जब तक ज़िंदा हैं / कुँवर दिनेश
बात छोटी- सी होती है, मगर जब अनावश्यक रूप से उसे खींचा जाए तो वह बतंगड़ बन जाती है। और जब बात का बतंगड़ बन जाए तो ज़िन्दगी में मुश्किलें बढ़ने लगतीं हैं; सुख-चैन हराम होने लगता है। मगर कुछ लोग ऐसे सैडिस्टिक होते हैं जो दूसरों को सताने में, जलाने में, चोट पहुँचाने में ही अपना चैन-सुकून पाते हैं। ऐसे लोग समाज में तनाव बनाए रखने में अपना पूर्ण सहयोग देते हैं। क्योंकि दूसरों का तनाव ही उनके सुख का आधार होता है।
आए दिन गाँव में किसी न किसी से झगड़े-मुक़द्दमेबाज़ी के लिए मान सिंह व उसका परिवार मशहूर था। जैसा घर का मुखिया, वैसी ही उसकी पत्नी; वैसे ही उसके पुत्र। तीन पुत्र थे ― सभी एक से बढ़कर एक ― उद्दण्ड; इन्होंने सबकी नाक में दम कर रखा था। बीच वाला, वीरेन्द्र तो आए दिन कोई न कोई बखेड़ा कर ही देता था। वह गाँव के हाई स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ता था। स्कूल में भी शरारतों में अव्वल और गाँव में भी साथ के सभी हम-उम्र बच्चों के साथ वह किसी न किसी रूप में बदतमीज़ी कर दिया करता था। अभी ताज़ा घटनाक्रम में उसने पड़ोस में जीत सिंह के बेटे हेमेन्द्र के साथ छेड़खानी शुरू कर दी थी। हेमेन्द्र भी गाँव के स्कूल में छटी कक्षा में पढ़ रहा था। वह बड़ा ही शालीन एवं अन्तर्मुखी-सा रहने वाला बच्चा था। किसी से ज़्यादा बात नहीं करता था। पढ़ने में अच्छा था। बस ख़ुद ही में मस्त रहता था।
उस दिन शनिवार को स्कूल में बाल-सभा हुई और जल्दी छुट्टी हो गई। दोपहर बाद गाँव के सभी बच्चे चिड़ियों के झुण्ड की भान्ति खेलते-कूदते, ऊँचे स्वर में शोर-ओ-ग़ुल करते हुए घर लौटे। जल्दी छुट्टी होने से और अगले दिन रविवार के अवकाश से सभी बहुत ख़ुश थे। कोई एकल दौड़ता हुआ, कोई अपने आड़ी के गले में बाहें डाले, कोई बातें करता हुआ, कोई कुछ खाता हुआ, कोई मस्ती में झूमता हुआ, घर की ओर बढ़ रहा था; मगर हेमेन्द्र बड़े संजीदा मूड में घर पहुँचा। आँगन में बूढ़ी दादी घर की दीवार से उतरती धूप को सहेज रही थी; चटाई पर बैठी माँ शाम के भोजन की तैयारी में जुटी दाल से कंकर चुन रही थी; चार बरस की छोटी बहन मिट्टी का घर तैयार करने में लगी हुई थी। हेमेन्द्र ने न तो किसी से बात की न किसी की ओर देखा; सीधा बीह में घुसा और ज़ोर से बस्ता पटक कर अपने कमरे में जा बैठा।
“बहू, जा भीतर जाकर देख, प्रदीप उखड़ा-उखड़ा सा क्यों है?” दादी ने हेमेन्द्र की माँ से कहा।
“ हेमेन्द्र! . . . हेमू बेटा, बाहर तो आ . . . क्या हुआ?” माँ ने आवाज़ लगाई।
हेमेन्द्र बाहर नहीं आया।
माँ अपना काम छोड़कर भीतर की ओर चल दी। “क्या बात है? बेटा, तू उदास क्यों है आज?” माँ ने हेमेन्द्र के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा। “किसी से तेरा झगड़ा तो नहीं हुआ है?”
माँ ने थोड़ा झुककर हेमेन्द्र के चहरे को देखा ― उसकी आँखें तराई हुईं थीं।
माँ के बार-बार पूछने पर वह फूट पड़ा। और रोते-रोते कहने लगा, “मुझे वीरेन्द्र भाई ने मारा . . . वह रोज़ मेरा रास्ता रोककर मुझे तंग करता है . . .”
“वीरेन्द्र तंग करता है? भला किस लिए?” माँ ने पूछा।
“कभी कहता है मेरा बैग भी उठा, कभी कहता है दुकान से मेरे लिए बीड़ी लेकर आ, और कभी मुझे भी सुट्टा लगाने को कहता है . . . कभी-कभी तो मेरे बैग से मेरा लंच निकाल लेता है और अपने दोस्तों के साथ मिलकर खा जाता है . . . मैं मना करूँ तो मुझे मारने लगता है . . .”
“वो इतना सब करता रहा है तेरे साथ, मगर तूने यह बात हमें पहले क्यों नहीं बताई? . . . तुझे हम लोगों से यह सारी बात कहनी चाहिए थी . . . आने दे अपने पापा को, उनसे कहेंगे . . . वो कल उससे निपट लेंगे . . .”
शाम के समय हेमेन्द्र के पिता जीत सिंह घर लौटे तो माँ ने उनको सारे घटनाक्रम के बारे में बताया: “देखो जी, हमारा बेटा बहुत सहमा हुआ लगता है . . . इस छोटी उम्र में इसके दिल में ऐसा डर नहीं बैठना चहिए . . . आप कल ही इस समस्या को हल करो, बस!”
उधर जीत सिंह की बूढ़ी माँ ने भी ज़ोर देकर कहा, “हाँ, बेटा, इस छोटी-सी उम्र में अगर इस बच्चे के दिल में डर बैठ जाएगा, तो वह आने वाली ज़िन्दगी की मुसीबतों से कैसे लड़ेगा? और फिर इन सरीकों के बीच इज़्ज़त-मान के साथ, ठुक के साथ कैसे रह पाएगा?”
“ठीक है . . . ठीक है . . . मैं देखता हूँ क्या करना चाहिए . . .”
फिर जीत सिंह ने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए उसको आश्वासन दिया, “तू चिन्ता ना कर, बेटे, कल मैं स्कूल तक तेरे साथ ही जाऊँगा . . .।” फिर थोड़ी ठिठोली के साथ उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहने लगा, “तू डरता क्यों है? ऐसे टटपूंजियों से दुनिया भरी पड़ी है . . . इनका मुक़ाबला करना सीख . . . तू राजपूत है, तुझे ऐसे हरामियों से लड़ने में पीछे नहीं हटना है . . .” ऐसा कहकर जीत सिंह ने बेटे की पीठ ठोंकी। पिता के आश्वासन से जी हल्का होने पर और ग़ुस्सा शान्त होने पर हेमेन्द्र ने पिता के साथ भोजन किया और कुछ देर टी.वी. देखकर सो गया।
जीत सिंह व उसकी पत्नी अपने बच्चे की मनोदशा के विषय में बात कर रहे थे: “देखो जी, हमारा बेटा बहुत ही सीधा और कोमल स्वभाव का है। वीरेन्द्र जैसे बिगड़े हुए लड़कों से यह कैसे निपटेगा? वे बड़े दुष्ट हैं; उन मुए शरारती छोरुओं से हमारे बेटे को दूर रखना होगा,” हेमेन्द्र की माँ बड़े गम्भीर स्वर में बोली।
“अरे तू फ़िक़्र ना कर; उन लोफ़रों को मैं देख लूँगा। चैन से सो जा अभी . . .,” जीत सिंह ने पत्नी की आशंका को दूर करते हुए कहा।
सुबह हेमेन्द्र स्कूल जाने के लिए तैयार हुआ तो पिता जीत सिंह ने उसे हिम्मत बँधाई कि वह नि:शंक होकर स्कूल जाए। उन्होंने उसे हिदायत दी कि वह अकेले ही चले और वे स्वयं कुछ क़दम पीछे रहकर निरन्तर उस पर अपनी दृष्टि बनाए रखेंगे; यदि वीरेन्द्र उसे सताए तो वे स्वयं उसे देख लेंगे। पिता की बात सुनकर हेमेन्द्र का हौसला बढ़ गया और वह स्कूल के लिए निकल पड़ा। कुछ ही देर में पिता भी उसके पीछे निकले। हेमेन्द्र अभी आधा किलोमीटर ही चला होगा कि मार्ग के एक ओर चट्टान पर वीरेन्द्र अपने एक मित्र के साथ बैठा दिखाई दिया। हेमेन्द्र उसे नज़र-अंदाज़ कर अपनी राह पर आगे बढ़ रहा था कि तभी वीरेन्द्र ने उसे बुलाया ― “अरे हेमू! कहाँ जा रहा है फेटा-फेटा (टेढ़ा-टेढ़ा)? . . . इधर आ और मेरा बैग भी उठा ले . . .” हेमेन्द्र ने उसका बैग उठाने से इन्क़ार किया तो वह उसे गालियाँ बकने लगा। फिर थोड़ी हिम्मत के साथ हेमेन्द्र ने उसे टोका, “भैया, गाली क्यों निकालते हो?” इस पर वीरेन्द्र और उसका मित्र तिलमिलाकर उठे और उसकी ओर बढ़े। हेमेन्द्र को गले से पकड़ कर वीरेन्द्र ने एक और गाली दी कि तभी जीत सिंह मौक़े पर पहुँच गया और उसने वीरेन्द्र की बाज़ू पकड़ कर एक ओर खींचा और आव देखा न ताव, एक तमाँचा उसके मुँह पर जड़ दिया। और साथ ही घुमाकर उसके पिछवाड़े पर एक ज़ोरदार लात भी टिका दी। वीरेन्द्र का मित्र तो तुरन्त वहाँ से भाग लिया। जीत सिंह ने कड़े शब्दों में वीरेन्द्र को डाँट पिलाई और आईंदा ऐसे व्यवहार से बाज़ आने को कहा। वह चुपचाप सुनता रहा। जीत सिंह उसे एक ओर धकेल कर हेमेन्द्र का हाथ थामे आगे बढ़ गया। और उसने हेमेन्द्र से थोड़ा ऊँचे स्वर में कहा, “अगर फिर कभी यह हरामी तंग करे तो मुझे बताना . . . मैं इसकी टाँगें तोड़ दूँगा।” शाम को स्कूल की छुट्टी के बाद जब बच्चे घर पहुँचे तो गाँव में हंगामा हो गया। वीरेन्द्र ने अपनी माँ से शिक़ायत की कि जीत सिंह चाचा ने उसे मारा और टाँगें तोड़ डालने की धमकी भी दी। बस फिर क्या था उसकी माँ ने शोर कर दिया। जीत सिंह के आँगन में पहुँच कर उसने उसकी पत्नी और बूढ़ी माँ को खरी-खोटी सुनाना शुरू कर दिया। जीत सिंह की पत्नी ने उसे सच्चाई बारे बताना चाहा मगर वह उन्हें बोलने का अवसर ही नहीं दे रही थी। वह लगातार बोलती रही। “पुराणी टस्सल तुसा अबे बच्चेया पर काडणी? (पुरानी ख़ुंदक को तुम लोग अब बच्चों पर निकालोगे?) मुओ, कुछ तो शरम करो . . .” वह दोनों परिवारों के बीच पिछले लगभग साठ सालों से चली आ रही दुश्मनी का हवाला दे रही थी। तीन दशकों से तो दीवानी के मुक़द्दमे कचहरी में चल ही रहे थे। इस मुक़द्दमेबाज़ी का कोई सिरा नहीं मिल रहा था कि यह नया बखेड़ा खड़ा हो गया। वीरेन्द्र की माँ ने धमकी दे डाली, “ए बात दूर तक जाओगी . . . बच्चे पर हाथ उठाणे का सबक़ तो ज़रूर देंगे हम तुम लोगों को . . .” इतना कहकर वह चली गई।
घर पहुँच कर उसने अपने पति मान सिंह को फ़ोन पर सारे घटनाक्रम के विषय में बताया। मान सिंह राजस्व विभाग में पटवारी से क़ानून-गो बन गया था और पदोन्नति पर ज़िले के दूरगामी क्षेत्र में कार्यरत था। वह माह में एक-आध बार ही घर आता था। अपने बेटे को जीत सिंह द्वारा पीटे जाने की ख़बर से वह आग-बबूला हो गया। उसने पत्नी से कहा कि पंचायत में शिक़ायत दर्ज करानी होगी . . .। दो दिन बाद रविवार की छुट्टी पर वह घर आएगा तो मामला पंचायत में ले जाएगा ।
शनिवार शाम को वह घर आया तो उसने पत्नी के नाम से शिक़ायत तैयार की, जिसमें लिखा―चूँकि उसका पति सुदूर क्षेत्र में कार्यरत है, वह घर पर केवल बच्चों के साथ रहती है और उसे पड़ोसी जीत सिंह के परिवार से बहुत ख़तरा है। हाल ही में जीत सिंह ने उनके लड़के पर जानलेवा हमला किया है, जिसके लिए पंचायत उसे सज़ा दे और उनके परिवार की सुरक्षा के विषय में भी सोचे।
मान सिंह तीन दिनों की छुट्टी लेकर आया था। उसने पंचायत से तुरन्त कार्यवाही के लिए निवेदन किया। अगले ही दिन पंचायत बिठाए जाने का निर्णय लिया गया और उसमें जीत सिंह को हाज़िर होने के लिए कहा गया।
सभी पंचों की मौजूदगी में प्रधान ने शिकायत-कर्त्ता मान सिंह की पत्नी से अपना पक्ष रखने को कहा। नाक तक घूँघट डाले, सिर को थोड़ा नीचे झुकाए, अपने पति की बग़ल में बैठी सरला ने कुछ हिन्दी में और कुछ स्थानीय बोली में अपना बयान दर्ज कराया: “जी, इन्होंने म्हारे लड़के पर जानलेवा हमला करा ए . . . हाँऊ तो घरे कल्ली रऊँ . . . इना लोका रा क्या पता . . . ए तो अब बच्चेयाँ पर बी टैक करणे लगी गे . . .” साथ-साथ मान सिंह उसके बयान को हिन्दी में दोहराता रहा।
उसके बाद जीत सिंह का बयान दर्ज किया गया। उसने सारे घटनाक्रम के बारे में पंचायत को अवगत कराया और कहा: “मैं पंचायत के आगे यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह महज़ बच्चों का आपसी झगड़ा था; मैंने वीरेन्द्र को मेरे बेटे को बेवजह तंग ना किए जाने पर थोड़ा उसे फटकार दिया था . . . इसका कतई यह मतलब नहीं कि मैंने उस पर जानलेवा हमला किया या फिर मेरे से इन लोगों को जान का ख़तरा हो गया है . . .”
अपने बयान में उसने यह भी जोड़ दिया: “मान सिंह की तो फ़ितरत ही ठीक नहीं है . . . आए दिन कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है . . . ज़मीन का मामला तो अभी तक चल रहा है . . .”
इस बात पर मान सिंह भड़क गया और लगा चिल्लाने, “ओ जीत सिंह, तू मेरे को बोलता है . . . आपणी बोल . . . अब तू गुँडागर्दी पर आई गया ए, भाई . . . मां छाडणे तो नहीं तुस्से . . .”
प्रधान और पंचों ने दोनों को आपसी मुबाहसे से रोका और सभा की गरिमा बनाए रखने को कहा। दोनों तरफ़ के बयान सुनकर प्रधान ने उनसे सुलह कर लेने को कहा: “देखो भाई, हमने दोनों पक्षों के बयान ले लिए हैं . . . यह कोई इतना बड़ा मसला नहीं है, बच्चों का झगड़ा है, उनको समझाया जा सकता है और सूझ-बूझ से, प्यार से रहा जाए, इसके ले आपस में समझौता कर लो . . . इस मामले को ज़्यादा तूल देने से कोई फ़ायदा नहीं।”
जीत सिंह ने पंचायत से सहमति जताई मगर मान सिंह नहीं माना। उसने कह दिया वह पंचायत के निर्णय को नहीं मानता, वह तो पुलिस में केस दर्ज कराएगा।
गाँव की पुलिस चौकी में हवलदार दीपराम उसका ख़ास वाक़िफ़ था। ज़मीन के एक मामले में―पटवारी के पद पर रहते हुए―मान सिंह ने उसकी मदद की थी, जिससे दोनों में काफ़ी घनिष्ठता थी। पंचायत से निकलकर मान सिंह पुलिस चौकी पहुँच गया। हवलदार से पूरी कहानी कहकर उसने रपट लिखवा दी। एफ़. आई. आर. पत्नी सरला के नाम से ही दर्ज कराई ताकि केस का वज़न बढ़े कि एक महिला को किस तरह से डराया-धमकाया जा रहा है। हवलदार दीपराम ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह चौकी के इंचार्ज ए. एस. आई. सज्जन सिंह को भी पटा लेगा। बस थोड़ा सेवा-पानी तो करना पड़ेगा . . .। इतना सुनते ही मान सिंह ने ज़ेब से दो सौ रुपए निकाल कर दीपराम की ज़ेब में डाल दिए . . . और कह दिया, “सेवा-पानी की फ़िक़्र ना करना, म्हाराज . . . बस केस सॉलिड बनाना . . .”
हवलदार ने उन्हें निश्चिन्त हो कर घर जाने को कहा ।
रविवार का दिन था। मगर शाम को ही हवलदार दीपराम चौकी इंचार्ज सज्जन सिंह को लेकर मामले की तफ़्तीश के लिए गाँव में पहुँच गया। दोनों पहले शिकायत-कर्त्ता के घर पर गए। मान सिंह ने उनकी ख़ूब आवभगत की। शाम के पाँच बज चुके थे . . . सूरज ढल रहा था . . . तो उसने चिकन के साथ अँग्रेज़ी दारू उनको पेश कर दी। सज्जन सिंह बहुत ख़ुश हुआ। दो-दो पैग टिकाकर दोनों आरोपी जीत सिंह के घर जाने को तैयार हो गए। बाक़ी का सेवा-पानी उसके बाद में होना था।
अंधेरा हो चुका था। दोनों पुलिस वाले जीत सिंह के आँगन में पहुँच गए। “जीत सिंह का घर यही है, भई?” ― हवलदार ने आवाज़ लगाई और दरवाज़े पर अपनी लाठी ठोंकी।
जीत सिंह अपने परिवार वालों के साथ चूल्हे के पास बैठा हुआ था। आवाज़ सुनकर वह बाहर आया और पुलिस को देखकर थोड़ा सहम-सा गया। आँगन में खड़े पुलिस कर्मी उसे यमदूत से लग रहे थे। मामला चाहे कुछ भी हो वर्दी वालों का गाँव में किसी के घर पर आ पहुँचना बहुत बुरा समझा जाता था। लोग इनसे दूरी बनाए रखने के लिए अक्सर आपसी मामलों को पंचायत में ही सुलझाना बेहतर मानते थे, लेकिन मान सिंह इनको घर-आँगन तक लेकर आ गया था।
जीत सिंह ने हाथ जोड़कर उनसे पूछा: “क्या बात हो गई, म्हाराज . . . आप लोग इस वक़्त यहाँ?”
“जीत सिंह जी, आपके ख़िलाफ़ शिक़ायत आई है हमारे पास . . . इस बारे तफ़्तीश करनी पड़ेगी . . .” सज्जन सिंह बोला। “वो तो ठीक है, म्हाराज . . . पर इस वक़्त . . .”
“ओए, तुम लोगों की गुंडागर्दी का कोई वक़्त नहीं; हमारा वक़्त पूछ रहा है, भई तू . . .,” सज्जन सिंह थोड़ा गर्म हो गया।
“बैठ कर बात करते हैं, जनाब . . . इधर आओ आप लोग . . .,” जीत सिंह ने आँगन के बाईं तरफ़ बने बैठक वाले कमरे में बत्ती जलाकर उन्हें बिठाया और फिर चाय-पानी पूछने लगा।
“ओए चा-पाणी छड्ड . . . जे बता तैंने सरला के लड़के के साथ मार-पीट क्यूँ की, भई?” सज्जन सिंह उसको दबका मारते हुए बोला।
“जनाब, ये तो बहुत ही छोटी-सी बात थी . . . अब ये लोग पुलिस में भी पहुँच गए?” जीत सिंह विनम्रता के साथ बोला।
“ओए तू फ़ौजदारी पर उतर आया . . . और उनको जान से मारने की धमकी देता है . . . फिर बोलता है छोटी-सी बात है . . . वो लोग पुलिस में नहीं आएँगे, तो कहाँ जाएँगे?” सज्जन सिंह की आँखें लाल हुई जा रहीं थीं।
“ये तो बच्चों का झगड़ा था, म्हाराज . . .”
सज्जन सिंह उसे बीच में ही टोकते हुए बोला, “ओए बच्चों का झगड़ा था, तो तूं क्यों बीच में गया? तू दरोग़ा है?”
“नहीं . . . नहीं . . . जनाब मैं तो शरीफ़ आदमी हूँ . . . मेर बच्चा आए दिन रोता हुआ घर आता था, रोज़ की एक ही शिक़ायत . . .,” जीत सिंह अभी बात कर ही रहा था कि सज्जन सिंह ने फिर टोक दिया -“ओए बस कर . . . अपना बयान दर्ज करा हमारे पास . . . बाक़ी हम तेरे को चौकी में देखेंगे . . .” सज्जन सिंह ने हवलदार दीपराम को कारर्वाई शुरू करने को कहा।
एक सादे कागज़ पर जीत सिंह का बयान लिखकर, हवलदार ने उसे दस्तख़त करने को कहा।
बयान में लिखा गया कि जीत सिंह ने सरला के बेटे वीरेन्द्र को पीटा और उन लोगों को जान से मारने की धमकी दी . . .। जीत सिंह ने उनके लिखे बयान पर दस्तख़त करने से इन्क़ार कर दिया। वह बोला इसके लिए वह पहले अपने बड़े भाई से पूछना चाहता है। इस पर सज्जन सिंह भड़क उठा, “ओए तेरा भाई डी.सी. लगया है . . . तू क़ानून को नी जाणदा?”
पुलिस के साथ उलझे हुए जीत सिंह को उसकी पत्नी और बेटा हेमेन्द्र खिड़की से झाँक रहे थे। उन्होंने तुरन्त शिमला में कार्यरत जीत सिंह के बड़े भाई को फ़ोन लगाकर सारी बात कह दी थी।
अभी जीत सिंह पुलिस वालों को मनाने का प्रयास कर ही रहा था कि उसके फ़ोन पर भाई की कॉल आ गई। उसका हौसला बढ़ गया। आबकारी एवं कराधान विभाग में निरीक्षक होने के साथ ही भाई की पुलिस अफ़सरों से भी अच्छी पहचान थी। वर्तमान में पुलिस अधीक्षक तो कॉलेज में उनके सहपाठी रहे थे।
भाई की कॉल सुनने के लिए जीत सिंह बाहर निकला। उसने भाई को बताया कि चौकी के दोनों पुलिस वाले शराब पीकर बेवक़्त घर पर आ धमके हैं और क़ानून की धौंस मार रहे हैं। भाई ने उससे कहा कि अभी बयान पर दस्तख़त करने की कोई ज़रूरत नहीं है; अभी वह शालीनता के साथ उन दोनों को वहाँ से चले जाने को कहे और अगले दिन औपचारिक ढंग से बयान लेने को कहे। तब तक वह थाने में सब सैटिंग कर लेंगे।
जीत सिंह ने भीतर आकर दोनों पुलिस वालों को हाथ जोड़कर कहा, “देखो, जनाब जी, मैं अभी तो दस्तख़त नहीं करूँगा . . . मैं कल ही बयान दर्ज कराऊँगा . . . यह तो वक़्त नहीं किसी तरह की कारर्वाई करने का . . .”
“ओ तू समझ नहीं रहा है, जीत सिंह . . . वक़्त के बारे में हमें ना सिखा . . . मेरे को लगता है तेरा वक़्त ठीक नहीं है . . .,” सज्जन सिंह रुआब दिखा रहा था।
मगर जीत सिंह भी अड़ गया: “जनाब जी, अभी तो आप रहने ही दो . . . आपने तो पी भी रखी है . . .”
यह बात सुनकर दोनों खड़े हो गए और सज्जन सिंह बौखलाकर बोला-“ओए तेरी होशियारी निकल जाणी ए सारी . . . तू कल चौकी तो आ . . . सवेरे ठीक ग्यारह बजे पहुँच जाणा . . . देख लेंगे . . .”
बुड़बुड़ाते हुए दोनों वहाँ से निकल गए और फिर से मान सिंह के घर पहुँच गए . . . वहाँ से खा-पीकर देर रात में ही चौकी को गए।
अगले दिन ग्यारह बजे जीत सिंह चौकी गया। मान सिंह व उसकी पत्नी सरला और पुत्र वीरेन्द्र भी वहाँ पहले ही से पहुँचे हुए थे। लेकिन आज इंचार्ज सज्जन सिंह के सुर कुछ बदले हुए थे।
उसने जीत सिंह और मान सिंह, दोनों से बाहमी सुलह कर लेने को कहा लेकिन दोनों में कोई समझौता नहीं हो सका। इस पर सज्जन सिंह ने दोनों को अगले दिन शिमला के थाने में पहुँचने को कहा, जिसके अन्तर्गत वह चौकी पड़ती थी। उसने बताया बड़े साहब ने बुलाया है और वहीं तय होगा आगे क्या करना है।
दरअसल जीत सिंह के भाई ने सुबह ही एस.पी. से चौकी में फ़ोन करा दिया था कि मामला तुरन्त आपस में ही सुलझाया जाए; बात न बने तो सब थाने में पहुँचें।
अगले दिन सभी थाने में पहुँचे। वहाँ जीत सिंह के भाई भी पहुँच गए थे। थाना के इंचार्ज डी. एस. पी. ने उन सबको अपने कक्ष में बिठाया और कुछ देर इंतज़ार करने को कहा और बताया कि अभी एस.पी. साहब भी आ रहे हैं। पन्द्रह मिनट में एस.पी. साहब की कार थाने के गेट पर पहुँच गई। जैसे ही उन्होंने प्रवेश किया, सभी खड़े हो गए और पुलिस कर्मी सैल्यूट करने लगे, “जय हिन्द, जनाब!”
“जय हिन्द” कहकर उन्होंने सैल्यूट का जवाब दिया और उस मामले में शिकायत-कर्त्ता को अपना पक्ष रखने को कहा। मान सिंह कुछ कहने लगा, मगर डी. एस. पी. ने उसे रोका और पूछा शिक़ायत किसके नाम से है। तो सरला ने घूँघट नाक तक खींच कर अपने मुँह को बाँए कँधे पर झुकाकर पूरी कहानी सुनानी शुरू की-“एड़ा ए ना जी . . . म्हारे को इन लोगों से बहुत ख़तरा ए जी . . . इन्होंने तो म्हारे लड़के को मार ई देणा था जी . . .”
इस पर एस. पी. साहब बोले, “देख माई, ये बच्चों का झगड़ा है, इसको इतना तूल मत दो . . . आपस में सुलह करो और शान्ति से रहो . . .” बीच में ही जीत सिंह के भाई ने एक पंक्ति जोड़ दी, “जनाब, इन्होंने तो हमारे को धुँआ दे रखा है . . . ज़मीन के केस पिछले तीस सालों से चल रहे हैं, ये शान्ति से कहाँ रहने देते हैं . . .”
एस. पी. ने उन्हें ख़ामोश रहने का इशारा करते हुए सरला से कहा, “देख माई, इस तरह मुक़द्दमेबाज़ी में क्या रखा है? अपना क़ीमती वक़्त, सुकून और पैसा, सब वेस्ट हो जाता है इन मुक़द्दमों में . . . तीस सालों से फँसे हुए हो तुम लोग, क्या मिल गया? ज़मीन-जायदाद सब यहीं छूट जानी है . . . आपस में प्यार-मुहब्बत से रहो, शान्ति से रहो, लाइफ़ का मज़ा लो . . . यूँ ही छोटी-छोटी बातों को बढ़ाना नहीं चाहिए . . . बुड्ढे हो गए तुम लोग लड़ते-लड़ते, अब तो चैन की साँस लो . . . मेरी बात समझ में आ रही है?”
इस पर सरला और मान सिंह सिर हिलाते रहे और चुप रहे।
एस. पी. ने फिर पूछा, “क्यों माई, ऐसा आख़िर कब तक चलेगा?”
इस बार सरला ने घूँघट थोड़ा और नीचे को सरकाकर कहा, “जदा तक बे जिऊँदे ए जी . . .”
एस. पी. साहब ने जीत सिंह के भाई से पूछा, “क्या कहती है माई? मेरी तो समझ में नहीं आ रहा . . .”
जीत सिंह के भाई ने बताया, “जनाब, यह कह रही है ― जब तक ज़िंदा हैं . . .”
यह सुनकर एस. पी. थोड़े ग़ुस्से से बोले, “बड़े बेहूदा लोग हैं . . . ले जाओ इनको यहाँ से परे और इनके बयान लो . . .”
और दोनों तरफ़ से एफ़. आई. आर. और काउंटर एफ़. आई. आर. दर्ज करा दी गईं और एक नया मुक़द्दमा शुरू हो गया . . . ¡