जन्म / प्रेम गुप्ता 'मानी'
वह बहुत शरीफ़ और सीधा इंसान था किन्तु दुर्भाग्य से बेहद गरीब होने के साथ जागरुक भी था। गाँव में गरीबों पर जो भी ज़ुल्म होते, उसके ख़िलाफ़ वह आवाज़ उठाने से न चूकता था। गाँव के लोग उसकी इस जागरुकता से बेहद प्रभावित थे अतः गाँव में जब सरपंच का चुनाव होने लगा तो गाँव वालों ने जोर देकर उसे भी खड़ा कर दिया।
चुनाव में इस तरह लोगों का समर्थन पाकर उसका खड़ा होना गाँव के ज़मींदार को, जो कि भूतपूर्व सरपंच भी थे और एक ऊँची सी, शानदार हवेली में रहते थे, बहुत नागवार गुज़रा। एक मामूली से आदमी की इतनी हिम्मत कि उसकी बराबरी करे। यह तो उसकी इज़्ज़त को चुनौती देने जैसी बात हुई। ज़मींदार ने पहले तो उसे बहला-फुसलाकर उसे चुनाव से हटाने की कोशिश की, पर जब वह नहीं हटा तो उसे व उसके परिवार को जान से ख़त्म कर देने की धमकी दी ।
ज़मींदार की इस धमकी से वह बिल्कुल भी नहीं डरा, पर अन्य लोगो ने भयवश उसका साथ छोड़ दिया। फलस्वरूप वह हार गया। उसकी इस हार से भी ज़मींदार के हृदय की आग ठंडी न हुई और एक रात जब चाँद भी बादलों की चादर ओढ़ नींद की खुमारी में डूबा था, उसके पूरे परिवार की साँसों की डोर काट दी गई। सिर्फ़ वह ही एक बारात में जाने के कारण बच गया।
जब सुबह वह लौटकर आया तो सन्न रह गया। मीठी, तोतली ज़ुबान में "बप्पा" कहकर अपनी नन्हीं बाँहें फैला देने वाली उसकी नन्हीं बिटिया धरती पर लहूलुहान पडी थी और उसकी ठण्डी देह को छाती से चिपटाए चिरनिद्रा में लीन उसकी प्रिय पत्नी...उसके दोनो बेटे...उसके पिता, चाचा, ताऊ... एक पूरी पीढ़ी ख़ून के सैलाब में डूबी पडी थी। यह हृदय-विदारक दृश्य देखकर कोई भी अपना संतुलन खो सकता था। किसी की भी हृदयगति बंद हो सकती थी, पर उसे कुछ भी नहीं हुआ। न आँसू... न चीख... न वेदना...कुछ भी नहीं। बस सूखी आँखें खोई-खोई सी थी...दूर कहीं बहुत दूर क्षितिज के उस पार देखती सी...।
अभी महीना भर पहले ही तो उसने थाने में रपट लिखवाई थी कि ज़मींदार से उसके परिवार की रक्षा की जाए या फिर आत्मरक्षा के लिए उसे व उसके परिवार के अन्य पुरुषों को हथियार रखने दिया जाए।
वह बडे-बडे नेताओं के पास भी तो दौड़ा था, “हज़ूर, माई-बाप... हम गरीब हैं... हमारे परिवार की रक्षा की जाए...।"
"गरीब हो तो गरीबों की तरह रहो...क्यों बड़े लोगों से मुँह लगते हो...?"
या फिर " अच्छा डरो नहीं ... हम देख़ेंगे...।"
ढेर सारे आश्वासन की गठरी लादे वह इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा था और अंत में थककर बैठा ही था कि...।
थोडी देर तटस्थ दृष्टि से इधर-उधर देख़ने के बाद वह उठा और जाकर अपनी नन्ही बिटिया की क्षत-विक्षत लाश के पास बैठ गया...। पल भर उसी तरह बैठा बेटी को ताकता रहा, फिर अचानक पता नहीं क्या सूझा कि उसने दोनो हाथों में ढेर सारी रक्तसनी मिट्टी उठाई और बुदबुदाते हुए बेटी की ठंडी देह पर गिराने लगा।
उसकी इस हरकत से पूरी भीड़ हतप्रभ थी किन्तु किसी को क्या पता था कि समाज की उस गन्दी मिट्टी से अभी-अभी एक और अपराधी ने जन्म लिया था...।