जब जंगल जल उठे अपनी ही छाँव / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अक्सर गर्मी में जंगलों को जलते तो सुना है , लेकिन कभी जंगलों को उनकी अपनी ही छाँव में जलते देखा है? जब जंगल खुद अपनी ही छाँव में जल उठे तो कैसा अजीब लगता होगा न ... ये तो वही बात हुई कि सागर एक दिन खुद में ही डूब जाए और शिकायत भी करे कि वो प्यासा है| जिस सागर में दुनियाँ जहान की मीठी नदियाँ आकर मिलती हैं| वो भला कैसे प्यासा हो गया? इसी तरह, जो जंगल मनुहार कर के सावन को बुलाते हैं, और धरती की प्यास बुझाते हैं| जो अपने हरे भरे वृक्षों की छाँव में पंथियों और पंछियों को आश्रय देते हैं | वो जंगल उसी छाँव में कैसे जलने लगते है?

दरअसल सभी के अपने-अपने दुःख और अपने-अपने सुख हैं| जंगल में भटकते हुए हिरन जिस खुशबू से परेशान है | वो उसी की कस्तूरी है उसे कौन बताये ? चाँद , जो हमेशा से सुन्दरता और प्रेम का प्रतीक बना बैठा है| उसके पास दर्द के गहरे स्याह गड्डे है जिसे कोई प्रेमी देख नहीं पाता| सूरज की अपनी पीड़ा है सारे ब्रम्हांड का स्वामी है, जो समूची धरती को जीवन देता है| उसकी उष्मा और तपिश इतनी की कोई समीप जाना ही नहीं चाहता | सूरज अकेले ही जलता रहता है कोई उसके संग नहीं क्यों? सावन के अपने दुःख की धरती की प्यास बुझाते-बुझाते वो कितना प्यासा हो गया| कोई नहीं जानता क्यों? धरती के अपने प्रश्न कि सदियों से सहते-सहते थक गयी | उसके पुत्र माँ-माँ कह कर उसे उलीचते रहे और किसी ने भी उसके सीने पर पड़ी दरारों को गिना क्यों नहीं?

आकाश का अपना अलग सूनापन है- कोई तारे उधार ले गया| कोई चाँद माँग कर ले गया| कोई आया तो मेघ चुरा ले गया तो कोई काली घटा को छीन के ले गया | आकाश फिर खाली हो गया क्यों ?

हमारे जीवन में भी तो यही होता हैं ना | दुनिया के लिए जीने वाले, दुनिया के दर्द को गले लगाने वाले | दुनिया के लिए बहने वाले, महकने वाले, खिलने वाले, खुशबू बिखेरने वाले, रोने वालों को अपना कंधा देने वाले, दूसरों के आँसू पोछने वाले, दूसरों के जीवन के उलझे हुए धागों को सुलझाने वाले क्यों एक दिन उदास हो जाते हैं दुखी हो जाते हैं?

ये जंगल खुद अपनी छाँव में क्यों जलने लगते हैं ? रूह तो उनकी भी होती है ना जो दूसरे को रूहानी सुकून देते है | प्यास तो उनकी भी होती है ना जो दूसरों को सावन देते हैं | सागर भी तो, चाहता है की कोई मीठी गागर उसके खारेपन को ख़तम कर दे | कोई घटा आकाश के सूनेपन को भर दे| तो चलिए ना किसी सागर की गागर बन जाए | किसी आकाश की घटा किसी धरती के सूखे टुकड़े पर चलो कोई सावन रख दें |

चलिए ये पंक्तियाँ सुनिए:

"बादलों का नाम ना हो ,अम्बरों के गाँव में जलता हो जंगल खुद अपनी छाँव में यही तो है मौसम, आओ तुम और हम बारिश के नगमे गुनगुनाएं थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ दर्द को बांसुरी बनाए "

तो, आईये हम अपने दर्द को अबकी बार बाँसुरी बना लें| किसी जंगल को अपनी हीं छाँव में जलने से बचा लें...