जब चिडिया चुग गई.खेत / गोवर्धन यादव
"रामप्रसाद, एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे" , , "अरे यार, तू ही तो मेरा सच्चा दोस्त है, तुम जो भी कहोगे, मेरे भले के लिए ही तो कहोगे, बोल क्या बात है?" , "तुमने मकान अपने बेटे के नाम बनवा दिया, जबकि यह तुम्हारे अपने नाम होना चाहिए था" ,
"मकान मेरे नाम बने या बेटे के नाम, क्या फ़र्क पडता है" "फ़र्क पडता है मेरे दोस्त, यदि मकान तुम्हारे नाम रहता, तो बेटे और बहू तुम्हारी पूछ-परख ज़्यादा करते, मकान मालिक होना और मकान मालिक होने का भ्रम बना रहना, दोनो अलग-अलग बात है" , "भाई किसन, मेरा एक ही तो बेटा है, बडा ही सुशील, नेक, आज्ञाकारी, मुझे उस पर पूरा भरोसा है कि वह मेरे साथ कभी भी ऊँचा-नीचा व्यव्हार नहीं करेगा,"
" ईश्वर करे ऎसा ही हो
कुछ दिन तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा, समय के बदलने में देर नहीं लगती, पूरे घर की चाभियाँ हाथ में आते ही बहू ने अपना असर दिखलाना शुरु कर दिया, स्थितियाँ यहाँ तक बदतर होती चली गई कि उसे अपना मकान छोडकर वृद्धास्श्रम की शरण लेने में मजबुर होना पडा,
" काफ़ी दिनों बाद उसका मित्र किसन उससे मिलने उसके घर पहुँचा तो पता चला कि वह तो काफ़ी समय पूर्व ही मकान छोडकर वृद्धाश्रम जा चुका है, अब वह उससे मिलने वहाँ पहुँचा, अपने मित्र को आया देख रामप्रसाद को बेहद ख़ुशी तो हुई लेकिन मिलते ही गले लगकर जार-जार रोते हुए उसने कहा:-किसन तुम ठीक कहते थे, लेकिन मेरी अकल पर पत्थर पडे थे, मकान यदि मेरे नाम पर होता तो वे इतनी हिम्मत कदापि नहीं करते, आँख मूंदकर आदमी को भरोसा कभी नहीं करना चाहिये, अब पछ्ताए का होत है, जब चिडिया चुग गई, खेत।