जब दरवाज़ा बनता था / अभिज्ञात
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जब बेचन अड़तीस का हुआ तो एकाएक बेचैन हो उठा। उसके पिता ने उससे जो कुछ अंतिम समय में कहा था वह याद आने लगा। उसके पिता ने उससे वचन लिया था कि वह गांव के स्कूल में एक दरवाज़ा लगायेगा। उसके पिता स्कूल में शिक्षक थे और पेड़ के नीचे लगने वाला स्कूल उनके जीते जी दो कमरों के स्कूल में तब्दील हो चुका था। गांव के गरीब बच्चों की फीस से ही उनका और उनके एक सहकर्मी का वेतन मिलता था जिससे उनके घर का चूल्हा ही मुश्किल से जलता था। इतना नहीं बचता था कि वे उसमें से स्कूल को भी कुछ दे पायें। अलबत्ता एक विधवा ने अपनी ज़मीन स्कूल के नाम दे दी थी जिस पर स्कूल चलता था। गांव में हर वर्ष चंदा जुटता और धीरे-धीरे दो कमरे भी बन गये। इसी में उनकी उम्र निकल गयी। जब वे स्कूल सुबह पहुंचते तो पाते कि कमरे में आवारा भटकते मवेशियों ने गंदगी कर रखी है। उम्र हो जाने के कारण अब लोगों से चन्दा जुटा पाने की सामर्थ्य नहीं बची थी। वे सोचते थे कि काश उनके पास पैसा होता तो वे एक दरवाज़ा इस स्कूल में अपने पैसों से लगा देते। मरते समय उन्होंने अपने बेटे बेचन से बस यही मांगा था कि जब वह कमाने-धमाने लगे तो स्कूल में उनके नाम पर एक दरवाज़ा अवश्य लगा दे।
पिता की मौत के बाद बेचन कम उम्र में ही ठेला खींचने के काम में जुट गया और एक बार काम का बोझ जो उसके कंधों पर पड़ा तो कभी हलका नहीं हुआ। उसकी शादी हुई, बच्चे हुए। मशक्कत भरी ज़िन्दगी जीते हुए वह अपने परिवार के भरण-पोषण में जुटा रहा। देखते देखते बीस बरस कट गये। बच्ची सयानी होने को आयी। दो एक साल में उसकी शादी करनी होगी। बेटा दूसरे नम्बर पर है और अब मैट्रिक में जायेगा। हर साल वह अपने पिता की बात पर अमल करने की कोशिश करता मगर विफल रहता। पाई- पाई जोड़ता मगर कोई न कोई काम सामने आ जाता और अपने पिता की इच्छानुसार स्कूल में दरवाज़ा लगाने की योजना खटाई में पड़ती चली गयी। उसे लगा अब यदि वह अपने पिता को दिया हुआ वचन पूरा नहीं करता है तो बहुत देर हो जायेगी। दो-एक साल में बेटी के हाथ पीले करने होंगे तो जो रुपये बचेंगे वे उसी काम में लग जायेंगे। फिर क्या पता बेटे की फरमाइशें किस तरह की हो जायें और वह अपने पिता की जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल हो जायेगा। उसने तय किया कि बेटी के हाथ पीले करने से पहले यानी संतान के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करने के पहले ही वह अपने पिता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी करेगा।
उसे याद आया वह एक ही गांव में रहते हुए भी बरसों से उस स्कूल में शर्म के कारण नहीं गया है जहां उसे दरवाज़ा लगाना है। अब तो उसे स्कूल की बनावट तक याद नहीं। वैसे भी प्राइमरी के शिक्षक का बेटा होने के बावजूद वह निरक्षर ही रह गया। वह बचपन में अपनी मां के साथ अपने ननिहाल गया। उसे वहां इतना प्रेम मिला और शरारत करने की इतनी छूट कि वह अपनी नानी के यहां ही चार साल लगातार रह गया। और जब लौटा तो उम्र बढ़ी होने के कारण शर्म के मारे वह स्कूल नहीं गया। धत्त छोटे-छोटे बच्चों के साथ वह क्लास में नहीं बैठेगा, उसने पिता से ज़िद पकड़ी और स्कूल में पहले दिन ही वह गया जो आखिरी दिन साबित हुआ। अब उसे लगता है कि यदि वह स्कूल गया होता तो ठेला खींचने की हाड़तोड़ मेहनत से वह बच गया होता।
बेचन फिर विफल रहा। अतिरिक्त खट कर उसने जो पैसे जुटाये पत्नी की आकस्मिक बीमारी उसे लील गयी, उल्टे कुछ कर्ज़ ही उस पर चढ़ा गयी। दिन भर की थकान के बाद वह पहले बेसुध सोता था किन्तु अब उसकी आंखों से नींद ग़ायब थी। वह रात-रात भर करवटें बदलता और सोचता रहता अपने पिता को दिये वचन के बारे में। तो क्या वह भी अपने पिता के अधूरे काम अपनी संतान के भरोसे ही छोड़ जायेगा। जागते- जागते वह एकाएक कब सो जाता पता नहीं चलता था किन्तु वह नींद में केवल दरवाज़े देखता। अलग-अलग दरवाज़े। जैसे किसी स्वप्न लोक के हों। फिर यूं हुआ कि दरवाज़ा खुलने लगा और वह उसमें प्रवेश कर जाता। अन्दर एक स्वप्नमय दुनिया होती। वह उसमें विचरण करता। दुनिया की सारी सुख सुविधाएं उस दुनिया में होतीं जिसमें वह दरवाज़े से प्रवेश करता था। कई बार तो वहां उसकी पत्नी, बेटी और बेटा बड़े मज़े करते। वह स्वप्न में देखता दरवाज़े पर अजब की नक्काशी की गयी है। नींद खुलती और वह दरवाज़ा ग़ायब हो जाता और वह दुनिया भी जहां उसे सुकून मिलता, जहां उसकी हर ख्वाइश पूरी होती।
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