जन्मदिन का उपहार / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
उस दिन उसे सुबह जल्दी जाना था। उसके मालिक के बेटे विजय का जन्मदिन था। सोच-विचारकर उसने भुंदा को भी साथ ले लिया। इतना विशाल और इतना सुंदर भवन ! घर की इतनी सजावट ! इतने लोगों का आना-जाना ! ...भुंदा देखता रह गया। लोग विजय को सुंदर-सुंदर उपहार दे रहे थे। प्यार कर रहे थे। भुंदा दीवाल से सटा खड़ा था और सबकुछ देख रहा था। उसकी आंखें बार-बार एक ही खिलौने पर अटक जाती थींं-- उस बिल्ली जैसे खिलौने पर। उसे छूने और सहलाने आने का मन कर रहा था।
भुंदा की माँ कई दिनों से बीमार पड़ी है। वह आया का काम करने नहीं जा रही है। भुंदा रोज़ मालिक के यहाँ से खाना ले आता है। खैर, जो भी हो, आज वह अपना जन्मदिन ज़रूर मनाएगा। मालिक को निमंत्रण करेगा और उन्हें उपहार के रूप में वह बिल्ली जैसा खिलौना लाने को कहेगा। ... मन के लड्डू खाते-खाते वह मालिक का घर पहुँच गया। उसको देखते ही मालिक का पारा चढ़ गया।
"क्या तुमलोगों को अब भिक्षा की आदत पड़ गई है? रोज-रोज खाना लेने आ जाते हो?" कहते-कहते मालिक आपे से बाहर हो गया और तड़ाक से गाल पर एक थप्पड़ लगा दिया।
भुंदा उल्टे पावं लौटना चाहा। मगर एक क्षण के लिए उसके पावं रुक गए क्योंकि वही बिल्ली जैसा खिलौना सामने टंगा हुआ था !