जनाब सलीम लँगड़े और शीला देवी की जवानी / पंकज सुबीर
यह कहानी सुने जाने से पहले कुछ जानकारियों से अवगत होने की माँग करती है। उन जानकारियों की रोशनी के अभाव में कहानी कुछ अविश्वसनीय लगेगी। इसलिए बहुत संक्षिप्त-सी जानकारी यहाँ दी जा रही है। इसे भी कहानी की हिस्सा ही मान कर पढ़ा जाए। कहानी की कहानी और ज्ञान का ज्ञान। असल में यह कहानी एक विशेष अंचल की है। इस अंचल में कुछ जिलों में कई सारी जातियों की मिली-जुली जनसंख्या है। इस मिली-जुली जनसंख्या में कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं, जो बिल्कुल भी यहाँ की नहीं लगतीं हैं। न रंग रूप में और न ही आचार व्यवहार में। ये कहाँ से आए? आए शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनका आचार-व्यवहार भी इस अंचल के लोगों से बिल्कुल ही अलग है और उस अलग में से ही किसी एक अलग पर हमारी यह कहानी चलती है। इन लोगों में एक बहुत ही अजीब-सी प्रथा है। अजीब तो है लेकिन पहली बार सुनने में अच्छी भी लगती है कि चलो कहीं तो ऐसा भी हो रहा है। असल में इन लोगों में लड़कियों की शादी होने पर लड़की का पिता लड़के वालों से दहेज़ लेता है? दहेज़? लड़की का पिता? जी हाँ यही एक अजीब-सी बात है। इसी कारण इन लोगों में जब भी लड़की का जन्म होता है तो ख़ुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़के के जन्म पर बाप दहेज़ की तैयारियों में लग जाता है। कई बड़ी-बड़ी उम्र के लड़के इस समाज में कुँआरे घूमते दिखाई देते हैं। कारण? वही, पिता के पास देने के लिए दहेज़ नहीं था। यह दहेज़ अधिकतर सोने-चाँदी के रूप में लिया जाता है। लड़की के जन्म पर जो खुशियाँ मनाई जाती हैं वह देखने लायक होती हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जो बड़ी संख्या में कुँआरे रह जाते हैं, उनका क्या होता है? उनके पास दो ही रास्ते होते हैं, पहला तो यह कि पुरुष और पुरुष ही आपस में जोड़े बना लेते हैं। इस प्रकार के जोड़े बहुतायत दिखाई देते हैं। दूसरा रास्ता यह कि क़रीब बीस पच्चीस कुँआरे पुरुष मिलकर पैसे एकत्र करते हैं। जिसके पास से जितने आ जाएँ। पैसे एकत्र करके यह लोग एक लोडिंग मेटाडोर किराये पर लेते हैं। क़रीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर स्थित आदिवासी अंचल में जाते हैं। वहाँ जाकर थोक के भाव में लड़कियाँ या औरतें ख़रीद लाते हैं और फिर उनको लाकर पैसों के हिसाब से बाँट लेते हैं। जिसने ज़्यादा पैसे दिए थे, उसके हिस्से में कम उम्र की लड़की और जिसने कम दिए थे, उसके हिस्से में अधिक उम्र की औरत। यह काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है। इस काम में पैसे उसकी तुलना में बहुत कम लगते हैं, जिसे शादी कहा जाता है। अपने समाज की लड़की के पिता को बहुत सारा पैसा देकर शादी करने से अच्छा, आदिवासी लड़की के पिता को पैसा देकर लड़की या औरत ख़रीद लाओ। ऐसे लोगों को, जिन्होंने यह काम किया है, कुछ नीची नज़रों से देखा जाता है लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है नीची या ऊँची नज़र से, घर तो बस जाता है।
यह तो हो गई एक प्रथा, चलिए अब दूसरी की ओर चलते हैं। पिछली वाली से भी अधिक अविश्वसनीय प्रथा। प्रथा यह कि इनमें शादी हो जाने के बाद भी लड़की के सर्वाधिकार उसके पिता के पास सुरक्षित रहते हैं। मतलब? मतलब यह कि लड़की का पिता कभी भी अपनी बेटी को वापस ला सकता है। दहेज़ में लिया गया पैसा लौटा कर। समाज की एक पंचायत बैठती है और छोड़-छुट्टी हो जाती है। पैसा वापस, लड़की वापस। इसके बाद लड़की का पिता लड़की को दूसरे को दे सकता है, दे देता है। असल में तो यह होता ही इसलिए है कि किसी दूसरे ने अधिक पैसा ऑफर कर दिया था। इस दूसरी बार जाने को नातरा कहते हैं। एक ऐसी भी महिला भी है, जिसका दस बार नातरा हो चुका है और उस पर भी ग़ज़ब यह कि दस बार में वह एक ही व्यक्ति के पास तीन बार गई। दहेज़ लेने की सुन कर आपके मन में जो भाव आए थे, वह इस दूसरी सूचना से कड़वाहट में बदल गए होंगे। आपने सोच भी कैसे लिया था कि पुरुष प्रधान समाज महिला को लेकर कुछ अच्छा भी कर सकता है, रिवाजों के रूप में, परंपराओं के रूप में, रवायतों के रूप में। तो, कोई क़ानून नहीं, कोई तलाक़ नहीं, बस समाज की पंचायत बैठी और दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी बात रखी। जो पैसा पहले वाले ने दिया था, वह पैसा समाज की पंचायत को लड़की का पिता सौंप देता है। पंचायत उसे पहले वाले को देती है और हो गई छोड़-छुट्टी। लड़की क़ानूनी रूप से वापस पिता की संपत्ति हो जाती है। यह अलग से बताने की आवश्यकता तो नहीं है न कि लड़की के पिता ने जो पैसा वापस किया है, वह कोई अपनी जेब से नहीं किया है बल्कि दूसरे दावेदार से लेकर दिया है। लड़की का नातरा अब दूसरे के साथ हो जाता है।
बस इतनी-सी जानकारी जानना कहानी को जानने के लिए आवश्यक था। इसलिए क्योंकि यह जानकारी बहुत ही अविश्वसनीय है। इसे सीधी भाषा में बेटी बेचना भी कह सकते हैं। अस्थाई रूप से। आज शिक्षा के कारण यह कम तो हो रहा है लेकिन वह कम बहुत मामूली-सा ही है। एक बात और इसमें यह भी है कि लड़की की शादी अक्सर तेरह चौदह की उम्र में ही कर दी जाती है। बाल विवाह? जी हाँ बाल विवाह। कोई नहीं रोकता, कोई नहीं रोक सकता। जिस उम्र में क़ानून विवाह की अनुमति देता है, उस उम्र तक तो यह लड़कियाँ शायद दो-तीन घरों के फेरे लगा चुकी होती हैं। एक और अजब-सी बात है इस पूरी जानकारी में, वह ये कि इन स्त्रियों का अपने पतियों से कोई लगाव नहीं होता है। मतलब यह कि जब एक के घर से छोड़-छुट्टी के बाद दूसरे के यहाँ भेजा जाता है, तो पिछले वाले के मोह का कोई संकेत नहीं मिलता। लगता ही नहीं है कि इनको इनके पति से अलग किया जा रहा है। जैसे उधो घर रहे वैसे रहे बिदेस। यह इस पूरी दास्तान का सबसे हैरतअंगेज़ तथ्य है। शादी हुई, साथ रहे और अचानक छोड़ के किसी दूसरे के घर चल दिए, इस प्रकार से मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। कहा तो यह जाता है कि यदि किसी जानवर के साथ भी रह लो, तो उससे भी लगाव हो जाता है, मोह हो जाता है। यहाँ तक कि निर्जीव चीज़ों से भी कुछ समय बाद मोह हो जाता है, लेकिन जाने क्या था इन जातियों की स्त्रियों में कि उनको मोह व्यापता ही नहीं था। एक और अलग बात इन जातियों में यह थी कि इनमें देह के प्रश्नों को लेकर कोई बहुत ज़्यादा वर्जनाएँ, नैतिकता के सवाल आदि नहीं खड़े होते थे। पाश्चात्य समाज में देह की स्वतंत्रता की जो बात है, दबे-छिपे में उससे कहीं ज़्यादा प्रगतिशीलता इन जातियों में थी। शायद इसके पीछे कारण यह था कि विवाह नहीं हो पाने की समस्या के कारण इस प्रकार के चोर रास्तों की आवश्यकता सभी को पड़ती थी, सभी पुरुषों को। न तू मेरी कह और न मैं तेरी किसी से कहने जाऊँगा। उजागर तो नहीं, लेकिन अंदर ही अंदर सब कुछ होता था और सबको पता भी होता था। सामान्य-सी घटना की तरह उसे लिया जाता था।
आइये अब चलते हैं कहानी के दोनों प्रमुख पात्रों की ओर। पहले बात जनाब सलीम लँगड़े की। अभी ये मरहूम नहीं हुए हैं, ऐसा मान कर चलिए। लँगड़ा शब्द कहानीकार द्वारा उपहास उड़ाने के लिए नहीं किया जा रहा है। असल में समाज में कुछ नाम ऐसे ही होते हैं। सलीम लँगड़े जो थे वह उस गाँव के पास के गाँव के थे, जिसे गाँव की श्रीमती शीला देवी थीं। यहाँ हर दो-तीन किलोमीटर पर गाँव हैं। कुछ छोटे, तो कुछ बहुत ही छोटे, टप्पर गाँव टाइप के। पगडंडियों से जुड़े हुए गाँव। पता चलता है कि किसी का घर एक गाँव में है और खेत दूसरे गाँव में है। कई गाँव तो ऐसे भी हैं कि उनके नाम भी युगल में ही लिए जाते हैं जैसे हरसपुर-बिछोली, थूना-पचामा आदि आदि। ये वास्तव में दो गाँव हैं, लेकिन इतने पास-पास हैं कि एक ही साथ इनका नाम लिया जाता है। तो, सलीम लँगड़े जो थे वे भी इसी प्रकार के एक जुड़वें गाँव में रहते थे जो कि श्रीमती शीला देवी के गाँव से जुड़ा था। सलीम लँगड़े का बचपन में एक पैर टूट गया था और ठीक प्रकार से जुड़ नहीं पाया था, इस कारण उस पैर की तरफ़ से कुछ कमज़ोर थे वे। बचपन में ही उनके नाम के साथ उपनाम भी जुड़ गया था। उपनाम इसलिए कि उस गाँव में तीन सलीम थे। सलीम भूरा, मिच्चा सलीम और तीसरे ये। पहले ये केवल सलीम ही थे, लेकिन बाद में इनको भी उपनाम मिल गया। सलीम भूरा जो था वह आवश्कता से कुछ अधिक गोरा था इसलिए वह सलीम भूरा था। मिच्चा जो था वह बात करते समय अचानक एक आँख को मिचमिचा देता था इसलिए मिच्चा और तीसरे अपने सलीम लँगड़े। बाक़ी के दोनों सलीमों का इस कहानी से कोई लेना-देना नहीं है इसलिए उनको छोड़िए। बात अपने सलीम की। तो जनाब सलीम लँगड़े के एक पैर में कुछ लचक होने के अलावा कोई कमी नहीं थी। अच्छे ख़ासे थे। गबरू जवान टाइप के। खेती भी और गृहस्थी भी थी। शादीशुदा थे और दो बच्चों पिता भी थे। शौकीन मिज़ाज आदमी थे। घर से निकलते तो टिप-टाप होकर। सफेद कुरता-पायजामा, आँखों में सुरमा, मुँह में पान और उँगली के सिरे पर लगा हुए चूना। कपड़ों पर हिना का अत्तर महकता रहता बारहों महीने। निकलते तो ख़ुशबू को एक भभका-सा छोड़ते जाते। भभका? हाँ भभका ही। उम्र यही कोई सत्ताईस-अट्ठाईस। इस उम्र में दो बच्चे भी? उसमें क्या है, यदि उन्नीस में शादी हुई तो इस उम्र तक क्या दो भी नहीं होंगे? बल्कि ये तो कम हैं, अभी तक तो चार हो जाने चाहिए थे। सलीम लँगड़े अपनी खेती-बाड़ी सँभालते थे। बाक़ी का समय उसी प्रकार से काटते थे, जिस प्रकार से गाँव के बाक़ी के युवक काटते थे। मतलब चौपाल पर बैठकर ताश खेलना, ज़र्दा मलना, सरौती से सुपारी काटना, मलना, खाना और थूकना। दिन कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता था। घर में बेगम बच्चों को सँभालती थीं और घर को भी। कुल मिलाकर ज़िंदगी ठीक-ठाक चल रही थी।
सलीम लँगड़े का घर और खेत जिस गाँव में था, उस गाँव में श्रीमती शीला देवी का खेत भी था और सरकारी स्कूल भी। स्कूल? असल में शीला देवी भी गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह चौथी-पाँचवी तक की पढ़ाई की औपचारिकताएँ पूरी करने इसी स्कूल में आईं थीं। सरकारी स्कूल में। चूँकि हर गाँव में सरकार स्कूल नहीं खोल सकती थी, इसलिए वह दो-तीन गाँवों के बीच में एक स्कूल खोल देती थी। आस-पास के गाँवों के बच्चे पढ़ाई छोड़ने से पहले तक उसी स्कूल में आते थे। जैसे शीला देवी भी आईं थीं और जनाब सलीम लँगड़े के साथ एक ही कक्षा में पढ़ी थीं। शीला देवी ने कुछ पहले पढ़ाई छोड़ी और जनाब सलीम लँगड़े ने कुछ साल बाद। पढ़ाई छोड़ना कहना ठीक नहीं है, असल में स्कूल छोड़ना कहना होगा, क्योंकि स्कूल में पढ़ाई होती ही कब थी। बच्चे स्कूल छोड़ते थे, पढ़ाई नहीं। अब इसको ऐसा मत समझिए कि जनाब सलीम लँगड़े और शीला देवी यदि एक ही स्कूल में पढ़े हैं, तो उनके बीच में स्कूल में कहीं कुछ पनप गया होगा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। बल्कि शक्ल-सूरत थोड़ा बहुत जानने के अलावा और कुछ भी नहीं हुआ था।
आइए अब बात करते हैं शीला देवी की। शीला देवी अच्छी खासी सुंदरी थीं। पंद्रह की उम्र में ही भरी-पूरी स्त्री लगती थीं। सुंदर थीं, इसलिए पिता को और अच्छा दहेज़ मिलने की उम्मीद थी और मिला भी। शीला देवी के तीन भाई थे, उन पर एक अकेली बहन थीं वो। दो भाई उनसे बड़े थे और एक छोटा। अभी किसी का भी विवाह तय नहीं हुआ था। नहीं हुआ था, तो उसके पीछे भी वही समस्या आड़े आ रही थी, दहेज़ की। सोचा यह गया था कि शीला देवी के विवाह से प्राप्त दहेज़ को कम से कम दो बड़े भाइयों के विवाह में उपयोग कर लिया जाएगा, जो बिल्कुल ही छिकने की कगार पर आ चुके हैं। अगर और दो-तीन साल शादी नहीं की गई तो गाँव की कहावत के अनुसार टेमरू झड़ जाएगा। छोटा भाई भी बड़ों के पीछे लगा-लगाया ही आ रहा था। शीला देवी का विवाह पन्द्रह की उम्र में हुआ। समाज के हिसाब से कुछ देर से हुआ। क़ायदे में बारह की उम्र तक विवाह और सोलह में गौना, यह सबसे अच्छा समीकरण था समाज के हिसाब से। मगर शीला देवी का विवाह पन्द्रह में हुआ और अठारह लगते न लगते गौना भी हो गया। ज़्यादा दहेज़ के चक्कर में शीला देवी की शादी देर से हुई। ख़ैर देर से हुई पर हो गई। गौना भी हो गया और शीला देवी, श्रीमती शीला देवी अपनी ससुराल चली गईं। ससुराल का मतलब यह नहीं कि बहुत दूर चली गईं, वहीं पास के ही एक गाँव में चली गईं। पास मतलब तीन-चार किलोमीटर दूर के गाँव में। जब इच्छा हो तो पैदल-पैदल अपने मायके आ जाओ। इतना चलना तो रोज़ अपने खेत जाने के लिए भी करना ही पड़ता था।
श्रीमती शीला देवी के गौने के क़रीब दो महीने बाद ही घटनाक्रम शुरू होता है। सबसे पहले तो यह हुआ कि श्रीमती शीला देवी की माताजी अचानक खेत पर काम करते समय साँप काटने से चल बसीं। पत्थर वाले पीर के चबूतरे पर दिन भर झाड़ा-फूँकी होती रही। मगर कुछ न हो सका। साँप का ज़हर अपना काम कर गया और श्रीमती शीला देवी का मायका स्त्री विहीन हो गया। मतलब यह कि अब घर के काम-काज करने की ज़िम्मेदारी चारों पुरुषों पर ही आ गई। एक बाप और तीन बेटे। कुछ दिन के लिए शीला देवी ने आकर मायका सँभाला, लेकिन फिर ससुराल से लिवव्वा आ गए और जाना पड़ा। अच्छा तो नहीं लग रहा था पिता और भाइयों को इस प्रकार छोड़ कर जाना, लेकिन जाना तो था। मगर फिर भी श्रीमती शीला देवी का एक दो दिन में इधर का चक्कर लग ही जाता था। आकर इकट्ठी रोटियाँ सेंक कर रख जातीं। साफ-सफाई कर जातीं। उपले थेप जातीं। मतलब यह कि माँ की ज़िम्मेदारी निभा कर वापस अपने घर। इस समाज में स्त्री दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती है, घर की भी और खेत की भी। घर का काम पूरा करके स्त्रियाँ खेत पर चली जाती हैं और वहाँ नींदना, गोड़ना, काटना, मवेशियों को सानी-पानी देना जैसे काम में जुटी रहती हैं। दिन में पुरुष खेत छोड़कर दूसरे कामों से चले जाते हैं और स्त्रियाँ खेत पर बनी रहती हैं। शाम को पुरुष खेत पर लौटते हैं और स्त्रियाँ दुधारू पशुओं को साथ लेकर घर लौट आती हैं। बहुत मेहनमकश होती हैं ये स्त्रियाँ।
तो दोनों ही स्थानों पर स्त्री की कमी खलने लगी। पिता ने दोनों बड़े भाइयों की शादी के लिए भाग-दौड़ शुरू कर दी। घर में अब एक औरत की तुरंत ही आवश्यकता थी, जो आकर घर को सँभाल सके। मगर उस समाज में लड़कों का विवाह करना इतना मुश्किल था, जितना दूसरे समाजों में लड़की का विवाह करना भी नहीं था। लड़की के पिताओं की नाक पर मक्खी तक भी नहीं बैठ पाती थी। छोटी-मोटी जोत के किसानों को तो लड़की का बाप ऐसी हिकारत से देखता था कि बस। ज़मीन, सोना, चाँदी, घर-बार, मतलब यह कि लड़की ले जाने की औक़ात है भी कि नहीं तुम्हारी। तो शीला देवी के पिता के भी सचमुच में ही जूते घिस गए। इस गाँव से उसे गाँव भागते-दौड़ते। कहीं भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिल पा रहा था। कारण यह भी था कि जो कुछ पूँजी हाथ में थी उसमें दो लड़के निपटाने थे। एक के लिए तो वह पूँजी ठीक-ठाक थी, लेकिन दो के लिए तो बहुत कम हो रही थी। शीला देवी के पिता की मुसीबत यह थी कि यदि केवल एक की शादी कर देते हैं, तो पीछे से दूसरा जो तैयार खड़ा है, उसका क्या होगा? और उसके पीछे तीसरा भी तो है। शीला देवी के विवाह से जो मिला था उसमें कम से कम दो तो निपटें।
कहते हैं जहाँ चाह होती है वहीं राह भी होती है। अब राह तो होती है, लेकिन कैसी होती है इसकी कोई गारंटी नहीं होती है। दूर के गाँव में एक ही परिवार में दो लड़कियाँ शादी के लायक मिलीं। मगर दिक़्क़त यह थी कि उनके घर में एक बड़ा भाई भी कुँआरा बैठा था। लड़कियों के पिता ने मज़ाक में कहा कि लड़की ब्याहने के पहले आ जाते, तो अट्टा-सट्टा (अदल-बदल) कर लेते, दो लड़कियाँ तुमको दे देते और एक लड़की तुमसे ले लेते। बिना कुछ लिए-दिए बात हो जाती। खाना खाते में लड़की के पिता ने बात कही और शीला देवी के पिता का खाना खाते हुए हाथ रुक गया। उन्होंने लड़कियों के पिता को देखा, जो कुटिलता के साथ मुस्कुरा रहा था। शीला देवी के पिता ने भी एक भरपूर कुटिल मुस्कुराहट उत्तर में प्रदान की। इन मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान में बहुत कुछ था, जो केवल यह दोनों ही जानते थे।
भोजन के बाद फिर से बैठक जमी। बात निकली थी, तो उसको दूर तलक भी तो जाना था। प्रश्न यह था कि जो पैसा श्रीमती शीला देवी के दहेज़ में प्राप्त हुआ है, वह तो समाज की पंचायत को लौटाना होगा, छोड़-छुट्टी के लिए। जो वापस शीला देवी के पति को दिया जाएगा। ऐसे में यह जो एक के बदले में दो का सौदा है, यह किस प्रकार से पूरा होगा? लड़कियों का बाप चाह रहा था कि एक लड़के के लिए तो लड़की अट्टा-सट्टा कर ली जाए, लेकिन दूसरी लड़की एकदम से मुफ़्त में कैसे दे दी जाए? बहस लम्बी चली और अंत में श्रीमती शीला देवी की सुंदरता के चर्चों ने ही बाज़ी मार ली। कारण यह भी रहा कि लड़कियों के पिता की माली हालत, श्रीमती शीला देवी के पिता से उन्नीस भी नहीं बल्कि चौदह-पन्द्रह ही थी। उसका लड़का छिका जा रहा था और अंत में डील डन हो गई।
इधर डील डन हुई और उधर सप्ताह भर के अंदर ही श्रीमती शीला देवी के पति की मति फूट गई। शीला देवी रोज़ अपने मायके नहीं जाती थीं। दो-तीन दिन में चक्कर लगता था। उस दिन जब वापसी हुई तो कुछ देर हो गई। असल में उधर पिता सम्बंध की बात करके लौटे थे, सो बात-चीत में कुछ वक़्त लग गया। लौटते में कुछ देर हो गई। इधर पति खेत से लौट चुका था और शीला देवी को घर पर नहीं पाकर परेशान हो रहा था। श्रीमती शीला देवी ने जब अपने घर में प्रवेश किया तब तक पति का पारा सातवें नंबर के आसमान के आस-पास ही था। ग़ुस्से ने उसके दिमाग़ को इतना कुन्द कर दिया कि वह नातरा नामक सामाजिक प्रथा को ही भूल गया। वह हो गया जो नहीं होना था। वह हो गया जो श्रीमती शीला देवी के पिता के हिसाब से देखें तो हो जाना था।
अगले दिन श्रीमती शीला देवी के पति सुबह खेत गए और शीला देवी ने मायके की राह पकड़ ली। यहाँ पर कुछ लोगों के अनुसार एक छोटा-सा पेंच है। कहने वाले कहते हैं कि असल में तो श्रीमती शीला देवी के पिता ने उनको सिखा-पढ़ा कर ही भेजा था कि एक-दो दिन में मामले को ख़त्म करके वापस मायके आ जाओ। छोटे भाइयों की शादी का सवाल था। एक साथ दोनों भाइयों का मामला जमने जा रहा था और रहा सवाल मोह का, तो वह तो व्यापता ही कब था? ख़ैर कारण जो कुछ भी रहा हो, लेकिन हुआ यही कि श्रीमती शीला देवी मय साजो सामान के अगले दिन मायके की दिशा पकड़ती भईं। पति के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। उसने अपने स्तर पर भाग-दौड़ शुरू की। शीला देवी के पिता की मिन्नतें कीं, भाइयों की हाथा-जोड़ी की। रिश्तेदारों के तलवों में तेल लगाया, किन्तु हर जगह ढाक के तीन पत्ते थे सो थे। पिता की तो योजना ही थी, भाइयों का घर बसने वाला था और रिश्तेदार? रिश्तेदार तो घर टूटता देख ही खुश होते हैं, बसे हुए घर उनको सुहाते ही कब हैं।
समाज की पंचायत को सूचना दे दी गई कि छोड़-छुट्टी की नौबत आ गई है। पंचायत बिठाई जाए। छोड़-छुट्टी वाले मामलों में पंचायत को बस यह देखना होता था कि जो रक़म लड़के वालों ने दी थी, वह वापस की जा रही है अथवा नहीं। विवाद हमेशा ही इस बात पर होता था। यदि रक़म पूरी है तो फिर पंचायत को कुछ अधिक करना नहीं होता था। रक़म जमा करवाओ और दे दो छोड़-छुट्टी। आषाढ़ माह का बीतता हुआ समय था, जब श्रीमती शीला देवी को छोड़-छुट्टी प्राप्त हो गई। बीतता आषाढ़, मतलब लगती बारिश और लगती बारिश का मतलब यह कि अब शादियों के लिए कम से कम पाँच महीने का इंतज़ार तो करना ही था। शादी? मगर श्रीमती शीला देवी का तो अब नातरा होना था न? हाँ सही है कि श्रीमती शीला देवी का अब नातरा होना था, शादी नहीं, किन्तु दोनों भाइयों की तो शादी ही होनी थी न? तो शादी के लिए अब पाँच महीने का इंतज़ार होना था। लेकिन इस बीच श्रीमती शीला देवी के भावी ससुर तथा वर्तमान पिता ने मिलकर सारी बातें पक्की कर दीं। छोटा-मोटा कार्यक्रम भी कर दिया रोकने का। रोकना? समाज में लड़के या लड़की को शादी के लिए रोका जाता था। मतलब जिसे सभ्य समाज में सगाई कहा जाता है, उसे यहाँ पर रोकना कहा जाता था। तो इधर श्रीमती शीला देवी का रोकना हुआ और साथ में उनके दो भाइयों का भी रोकना हो गया। तीन लड़कियाँ और तीन लड़के रोके जा चुके थे। बरसात बाद शादियाँ होनी थीं।
श्रीमती शीला देवी का समय फिर से पहले की ही तरह हो गया। पहले जो काम माँ करती थी, वह अब शीला देवी को करना पड़ रहा था। बरसात लग चुकी थी। खेत में दस तरह के काम खुल गए थे। ज़रा पानी खुले तो खेतों में जाकर निंदाई, गुड़ाई करना होता था। मेड़ पर लगी घास को काटना। खरपतवार उखाड़ना, कुल मिलाकर यह कि श्रीमती शीला देवी का एक पैर घर में रहता था और दूसरा खेत पर। इस बीच एक समस्या यह हो गई थी कि श्रीमती शीला देवी सात-आठ महीने ससुराल में रह आईं थीं। रह आईं थीं पुरुष के साथ, पुरुष की देह के साथ। देह और अफीम का एक ही क़िस्सा होता है, जब तक न चखो, तब तक कोई दिक़्क़त नहीं, लेकिन चख ली, तो लत लगेगी ही यह तय है। श्रीमती शीला देवी को भी लत लग चुकी थी। उमर भी भादौ की बरसाती नदी की तरह थी। अठारह की उम्र और वह भी सात-आठ माह तक पुरुष का संसर्ग पा चुकी उम्र, क्या कहें इसको, नीम चढ़ा करेला या सोने पर सुहागा? हँसिये से घास काटते-काटते इच्छा होती कि हँसिए को कलेजे में उतार लें। उस पर सचमुच में बरसात का मौसम। जितना भीगो, उतना जलो। घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा। मन तो ईश्वर का भी डरपत था, तो फिर शीला देवी तो इन्सान थीं। घर के काम निपटा कर सोने जातीं तो छप्पर पर बरसती बरसात की बूँदें सीधे कलेजे से टकरातीं। छुन्न-छुन्न। बिजली कड़कड़ाती, बादल गड़गड़ाते, बूँदें छनछनातीं और श्रीमती शीला देवी की रात आँखों में कट जाती।
जनाब सलीम लँगड़े बरसात की उस दोपहर को अपने खेत पर जा रहे थे, जब उन्होंने श्रीमती शीला देवी की चीख सुनी। असल में शीला देवी खेत पर अकेली निंदाई करने में जुटी थीं कि अचानक तेज़ बरसात शुरू हो गई। बरसात से बचने के लिए वे खेत पर बने टप्पर में खटिया पर आकर बैठ गईं थीं। कुछ ही देर में देखती क्या हैं कि एक करिया नाग भी टप्पर के दरवाज़े से अंदर आ रहा है। बरसात में इस प्रकार कीड़े-काँटे निकलना गाँव के लिए आम बात थी। खटिया पर बैठी श्रीमती शीला देवी ने नाग को देखा, तो उनकी चीख निकल पड़ी। वही चीख जो जनाब सलीम लँगड़े ने सुन ली, काश कि सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम बहरे होते और वह चीख न सुन पाते। मगर नहीं थे, इसलिए चीख सुन ली और जितनी तेज़ चल सकते थे, उतनी तेज़ चलकर टप्पर तक पहुँचे। दरवाज़े पर भुजंग सरसरा रहा था। इसी बीच श्रीमती शीला देवी कोशिश करके एक बोरे का सहारा लेकर टप्पर में रखी एक कोठी पर चढ़ चुकी थीं। भुजंग ने जनाब सलीम लँगड़े को देखा तो वह फनफनाया। फुफकारा। सलीम लँगड़े भी कड़क जीव थे। बस पैर में ही थोड़ी-सी लचक थी, बाक़ी तो अल्लाह का करम था, अभी तक गबरू थे। निशाना चाहे, गुलेल का हो, कंचों का हो या लाठी का, एकदम सधा लगता था। हाथ की लाठी को हवा में साधा। पहला ही वार सीधा निशाने पर लगा, फ़न पर। भुजंग का पूरा शरीर लहर खाने लगा। अलबेटियों पर अलबेटियाँ पड़ रही थीं। दो, तीन, चार, पाँच प्रहारों में तो ठंडा पड़ गया वह।
श्रीमती शीला देवी कोठी पर से नीचे उतरने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन उतर नहीं पा रही थीं। कोठी ऊँची थी। चढ़ते समय तो चढ़ गईं थीं क्योंकि जान का संकट था। जनाब सलीम लँगड़े ने श्रीमती शीला देवी को उतरने की कोशिश करते हुए देखा, काश न देखते। काश जनाब सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम अंधे होते। मगर नहीं थे, तो देख लिया। कुछ देर तक देखते रहे, अपनी पुरानी सहपाठिन को उतरने की कोशिश करते हुए। मर्यादा ने झोंपड़ी के दरवाज़े पर लक्ष्मण रेखा खींच रखी थी। करिया नाग की लक्ष्मण रेखा। जो ठंडा पड़ा हुआ था दरवाज़े पर, इधर से उधर तक। बरसात तेज़ हो रही थी। भादौ के बादल थे, बरस भी रहे थे और गरज भी रहे थे। लक्ष्मण रेखाएँ लाँघने के लिए ही खींची जाती हैं। जनाब सलीम लँगड़े को भी करिया नाग को लाँघना पड़ा। श्रीमती शीला देवी उतरने की हर कोशिश में नाकाम हो रही थीं। सलीम लँगड़े ने कोठी के पास पहुँच कर अपना हाथ बढ़ाया। सकुचाते हुए श्रीमती शीला देवी ने हाथ को पकड़ा। करिया नाग ने ठीक वहीं फ़न मारा जहाँ हाथ आपस में जुड़े। करिया नाग ने? मगर वह तो दरवाज़े पर मरा पड़ा था न? हिना का अत्तर श्रीमती शीला देवी की साँसों में घुलकर ज़हर की तरह नस-नस में फैल गया। बाहर बरसात मूसलाधार से भी कुछ अधिक तेज़ हो चुकी थी?
उतरने के क्रम में जैसे ही श्रीमती शीला देवी का पूरा वज़न जनाब सलीम लँगड़े पर आया, वैसे ही गड़बड़ हो गई। गड़बड़ यह कि सलीम लँगड़े अपने अच्छे वाले पैर पर वज़न साधें, उससे पहले ही हड़बड़ाहट में सारा वज़न उस पैर पर आ गया, जो ख़राब था। वह डगमगा गए। साथ में श्रीमती शीला देवी भी डगमगा गईं। सँभलते-सँभलते भी दोनों नीचे गिर गए। दोनो। काश नहीं गिरते। काश सलीम लँगड़े, सलीम लँगड़े न होकर सलीम हिजड़े होते। नहीं थे। हिना का अत्तर घुमड़ कर महका। दरवाज़े पर मरे पड़े करिया नाग तक जब हिना के अत्तर की महक पहुँची, तो वह ज़िंदा हो गया। श्रीमती शीला देवी के पोर-पोर में हिना का अत्तर समा गया। पूरा टप्पर हिना की ख़ुश्बू से महक उठा। करिया नाग डसता रहा, इस जगह, उस जगह, सब जगह। बादल गरजते रहे, बिजली चमकती रही और बूँदें बरसती रहीं। उस दिन ख़ूब बरसात हुई। गाँव से होकर बहने वाली बरसाती नदी किनारों को तोड़ कर खेतों में जा घुसी। लोग कहते हैं कि बरसों बाद वह नदी इतने भयंकर रूप में उमड़ी। चारों तरफ़ पानी ही पानी हो गया।
उसके बाद की बरसात श्रीमती शीला देवी के लिए वैसी नहीं रही, जैसी कष्टदायक उस दिन के पहले थी। अब बरसात में ठंडक आ गई थी। ठंडक आ गई थी, या ठंडक पड़ती रहती थी। अब हिना का अत्तर खेत के उस टप्पर में गाहे-बगाहे महकने लगा था। बल्कि यह कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि हिना के अत्तर की भीनी-भीनी महक अब टप्पर में हमेशा ही बनी रहती थी। एक-दो दिन कम होती, फिर किसी दिन तेज़ हो जाती। जिस दिन तेज़ बरसात होती उस दिन ही अक्सर टप्पर भी तेज़ महकता। श्रीमती शीला देवी अब ख़ुश रहने लगी थीं। बहुत ख़ुश। जनाब सलीम लँगड़े को लगता था कि वह सबाब का काम कर रहे हैं। किसी दीन दुखियारी की मदद कर रहे हैं। प्यासे को पानी पिला रहे हैं। सो वह करते रहे।
मौसमों का काम है बीतना, सो वह बीतते रहते हैं। एक मौसम आता है, चला जाता है और दूसरा आ जाता है। बरसात भी कब तक रहती? उसे भी तो बीतना था, बीत गई। बरसात का बीतना मतलब टप्पर के महकने का मौसम बीतना। बरसात बहुत-सी घटनाओं पर आड़ कर देती है, पानी की आड़। अब वह आड़ नहीं थी। अब ठंड आने को थी। खेतों पर खड़ी फ़सल के कटने का समय आ चुका था। खेतों पर पुरुषों की व्यस्तता बढ़ चुकी थी। ज़ाहिर-सी बात है श्रीमती शीला देवी के खेत पर भी पुरुषों की व्यस्तता बढ़ गई थी। पुरुषों की व्यस्तता ने किसी एक पुरुष का खेत पर आना-जाना रोक दिया था। रोक दिया था मतलब यह कि आना-जाना, दुआ-सलाम तो हो रहा था, लेकिन सबसे हो रहा था। टप्पर के महकने के लिए ज़रूरी था कि दुआ-सलाम किसी एक ख़ास के साथ ही हो। श्रीमती शीला देवी की कहानी भी अजीब मोड़ ले रही थी। पहले सात-आठ महीने पति का साथ मिला, वह छूट गया। उसके बाद बरसात में कुछ ठंडक पड़ी, तो ठंड का मौसम आते ही वह ठंडक भी जून में बदल गई। श्रीमती शीला देवी देखती थीं जनाब सलीम लँगड़े को, देखती थीं अपने भाइयों से, पिता से बतियाते और देखती थीं उसे देखने को भी जो भाइयों और पिता से बात करते समय जनाब सलीम लँगड़े की ओर से होता था। उन निगाहों को जो हसरत से टप्पर को निहारती थीं। फ़सल की कटाई तक अब टप्पर के महकने की कोई संभावना नहीं थी और फ़सल कटाई के बाद तो श्रीमती शीला देवी का नातरा होना था। उसके बाद तो उनको चले जाना था अपने दूसरे पी के घर। तो क्या अब कोई भी विकल्प शेष नहीं रह गया था?
ऐसा कभी नहीं होता है कि सारे विकल्प समाप्त हो जाएँ। ज़िंदगी हमेशा कुछ विकल्पों को शेष रखकर ही चीज़ों को समेटती है। पुरुषों की खेतों पर व्यस्तता बढ़ी, तो घर में वह कम रहने लगे। लेकिन घर तो गाँव में था और गाँव में तो लोग थे और लोगों के मुँह में तो ज़ुबान थी। तो घर भला टप्पर का विकल्प किस प्रकार हो सकता था? जिस दिन सारे पुरुष खेत पर ही रात रुके, उस दिन ही श्रीमती शीला देवी को विकल्प मिल गया। रात। आती हुई सर्दी के मौसम की रात और विकल्प ने अमली जामा पहन लिया। गाँव में रात जल्दी भी होती है और गहरी भी होती है। बिजली रहती नहीं है गाँव में रात भर। उस पर न कोई पुलिस का गश्ती दल, न चौकीदार, न कोई और रोक-टोक। तो हुआ यह कि देर रात, जब पूरा गाँव नीम-बेहोशी जैसी नींद में सोया होता, तब एक साया उभरता। साया जो कुछ लचक कर चल रहा होता। यह साया श्रीमती शीला देवी के घर में समा जाता। क़रीब घंटे भर बाद ही यह साया जिस रास्ते से आया था, उसी से लौटता हुआ दिखाई देता। अपने पीछे हिना के अत्तर की तीखी गंध छोड़ता हुआ। गंध, जो श्रीमती शीला देवी के घर में भी ऊब-चूब हो रही होती। खिंची होती एक डोर की तरह, ऐसी कि कोई भी सिरा पकड़े तो ठीक श्रीमती शीला देवी के घर तक पहुँचे।
गंध का सबसे बड़ा दुर्गुण यही है कि उसे छिपाया नहीं जा सकता। खेत में, जंगल में तो यह होता है कि वहाँ दस तरह की दूसरी वनगंध भी बिखरी होती हैं, इसलिए वहाँ अलग से किसी गंध को नोटिस नहीं किया जा सकता। फिर हवाएँ खेत में, जंगल में किसी एक ख़ुश्बू को देर तक एक जगह रुकने भी नहीं देती हैं। यहीं पर मात खा गए जनाब सलीम लँगड़े भी और श्रीमती शीला देवी भी। गाँव में, शहर में, घर में ख़ुश्बू सुगबुगाहट पैदा करती है और एक दूसरा परिवर्तन जो उन दिनों आ गया था, उससे भी यह दोनों ग़ाफ़िल थे। यह दूसरा परिवर्तन ख़तरनाक था, श्रीमती शीला देवी के लिए तो नहीं किन्तु जनाब सलीम लँगड़े के लिए तो था ही। क्योंकि उनका नाम सलीम था। यह नाम और इस जैसे सारे नाम धीरे-धीरे नफ़रत का पर्याय बनते (बनाए जाते) जा रहे थे। शहरों में यह नफ़रत तेज़ और स्पष्ट थी, तो गाँव में भी यह उस एक चीज़ को तो ख़त्म कर ही चुकी थी, जिसे बुज़ुर्ग भाईचारा कहते थे। यह इस कहानी का सबसे ख़तरनाक पहलू था। दोनों भूल गए थे कि यह मई दो हज़ार चौदह के बाद का समय है। जनाब सलीम लँगड़े जिस काम को सबाब का काम मान कर करने जा रहे हैं वह ख़तरनाक हो सकता है।
जनाब सलीम लँगड़े की सोच यह थी कि अपने को कौन शादी करनी है श्रीमती शीला देवी से। ज़ात अलग, मज़हब अलग। उस पर अपन तो ख़ुद ही शादी शुदा हैं, बल्कि दो-दो बच्चों के बाप भी हैं और श्रीमती शीला देवी को भी तो महीने-दो महीने बाद ब्याह कर अपनी ससुराल जाना ही है। जहाँ उनको अपने पति से ही वह सब कुछ मिला जाएगा, जिसके लिए जनाब सलीम लँगड़े को इतनी दूर तक चल कर आना पड़ रहा है। बेचारी औरत, कहाँ इससे-उससे उम्मीद रखे, फरियाद करे, चलो... हम ही सही। देर रात घर में यह कह कर कि खेत का चक्कर लगा कर आ रहे हैं, कंबल ओढ़कर निकलते। खेत का चक्कर लगाते और लौट आते। कौन पूछने वाला था घर में कि किस खेत का चक्कर लगा कर आ रहे हो। कहावत की भाषा में कंबल ओढ़ कर घी पी रहे थे जनाब सलीम लँगड़े।
खेत की, जंगल की आँखें नहीं होतीं, लेकिन गाँव की होती हैं। जनाब सलीम लँगड़े का आना-जाना गाँव ने पहले टोहा, फिर टटोला और अंत में देखा। देखने के बाद पहचानने की कोशिश की और उसमें तो अधिक देर लगनी भी नहीं थी और कुछ न भी हो, तो हिना का अत्तर तो था ही। जब हिना का अत्तर पहचाना गया, तो भृकुटियाँ तन गईं और मुट्ठियाँ भिंच गईं। चंदन का इत्र होता, तो चलो बात दबा भी जाती, लेकिन हिना का अत्तर? बात श्रीमती शीला देवी के भाइयों तक पहुँची, पहले फुसफुसाहट के रूप में, फिर सुगबुगाहट के रूप में और फिर सीधे ग़ैरत के प्रश्न के रूप में। भाइयों ने प्रश्न को टालने की कोशिश की। बस महीने-दो महीने तो बचे ही हैं श्रीमती शीला देवी के नातरे में। जैसा कि बताया गया कि इन कुछ जातियों में दैहिक सम्बंधों को लेकर एक प्रकार की लापरवाही थी। इन सवालों को बहुत बड़ा सवाल नहीं माना जाता था। हो गया, तो हो गया। हो सकता है इस प्रकार से भाइयों का पूरे मामले को केजुअल तरीके से लेना गले से न उतरे, लेकिन सच यही था कि उनके लिए तो यह केजुअल ही बात थी। किन्तु पूरा गाँव तो इन ही जातियों का नहीं था न? और यदि था भी तो यह तो बात ही अलग हो चुकी थी, यह तो दूसरा ही मामला था। यहाँ तो जनाब सलीम लँगड़े आ चुके थे।
सलीम लँगड़े की आमद अब पूरे गाँव की आँख में किरकिरी की तरह खटक रही थी। किरकिरी बनने के पीछे अनंत काल से पाँच ही शब्द होते हैं-वह क्यों? हम क्यों नहीं? गाँव के लोगों ने अब दूसरे तरीके से भाइयों को समझाया। समझाया कि भाई अगले के तो धर्म में चार शादियाँ जायज़ हैं। तुम यह सोच कर लापरवाही कर रहे हो कि शादीशुदा है और किसी दिन वह इसे भी ले उड़ेगा। शादी करके बाक़ायदा क़ानूनी रूप से अपने घर में रख लेगा, दूसरी पत्नी बना कर। तुम्हारी बहन अगर उससे शादी करके चली गई तो फिर तुम्हारी शादियाँ किस प्रकार होंगी? तुम्हारे होने वाले ससुर ने तो अट्टा-सट्टा में शादियाँ तय की हैं, वह तो तुरंत मुकर जाएगा। यह बात भाइयों के सबसे नाज़ुक बिन्दु पर एकदम तीर की तरह लगी। कहाँ तो उठते-बैठते दोनों भाई सपने देख रहे हैं कि बस और दो महीने की बात है और कहाँ अचानक यह समस्या सामने आ गई। इस तरह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। यह तो सजी-सजाई भोजन की थाली आते-आते रास्ते में ही गिर जाने की स्थिति बन रही थी।
उस दिन भी देर रात जनाब सलीम लँगड़े हिना के अत्तर की लकीर छोड़ते हुए गुज़रे थे। शरद पूर्णिमा की रात थी। आसमान पर पूरा चाँद खिला हुआ था। ज़र्द पीला चाँद। चाँदनी में एक साया मचकता हुआ, लचकता हुआ चला जा रहा था। खेत पर बहुत काम था, इसलिए श्रीमती शीला देवी के भाई तथा पिता खेत पर ही रात रुकते थे। रात का खाना एक भाई आकर घर से ले जाता था। उस रात भी श्रीमती शीला देवी घर पर अकेली ही थीं। सलीम लँगड़े कंबल में लपटे-लपटाए लहराकर कर चलते हुए आए। आए और श्रीमती शीला देवी के घर का दरवाज़ा एक बार चर्रर हुआ और दूसरी बार चूँ...हुआ और बाहर की रात फिर जस की तस हो गई। सन्नाटे में डूबी हुई रात। लेकिन श्रीमती शीला देवी के घर के अंदर का मौसम बदल गया। शरद ऋतु की रात में पूरा चाँद अंदर खिल गया। शरद पूर्णिमा का चाँद। सलीम लँगड़े रिवाज़ के अनुसार शरद के चाँद की चाँदनी को पीने लगे। कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा के चाँद से अमृत झरता है, जिसे पीने से आदमी अमर हो जाता है। तो क्या आज सलीम लँगड़े भी अमर होने वाले थे। फिर चाँद निकला, फिर चाँदनी पी ली, फिर चाँद निकला फिर चाँदनी पी ली। सारी अमरता आज ही प्राप्त करने की उत्कंठा थी दोनों में। श्रीमती शीला देवी को पता था कि अब बस कुछ ही दिन का है यह साथ, उसके बाद तो जहाँ बेच दी गईं हैं, वहाँ जाना ही है। उनका तो वस्तु विनिमय हो चुका है। जहाँ जाना है, वहाँ पता नहीं कौन मिलना है, कैसा मिलना है। जनाब सलीम लँगड़े माहिर खिलाड़ी थे चाँद और चाँदनी के खेल के। केवल पैर से कमज़ोर थे और पैर की ज़रूरत इस खेल में होती भी नहीं है बहुत विशेष। तो श्रीमती शीला देवी अब इन जाते हुए पलों को जनाब सलीम लँगड़े के साथ अधिक से अधिक जीना चाहती थीं, जी रही थीं। शरद पूर्णिमा के पन्द्रह दिन बाद दीपावली और उसके बाद रवानगी होनी थी।
रात दो या तीन का समय हो रहा होगा जब जनाब सलीम लँगड़े कंबल में लिपटे लिपटाए बाहर निकले। शरद पूर्णिमा का चाँद उसी प्रकार आसमान में टँगा हुआ था। बाहर कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें थीं और दूर कछार में कहीं सियार भी रो रहे थे। सामने इमली के भूतहा पेड़ पर एक बड़ा-सा उल्लू बैठा बड़ी अजीब-सी आवाज़ें निकाल रहा था। तरह-तरह के आवाज़ें मिलकर उस रात में अजीब से प्रभाव उत्पन्न कर रही थीं। अमृत छके हुए जनाब सलीम लँगड़े ने चारों तरफ़ देखा और मुतमईन होकर बाहर क़दम रखा। वे दो क़दम ही चले थे कि अचानक दूसरी आवाज़ों के साथ मिली हुई कुछ और आवाज़ें भी आईं। चोर, चोर, चोर, चोर। जनाब को लगा कि कहीं कोई चोर निकला है गाँव में। वे घबरा गए। इस समय उनको जो काम करना सबसे आवश्यक था, वही काम वे कर नहीं सकते थे। भागना। सर पर पैर रख कर भागना। श्रापित कर्ण की तरह। जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत होगी तब नहीं कर पाओगे। किंकर्त्तव्यविमूढ़, बहुत मुश्किल शब्द है बोलने में और जीवन की सबसे मुश्किल परिस्थिति में ही सामने आता है। इसी मुश्किल शब्द ने जनाब सलीम लँगड़े को बुत बना दिया। वे आवाज़ों को पास आते हुए सुनते रहे। बुत बने हुए।
पास आते ही आवाज़ें बदल गईं। अब यह दूसरे प्रकार की आवाज़ें हो गईं थीं। इन आवाज़ों के आते ही भूतहा इमली पर बैठा उल्लू फड़फड़ा कर उड़ गया। कुत्ते कुछ और ऊँचे स्वर में भौंकने लगे, बल्कि रोने लगे। यह आवाज़ें थीं, हड्डी के चटकने, टूटने की, सिर पर लाठी पड़ने, सिर फूटने की और भी बहुत-सी वह आवाज़ें जो किसी को लाठियों से पीटते समय आती हैं। अभी-अभी अमृत छक कर बाहर निकले जनाब सलीम लँगड़े इन आवाज़ों को सुन रहे थे, जो दुर्भाग्य से उनके ही अपने बदन की आवाज़ें थीं। बोल कुछ नहीं पा रहे थे क्योंकि उनके ही कंबल का एक सिरा उनके मुँह में ठूँसा जा चुका था। बहुत देर तक यह आवाज़ें आती रहीं। बहुत देर तक। फिर शांत हो गईं सारी आवाज़ें। गाँव एक बार फिर से सन्नाटे में डूब गया। जनाब सलीम लँगड़े उसी स्थान पर पड़े हुए थे, जहाँ वे कुछ देर पहले किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुए थे। उल्लू वापस इमली के पेड़ पर आकर बैठ गया था। अब कुछ अलग प्रकार की आवाज़ें निकाल रहा था। कुत्ते रोने के स्थान पर फिर भौंकने लगे थे। श्रीमती शीला देवी के घर के दरवाज़े पर इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी कोई हलचल नहीं थी। चाँद उसी प्रकार अमृत बरसा रहा था और अमृत वर्षा के बीच जनाब सलीम लँगड़े धीरे-धीरे मरहूम जनाब सलीम लँगड़े में बदल रहे थे।