जनसाधारण के दुःख का बयान /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मैं अयोध्या श्री हरेराम 'समीप' की 42 कविताओं का संग्रह है। आज की आपाधापी में कविता के अर्थ बदल गए हैं। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा की कविता घर-घर तक पहुँचती थी क्योंकि उसमे जीवन की आवाज़ होती थी। समय बदला, कविता के प्रतिमान बदले, आदमी बदले आदमी के दुःख-दर्द को स्वरूप देने वाले साधन बदले आदमी गौण हो गया, साधन प्रमुख हो गए. आदमी की तकलीफ़ कहीं दूर गहरे में दफ़्न हो गई. हरे राम 'समीप' की कविताएँ उसी दफ़्न तकलीफ़ का बयान हैं। वह तकलीफ़ 'मैं अयोध्या' की है तो कहीं वह तकलीफ़ 'सत्येन' की है कहीं 'स्वर्ग में जीवन नहीं होता' की है। 'मैं अयोध्या' में झुलसता हुआ आम आदमी है; प्रश्नाकुल एवं असहाय तो सत्येन में अभावों से जूझता वह संतप्त व्यक्ति है जिसकी सारी शक्ति पेट के गड्ढे को भरने में ही चुक जाती है। उसके व्यक्तित्व को कवि ने इस प्रकार रूपायित किया है-
उसका तमतमाता चेहरा / जैसे जेठ की दोपहरी में
दमकता सूरज /
जैसे / हिमालय के नीचे / धधकता एक ज्वालामुखी
जैसे / बर्फ़ीले इलाके में / एक गर्म चश्मा
किसको कितनी आज़ादी मिली है, क्या काम करने की आज़ादी मिली है; यह विचारणीय है। इस सन्दर्भ में सत्येन का यह कड़वा सच इस दौर की त्रासदी ही कहा जाएगा-
क्या तुम्हें नज़र नहीं आता / कि हमारी आज़ादियाँ दरअसल
सेठों, नौकरशाहों और राजनेताओं ने / अपनी अंटी में बाँध ली हैं।
समाज में बहुत परिवर्तन हुआ है। बहुत कुछ बदल गया है; परन्तु इंसानी रिश्ते आज भी जिन्दा हैं। 'योगफल' कविता गाँव के बारे में यही सन्देश देती है-
प्रेम और उपकार का भाव
बरसों से / आम और नीम के पेड़ों की तरह
आज भी हरा है यहाँ
कवि अपने गाँव में आशा की एक किरण देखता है जो पूरी इंसानियत के लिए एक उजाला है-
मेरा गाँव / उजाले की एक खिड़की है
जहाँ से दिखता है / दुनिया का बेहतरीन नज़ारा
एकदम साफ-साफ
'पूजा' कवि के अनुसार यदि किसी दुख में डूबे किसी व्यक्ति के कंधे पर हाथ भी रख दिया तो वह किसी पूजा से कम नहीं है। 'पूजा' कविता में कवि इसी सत्य को रेखांकित करता है। मानव-जीवन संघर्षों से भरा है। संघर्ष हैं तो उनका समाधान भी है। हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. समीप जी कहते हैं-
नई रोशनी मिल जाएगी / जगनू होंगे, दीपक होगा
चाँद सितारे कुछ तो होंगे / सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो।
'घर लौटा हूँ' में शहर से घर लौटने की गरमाहट है, जो शहरी बेगानेपन पर भारी है। आदमी ही नहीं घर के अन्य प्राणी भी इसे महसूस करते हैं। दूसरी ओर कवि को चिन्ता है नष्ट होती संवेदना की जिसमें राम की नहीं, केवल रावण की ऊँचाई बढ़ रही है-
सूख रहे हैं / अहसास के कुँए
पीली पड़ रही है / हृदय की हरीतिमा
मन के गाँव में / असंतोष ने डाल रखा है डेरा
यही नहीं आज की तिकड़मी भीड़ में ईमानदार आदमी घुटन महसूस कर रहा है। उसका अस्तित्व खतरे में है–
जहाँ मासूम ईमानदारी / बेचारे 'हरसूद' गाँव की तरह
डूब रही हो धीरे-धीरे / बाँध की क्रूर गहराइयों में
हरसूद और बाँध का प्रतीक कविता की सम्प्रेषणीयता और बढ़ा देता है।
विकास के वायदे जनता को सदा गुमराह करते हैं। प्रशासन जो हित के काम करना चाहता है, बिचौलिये और भ्रष्ट तन्त्र उसे बीच में ही निगल जाते हैं। कवि की यही पीड़ा 'सड़क' कविता में प्रकट हुई है-
जाने कहाँ बिलर गई है / सड़क !
कहा तो यही गया था गाँव में / कि राजधानी से
चल पड़ी है सड़क / गाँव के लिए
'बिलर' शब्द अभिव्यक्ति को और धारदार बना देता है। भाषा की यह लौकिकता जनमानस की हताशा को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करती है।
'मैं अयोध्या' की कविताएँ हरेराम 'समीप' के व्यापक अनुभव और भाषा पर उनकी गहरी पकड़ का अहसास कराती हैं। श्री राम कुमार कृषक के अनुसार समीप जी 'निरे बौद्धिक विमर्श के कवि नहीं हैं वे'। कविताओं की भीड़ में यह संग्रह अपनी अलग पहचान बनाएगा; ऐसी आशा है।
-0- मैं अयोध्या-हरेराम समीप; प्रकाशक-शब्दालोक, सी-3 / 59, नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्तार दिल्ली-110094, मूल्य-75 /- पृष्ठ-120
4 नवम्बर 2007