जुन
जनपदीय प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति

नागार्जुन की कविताएं जितनी अपने राजनीतिक व्यंग्य, प्रतिहिंसा, प्रतिरोध, आक्रोश के लिए जानी जाती हैं, अपने जनपदीय प्रेम, सरल मानवीय संवेदनाओं और कोमल राग के लिए उससे कम नहीं। नागार्जुन, पूरी दुनिया उसमें रहने वाले मनुष्य और उसकी प्रकृति को प्रेम करने वाले कवि हैं और ऐसा वे इसीलिए कर पाए क्योंकि वे अपनी धरती-अपने लोगों से प्रेम करते हैं। अपनी धरती के लिए उनके मन में उत्कट प्रेम भरा है। अपनी धरती-अपने लोगों से प्रेम करने वाला व्यक्ति ही प्राणिमात्र से प्रेम कर सकता है। प्रेम का बिरवा अपनी धरती से फूट ही कर पूरी दुनिया में फैलता है। जो अपने जन और जनपद से लगाव नहीं रखता उससे शेष दुनिया से लगाव की आशा नहीं की जा सकती। जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है, “जिन्हें अपने देश और धरती से वास्तविक प्रेम होगा, उन्हें उसकी प्रकृति - पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा। सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा, सबकी सुध करके वह विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो आँख भर यह भी नहीं देखते कि आम प्रणय सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हैं, जो यह भी नहीं जानते कि किसानों की झोपड़ियों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का पत्र्ता लगाकर देश-प्रेम का दावा करें तो उनसे यह पूछना चाहिए -भाइयो, बिना परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके सुख-दुख में तुम कभी साथी न हुए, उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, तो यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ मत घसीटो। प्रेम हिसाब-किताब की बात नहीं है। हिसाब-किताब करने वाले भाड़े पर मिल सकते हैं। पर प्रेम करने वाले नहीं।” हम पाते हैं कि बाबा नागार्जुन के संदर्भ में आचार्य शुक्ल की अपने देश और धरती से वास्तविक प्रेम की यह बात पूरी-पूरी तरह लागू होती है।

नगार्जुन की जन्मभूमि मैथली है। मगर उनके दिल में केवल मैथली, केवल बिहार, केवल सारे देश के लिए ही नहीं, बल्कि सारी पृथ्वी के लिए नागरिक के उत्तरदायित्व का भाव मिलता है।

नागार्जुन अपनी धरती, उसकी प्रकृति और वहाँ के जन को कितना चाहते हैं उनकी अनेक कविताओं में देखा जा सकता है। पर ’बहुत दिनों के बाद’ कविता में यह प्रेम अपनी पूरी सघनता एवं संश्लिष्टता के साथ व्यक्त हुआ है। इस कविता को पढ़ते हुए मुझे बार-बार ’दागिस्तान’ के कवि रसूल हमजातोव के ये शब्द याद आते हैं कि निश्चय ही हम कवि सारी दुनिया के लिए उत्तरदायी हैं, मगर जिसे अपने पर्वतों (जमीन) से प्यार नहीं, वह सारी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। मुझे तो वह उस आदमी जैसा लगता है जो अपना घर-घाट छोड़कर किसी दूसरी जगह चला जाए, वहाँ शादी कर ले और सास को माँ कहने लगे। मैं सासों के खिलाफ नहीं हॅू, मगर अपनी माँ को छोड़कर कोई दूसरी माँ नहीं हो सकती। दूसरी की माँ का सम्मान वही व्यक्ति कर सकता है जो अपनी माँ का सम्मान करना जानता हो। उनकी यह मान्यता बहुत महत्वपूर्ण है कि सागर तक पहुँच जानेवाली, अपने सामने असीम नीला विस्तार देखने और उस महान नीलिमा में घुलमिल जाने वाली नदियों को ऊँचे पहाड़ों में उस चश्मे को नहीं भूल जाना चाहिए, जिससे धरती पर उसका पथ आरम्भ हुआ। उस पथरीले, संकरे, उबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्ते को भी नहीं भूल जाना चाहिए, जो उसे तय करना पड़ा। अपनी जमीन के प्रति नागार्जुन का प्रेम कुछ उसी तरह का रहा जैसा रसूल हमजातोव का ’ दागिस्तान’ से। अपनी जमीन से चाहे जितने दूर रहे परंतु कभी उसे भूले नहीं। घर से दूर जाकर उन्हें न केवल अपने स्वजन याद आते रहे बल्कि शस्य -श्यामल मिथिलांचल भी खूब याद आता रहा। विविध रूपों में वह उन्हें याद आती रहा। अपनी धरती के प्रति वे एक किसान की तरह का लगाव रखते हैं। किसान तमाम अभावों के बावजूद अपनी जमीन से दूर जाना पसंद नहीं करता है। यदि उसे किसी मजबूरी में जाना भी पड़ता है तो उसे अपना गाँव, उसके खेत-खलिहान रह-रह कर याद आते हैं। कुछ इसी तरह का मन हम नागार्जुन का भी देखते हैं जब वह कहते हैं- याद आता मुझे अपना वह तरउनी ग्राम / याद आती लीचियाँ, वे आम / याद आते मुझे मिथिला के रूचिर भू-भाग / याद आते धान / याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान / याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के / रूप -गुण -अनुसार रक्खे गए वे नाम / याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम। ओह यद्यपि पड़ गया हूँ दूर उनसे आज / हृदय से पर आ रही आवाज / धन्य वे जन, वही धन्य समाज (सिंदूर तिलकित भाल) किंतु अपने देश में तो / सुमुखि, वर्षा हई होगी एक क्या, कै बार / गा रहे होंगे मुदित हो लोग खूब मलार / भर गई होगी अरे वह वाग्मति की धार / उगे होंगे पोखरों में कुमुद पद्म मखान (ऋतु-संधि)

उनकी बहुचर्चित कविता ’बहुत दिनों के बाद’ की शुरूआत कुछ इस तरह होती है- बहुत दिनों के बाद /अब की मैंने जी भर देखी /पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान /बहुत दिनों की बाद। एक किसान-मन कवि ही पकी फसलों में सुनहली मुस्कान देख सकता है। ’फसलों का मुस्कराना’ प्रकृति का कितना सुदंर मानवीकरण है। इसे पढ़ते हुए पाठक का मन भी मुस्कराने लगता है। सामने लहलहाती फसल खड़ी हो जाती है। यहाँ ’पकी सुनहली फसलों की मुस्कान’ न केवल एक दृश्य को आँखों के समाने प्रस्तुत कर देती है बल्कि अर्थ की व्यापकता को व्यंजित करती है। यह मुस्कान उस किसान के चेहरे की मुस्कान है जिसके चेहरे में पकी फसल देख एक प्रसन्नता उतर आई है। यह कवि की आकांक्षा का प्रतिबिंबन है जो फसल में होता है। वह किसान के चेहरे में मुस्कान देखना चाहता है। यह तभी संभव है जब खेत में पकी फसल लहलहा रही हो। इस तरह इस चाहत में कहीं न कहीं किसानों की समृद्धि की कामना छुपी है। जब फसल अच्छी होगी तब ही ’धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान’ सुनी जा सकती है- बहुत दिनों की बाद/अब की मैं जी भर सुन पाया /धान कूटती किशोरियों की/कोकिल-कंठी तान /बहुत दिनों के बाद। धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान सुनने की अभिलाषा वही रख सकता है जो श्रम पर आस्था रखता हो। संगीत का आनंद भी नागार्जुन क्रियाशील जीवन में ही पाते हैं। श्रम करते हुए लोगों में। किसान जीवन से जुड़ी चीजों में ही वे आनंद पाते हैं। कितनी बड़ी बात है कि कवि श्रम से पैदा संगीत को सुनने की इच्छा ही व्यक्त करता है। उस संगीत को जो क्रियाशीलता और सामूहिकता की उपज हो, किसी सुर साम्राज्ञी के कोकिल-कंठ से निकले एकल गायन की तान को नहीं। गर कवि ऐसा कहता कि वह किसी किशोरी के कोकिल-कंठी तान को सुनना चाहता है तो उससे कविता में एक अभिजात्य पैदा होता। यह एक जनकवि की विशेषता है, वह एकल संगीत की अपेक्षा सामूहिक संगीत को ही अधिक पसंद करता है। बंद कमरों में साज-बाज के साथ बैठकर गाया जाने वाले संगीत की अपेक्षा खेतों-खलिहानों -खादानों में श्रम करते हुए फूटा संगीत उसे अधिक पसंद आता है। जन कवि केवल वही नहीं होता है जिसकी कविता जनता के कंठ में बस जाती है बल्कि वह भी जन कवि ही है जिसके कंठ में जनता बसी होती है-जनता के दुःख-दर्द, हर्ष-विषाद, आशा-आकांशा और उसके आसपास का परिवेश।

इस कविता की ’बहुत दिनों के बाद’ पंक्ति से ध्वनित होता है कि जैसे कवि के मन में बहुत दिनों से पकी फसल की मुस्कान देखने, धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान सुनने की, मौलश्री के ढेर-ढेर से ताजे टटके फूल सूँघने, गंवई पगडंडी की चंदन वर्णी धूल छूने, ताल-मखाना खाने, गन्ने चूसने आदि की तीव्र लालसा छुपी है। ये कुछ चीजों को पाने की इच्छा मात्र नहीं है। एक उत्कट अभिलाषा इससे व्यक्त होती है, एक प्यास और एक तड़प अपनी जमीन और अपने जन तक पहुँचने की। जैसे कवि इस दिन की प्रतीक्षा में बैठा हो। इस कविता में अपनी जमीन, प्रकृति और जीवन से उनका लगाव कुछ वैसा ही दिखाई देता है जैसा एक किसान या जनपद में गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति के भीतर दिखाई देता है जो अपने जनपद का स्पर्श पाकर उल्लसित, प्रफुल्लित हो उठता है। कहीं भी कवि प्रकृति की निकटता पाता है तो उसे अपना जनपद याद हो आता है। कुछ उसी तरह जैसे प्रेम में पड़ा कोई व्यक्ति कहीं भी कोई प्रणय व्यवहार देखता है तो उसे अपना प्रेम-पात्र याद हो आता है। ऐसा केवल सच्चा प्यार करने वाला ही महसूस कर सकता है। जनपदों का स्पर्श पाने के लिए कवि हमेशा लालायित रहता है। नागार्जुन को जो आनंद अपने जनपद-अपने गाँव लौटकर मिलता था वह अन्यत्र कहीं नहीं। शेष दुनिया के रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श से वे कभी संतुष्ट नहीं हो पाते थे। एक अधूरापन महसूस करते थे तभी तो लंबे प्रवास के बाद अपने गाँव लौटते हैं तो एक तृप्ति के भाव से कह उठते हैं - बहुत दिनों के बाद /अबकी मैंने जी-भर भोगे/गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू-पर /बहुत दिनों के बाद। अर्थात अब तक मैंने जो भी भोगा आधा-अधूरा ही था। अकेला-दुकेला ही था। इस सब को साथ-साथ और जी भर भोगने का सुवअसर अपने गाँव आकर ही मिला। ऐसा नहीं कि ये चीजें जो कवि ने भोगी शेष दुनिया में मौजूद नहीं थी पर यह उनकी अपने गाँव-जवार से आत्मीयता और रागात्मकता का परिचायक है। यही भावबोध है जो किसी भी व्यक्ति को अपनी प्रकृति-समाज-जन से दूर नहीं होने देता है। उसको एक-दूसरे से जोड़े रखता है। ये ही है जो अपने देश से सच्चा प्रेम करना सीखता है। इसके अभाव में देशप्रेम या मातृभूमि से प्रेम की बात करना कोरी बकवास है।

देखिए ना ! एक जनकवि अपने जनपद लौटने पर क्या स्पर्श करता है- बहुत दिनों की बाद/अब की मैं जी भर छू पाया /अपनी गंवई/पगडंडी की चंदन वर्णी धूल /बहुत दिनों की बाद। ये यूँ ही नहीं है किसी कर्मकांड की तरह, बल्कि कवि जानता है कि यह उस किसान-मजदूर के चरणों की धूल है जो अपने श्रम से एक नए संसार का निर्माण करते हैं, नए सौंदर्य की सृष्टि करते हैं। पकी सुनहली फसलों में जो मुस्कान है वह इनके ’रग-रग के शोणित की बूँदों’ का ही फल है। नए गगन में नए सूर्य को चमकाने, विशाल भूखंड को महकाने वाले यही हैं। यही हैं ’भीनी-भीनी खूशबूवाले रंग-विरंगे फूल खिलाने वाले। वे मन ही मन प्रणत हैं इनकी उद्यमशीलता के प्रति, उनकी फलित मेधा के प्रति जो फसल के पकने के रूप में दिखाई देती है।उनका लोहा मानते हैं। बाबा नागार्जुन ने कभी किसी राजपथ की धूल के स्पर्श की इच्छा व्यक्त नहीं की। उनका मन तो हमेशा गाँव और उसके जन के बीच ही रमा। वे जहाँ भी घूमने गए वहाँ उनको सबसे अधिक आकर्षित गाँव की प्रकृति और समाज ने ही किया।

कैसी अद्भुत बात है उन्हें धूल भी ’चंदनवर्णी’ लगती है। इन पंक्तियों को लेकर वरिष्ट आलोचक शिवकुमार मिश्र की बात बहुत सटीक है, “लंबे प्रवास के उपरांत अपने गाँव-घर लौटे हुए कवि का अपनी गंवई -पगडंडी पर पैर रखते ही इस अहसास से भर उठना कि - अबकी मैं जी भर छू पाया, अपनी गंवई पगडंडी की चंदन वर्णी धूल बहुत दिनों के बाद ’ - अपनी धरती से नागार्जुन के संवेदनात्मक रिश्ते का ऐसा साक्ष्य है जिसे वे ही समझ सकते हैं जो सचमुच उस मिट्टी से एकरूप है, या हो सके, वे नहीं, जिन्हें अपनी भारतीय पहचान के लिए वेद, उपनिषद और गीता आदि का सहारा लेना पड़ता है।” कविता में आगे आता है- बहुत दिनों की बाद/अब की मैंने जी भर ताल-मखाना खाया /गन्ने चूसे जी भर /बहुत दिनों की बाद। यहाँ कवि के जी-भर ताल मखाना खाने और गन्ना चूसने की अदा भी अनूठी और दिलकश है। वह सुस्वादिष्ट व्यंजनों को खाने की बात नहीं करता बल्कि कहीं ’सिके हुए दो भुट्टे’ तो कहीं ’ताल मखाना’ की बात करता है। कोई भी इच्छा ऐसी नहीं है जो अभिजात्य हो। यह उनकी सादगी, सरलता, किसानीपन, गँवईपन का प्रमाण है। जी -भर देखना, जी-भर सुनना, जी-भर सूँघना, जी-भर खाना, जी-भर चूसना, जी-भर भोगना... सब कुछ जी-भर... कुछ भी आधा-अधूरा नहीं। ऐसा तो केवल प्रेम में ही होता है। सारी इंद्रियों से भोगने की इच्छा केवल प्रेम करने वाला ही रखता है। इन स्थलों पर कविता प्रेम की उद्दात्ता को प्रकट करती है। प्रेम करना है तो जी-भर और किसी से घृणा करनी है तो वो भी जी-भर... बीच का कुछ नहीं। यह थी जनकवि नागार्जुन की विशिष्टता जो इस कविता में भी पूरी-पूरी प्रतिबिंबित हुई है।

इस कविता में भरपूर सौंदर्य है। कवि का प्रकृति-प्रेम उल्लसित एवं तरंगित कर देता है। चित्रों और बिंबों के माध्यम से कवि अपने पूरे भावबोध को व्यक्त कर देता है। अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं करता है। कविता कवि और पाठक के बीच स्वाभाविक संबंध सेतु बना देती है। इस कविता की प्रगीतात्मकता रेखाकिंत करने योग्य है, जिसके कारण कविता ज्यादा प्रभावशाली हो गई है। शब्द-समूहों की आवृत्ति से कविता में गहराई तथा लय पैदा करते हैं। यह इनकी काव्य शैली की विशिष्टता है। प्रस्तुत कविता में ’बहुत दिनों के बाद’ की बार-बार आवृत्ति से कविता में एक नया आस्वाद पैदा हो जाता है। भाव की तीव्रता बढ़ जाती है। इस कविता में कवि की गहरी ऐंद्रियता और सूक्ष्म सौंदर्यदृष्टि का अहसास होता है। इस कविता के संबंध में गीतकार नचिकेता का कहना है, “ इस कविता की संरचना में गीतात्मक सघनता, आकारगत संक्षिप्तता और अनुभूति-प्रवणता है। अगर यह कविता गेय और संगीतात्मक लय-छंदों में आबद्ध होती तो क्लासिक गीत का दर्जा हासिल कर लेती। वैसे यह अभी भी उनकी क्लासिक और कालजयी कविताओं में शुमार है।” इस बात का समर्थन करने में मुझे बिल्कुल भी हिचक नहीं है। यह इस कविता का सटीक मूल्यांकन कहा जा सकता है।