जब घर पर रहता है कवि / देव प्रकाश चौधरी
कई बार अब मुझे लगने लगा है कि इस असार संसार में हमारा जन्म फ़ेसबुक पर फुदकने के लिए हुआ है। संतों के लिए जो संसार कभी काग़ज़ की पुड़िया थी, बूंद पड़े घुल जाना था, कोरोना काल में वह संसार मोबाइल फ़ोन पर आकर बैठ गया है। जब तक बैटरी है और अंगुलियों में ज़ोर है...संसार चल रहा है। नजरें हैं कि हटती ही नहीं। कोई दिल्ली में स्क्रीन को घूर रहा है, कोई देहरादून में। कोई गोड्डा में घूर रहा है और कोई गोंडा में। कोई मोतिया में तो कोई मोतिहारी में। आंखों ही आंखों में राष्ट्रीय एकता स्थापित हो रही है। घर में लगे सॉकेट लगातार बिजी हैं। बैटरी चार्ज हो रही है। सही रंग की बिंदियों की तलाश, गुड मार्निंग काल के लिए सही फोटो की खोज पर आकर अटक गया है।
मेरा एक मित्र है। फटे में पांव डालने की आदत बचपन से थी। जवानी में किताब शुरू से अंत तक पढ़ने की आदत डालना चाहता था। कोशिश नाकाम रही। आलोचक नहीं बन पाया। अब उम्र के उस पड़ाव पर है, जहाँ लोग थोड़ी बहुत इज़्ज़त से बात कर लेते हैं। आलोचना को भूल, वह कवि हो गया है। कोरोना काल शुरू हुआ तो कविता के लिए एक मधुर काल भी आरम्भ हुआ। मेरा मित्र बिजी हो गया। अब वह काग़ज़ को हाथ नहीं लगाता। डाइरेक्ट टाइप करता है और फ़ेसबुक के मुंह पर दे मारता है।
वैसे एक आम मध्यमवर्गीय शहर में जन्म लेने और बचपन गुजारने के कारण, उनकी ज़िन्दगी में भी पहली बार, काग़ज़ ने परचून की पुड़िया के रूप में ही प्रवेश किया था। जबकि जमाना दंतमंजन का था, लेकिन दतुवन वाले परिवार की परंपरा में, छोटा बच्चा होने की वज़ह से काग़ज़ परचून की पुड़िया के रूप में ही सामने आ पाया। काग़ज़ के टुकड़े पर दंतमंजन का सर्वाधिकार बड़ों के लिए सुरक्षित था और जब तक वह बड़ा हुआ, परिवार दंतमंजन से पेस्ट पर आ चुका था। मुस्कान सबकी चौड़ी हो गई थी। तभी मेरे मित्र ने तय किया था कि वह आलोचक बनेंगा। लेकिन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक के खेद सहित पत्रों ने मन को इतना ज़्यादा दुखी और व्यथित किया कि सारे कोरे कागजों को समेटकर अपने छोटे भाई को दे दिया। उन्हीं कागजों पर गणित का सवाल हल कर छोटा भाई इंजीनियर बनने शहर चला गया और बड़े भाई के सामने रह गया एक लाख टके की बात। लेखक अपने अलिखित काग़ज़ को किसी दूसरे को दे-दे तो घर, समाज और देश का ज़्यादा भला होता है!
वक्त के साथ लाख टके की बात 'खुदरा' हो-हो के ख़त्म हो गई। मेरा मित्र कृषि विभाग की सरकारी नौकरी में लग गया। ज़िन्दगी को खाद-पानी मिलनी शुरू हो गई। कभी-कभार मन लहलहाने लगा और अचानक एक दिन लहलहाते मन ने कहा, "कविता लिखो।"
उसने मन की सुनी। मौका मुनासिब देखकर वह हो गया कवि। वह लिख रहा है। मजे हैं। कोरोना काल में भी एक खुशनुमा माहौल एक शॉल की तरह लपेटे रहता है अपने आस-पास। कविताओं पर टिप्पणियों का बोनस उसे छाया देता है, जिसके तले वह गुजार रहा है मुसीबत की घड़ी। फ़ेसबुक पर वह सीना ताने इधर-से-उधर टहल रहा है। फ़ेसबुक उसका अपना जंगल है। बरसों से शहर में रहते हुए उस जंगल में कविता के सहारे वह अपने गाँव को लाकर, गाँव के ही एक पेड़ पर खड़ा हो गया है। किसी कविता में वह आत्मा के इंजीनियर जैसा लगता है। किसी कविता में वह कोरोना का काल लगता है। कवि होना निरंतर कुछ होते रहना है। उसे कुछ-कुछ हो रहा है। फ़ेसबुक पर तारीफों के बीहड़ में उसे क्रांति की उम्मीद है। मौका मुनासिब देखकर वह कवि हुआ था... उसे लगता है, मौका मुनासिब देखकर क्रांति भी होगी। लोग घरों से निकलेंगे। कारें सड़कों से गुजरेंगी। शिक्षा विभाग का बाबू दफ्तर आएगा। बंदर के उछलने से डिश एंटीना जो खराब हो गया था, उसे भी कोई ठीक करने आएगा। मेरा मित्र कवि घर में है। फ़ेसबुक पर वह इतना ज़्यादा पहले कभी नहीं था। उसे लगता है कि घर में और साहित्य में अब तक जो उसे ग़लत समझा गया, वे झूठ साबित होंगे। हालांकि मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको?