जब ब्राज़ील में सूरज सिर पर था / लाल्टू

Gadya Kosh से
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“हलो! हलो!... हलो!”

वह हड़बड़ाकर उठा, लगा खिड़की से कोई बुला रहा है।

“हलो! हलो!... माइक टेस्टिंग! वन! टू! हलो! हलो! हलो!”

“ओ स्साले!” उसके मुँह से निकला। उठकर परदा हटाकर देखा। सामने वाले मैदान में, जहाँ भारी बारिश से जगह-जगह लम्बी घास उग आई है, शाम को वहाँ पंडाल लगा देखा था। हज़ार वाट की बत्तियों का प्रकाश खिड़की से छनकर आ रहा था, पर उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। वह एक अँधेरी दुनिया में आ गया है; अब सुबह कभी न होगी। एक अँधेरी दुनिया...जहाँ वह कभी सो न पाएगा...। कल रात सो न पाया था। दिव्या का ख़त बार-बार पढ़ता रहा और जैसे ही आँखें मूँदता, दिव्या के बारे में कई आशंकाएँ दिमाग कुतरने लगतीं। आज भी...

अब एक भोंडी सी आवाज़ में कोई ‘माँ’ का गुणगान कर रहा था। एक बार इसी तरह सारी रात न सो सकने पर सुबह-सुबह उसने एक लम्बा आलेख लिखा था। पहली लाइनें अभी भी उसे याद हैं...“क्या आपका सिर हर रोज़ दुखता है – दफ्तर में बेवजह आप लोगों से चिढ़ जाते हैं – घर लौटकर परिवार से हर छोटी बात पर झगड़ते हैं...इत्यादि-इत्यादि, तो इसकी वजह आपके मुहल्ले के कोने का मन्दिर या गुरुद्वारा है...।” लेख छपा, उसे डेढ़ सौ रुपये मिले।

वापस बिस्तर पर लेटकर वह सोने की कोशिश करता है। अब दिव्या फिर ख़्यालों में आ गई है। दिव्या के कभी इधर – कभी उधर दौड़ते-भागते रहने से उसे बहुत चिढ़ है। इसी बात पर वे झगड़ते भी रहते हैं। अब अकेले में उसे दिव्या बहुत बड़ी इन्सान लगती है। वह सोचता है कि ख़ुद वह कभी दिव्या जैसा हो नहीं पाएगा। एक समय था जब उसी ने दिव्या को राजनैतिक सक्रियता का पाठ पढ़ाया था। अब उसके निरंतर कुछ न कुछ करते रहने से वह घबराता है। कभी-कभी उसे लगता है कि वह उम्र के दबाव में आ रहा है। वह ख़ुद में हुए बदलावों के बारे में सोचने लगा। आखिरकार उसे एक अच्छे दोस्त की बात याद आई...“क्यों परेशान होते हो यार! घर-परिवार के झगड़ों के अपने नियम होते हैं...इनकी कोई व्याख्या नहीं होती।”

ऐसी कई बातें सोचता हुआ वह आँखें मूँदकर लेट गया। नींद नहीं आती। उठकर पास स्टूल पर रखी टेबिल लैंप जलाकर एक उपन्यास उठाया। ब्राज़ीली उपन्यास। अंग्रेज़ी में अनुवाद। दिव्या का भाई अमेरिका में रहता है, उसने भेजा है। किसी ने कहा था, ब्राज़ील में कई शहर हमारे शहरों जैसे हैं। भानु ने कहा होगा, भानु बंगाली है। शायद उसी ने कहा था कि साओ पावलो एक ब्राज़ीली सहर है, कलकत्ता जैसा है। यहाँ तक कि वहाँ सबसे अधिक लोकप्रिय खेल फ़ुटबॉल है। ब्राज़ील के बारे में वह कुछ नहीं जानता। उपन्यास में एक बहुत बड़ा रैंच है, जिसमें गाय-बैल आदि हैं। एक आदमी घोड़े पर चढ़कर उनको इधर-उधर चराने के लिए ले जाता है। कुछ बैल तो हमारी गुजराती नस्ल के हैं, जिन्हें उपन्यास में ब्राह्मी कहा गया है। उसने ऐसा कोई रैंच कभी नहीं देखा। उपन्यास में बहुत कुछ ऐसा है, जो उसे समझ नहीं आता।

थोड़ी देर में बत्ती बुझाकर फिर सोने की कोशिश की। बाहर से ढोल-करताल के शोर के साथ कई व्याकुल चीखें सुनाई पड़ीं। बीच-बीच में ‘जै माता दी-जै माता दी...।’ उसे दिव्या पर गुस्सा आने लगा। दिव्या को कभी यह समझ न आया कि यहाँ भी लड़ने को बहुत कुछ है।

क्या ब्राज़ील में भी ऐसा होता होगा? अंधेरे में ही उसका हाथ पास ही रखे उपन्यास तक गया। थोड़ी देर वह कल्पना करता रहा कि वह ब्राज़ील में है। उसकी कल्पना में कलकत्ता शहर के दृश्य आते रहे; पिछले ही साल तो गया था। पर ब्राज़ील तो बहुत बड़ा देश है। शहर, फ़ुटबॉल, इनसे अलग भी तो कुछ होगा वहाँ। फिर टी. वी. पर देखे असंख्य विदेशी चेहरों के मिले-जुले रूप उसकी आँखों में तैरते रहे। थोड़ी देर वह अनजानी दुनिया की कल्पना के भार से दबा रहा। इतनी बड़ी दुनिया। किसने बनाई? वह हँस पड़ा। ईश्वर के न होने का सबसे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि इतने शोर के बावजूद वह इन लोगों पर कहर नहीं बरपाता। सोचते-सोचते वह बिस्तर छोड़कर उठ पड़ा। आज नहीं सो सकते...।

वह कमरे से निकला। दरवाज़ा खोल बाहर बरामदे में आया। बोझिल आँखों से मैदान में लगे शामियाने की ओर देखा। अब पता चला कि आवाज़ इतनी तेज़ क्यों है। लाउडस्पीकर बिल्कुल इस मकान की ओर करके बाँधा हुआ है। जैसे उनको उस पर दया आ गई हो...यहाँ तो आ नहीं पाया, सोते-सोते ही सुन ले...।

वापस कमरे में आकर उसने कपड़े बदले। शर्ट दो बार उल्टी-पल्टी। थककर वह कुर्सी पर बैठ गया। शर्ट-पैंट पहनकर वह निकला। पंडाल में औरतें रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने इधर-उधर आ-जा रही थीं। कोई-कोई हाथ में थाल लिए मंच की ओर जा रही थीं। एक बीसेक साल का लड़का पंडाल से बाहर आकर बीड़ी सुलगा रहा था।

“सुना भाई! यह प्रोग्राम किन लोगों ने किया है? जानते हो...?” सुलगती बीड़ी से उसने पूछा।

“ओ...रमण अंकल हैं न? आप अन्दर जाइए न...।”

“कहाँ हैं रमण अंकल?...इधर हैं क्या?”

“हाँ, वो तो सामने बैठे हैं,” उसने मंच कि ओर संकेत किया और फिर कहा, “आपको दान देना है क्या...लाइए मैं दे आता हूँ – थोड़ी देर में नाम अनाउंस कर देंगे।”

उसके अंदर उपन्यास में पढ़े साँड़ का एक चरित्र जाग रहा था। उसने लड़के के चेहरे से आँखें हटा लीं। मंच की ओर देखते हुए उसने कहा “ऐसा करो, जरा रमण अंकल को यहाँ बुला लाओ; कहना मैं उस कोने के मकान से आया हूँ। जरूरी बात है।”

वह लड़का उसे घूरता रहा। उस वक्त परस्पर की नज़रों में वो भिन्न ग्रहों के वासी थे। लड़के ने बीड़ी फेंकी और पृथ्वी उनके चारों और वापस आ गई। लड़का अन्दर चला गया। थोड़ी देर बाद लौटा और बोला, “वे मुझ पर बहुत नाराज़ हो रहे हैं। बोले, आपको वहीं ले आएं। भगवान का मन्दिर है, यहाँ कोई रोक नहीं!”

अचानक तेज़ पाँवों से वह अन्दर घुसा। मंच पर ‘रोहतक वाली पार्टी’ नाम से एक बैनर लगा था और उसके ठीक नीचे एक बौने कद का आदमी कुछ हरकतें कर रहा था। मंच के पास आकर उसने जोर से कहा – “यहाँ रमण जी कौन हैं?” तभी मंच से किसी ने घोषणा की। “जै माता दी, मास्टर जानी आपकी सेवा में...।” उस बौने आदमी को मंच के बीच धकेला जा रहा था। उसकी नज़रें भी मंच पर गड़ गईं। मास्टर जानी ने अपने मोटे हाथों को सिर के ऊपर उठा कर कहा, “लेडीज़ ऐंड जेंटिलमैन, जै माता दी...।” एक हँसी का फव्वारा छूटा।

उसके अन्दर साँड़ जुगाली करने लगा था। ख़ुद को सँभालकर वह फिर चिल्लाया, “यहाँ रमण जी कौन हैं?”

दो-चार लोगों ने उसकी ओर देखा। एक व्यस्क ने हाथ उठाकर कुछ कहा, पर मंच पर जानी के मजा़क और श्रोताओं की हँसी के बीच व्यस्क की आवाज़ दब गई। अब मंच पर किसी फिल्मी गीत की पैरोडी में ‘माँ’ का भजन गाया जा रहा था।

वह और ज़ोर से चीखा, “रमण कौन हैं? मुझे बात करनी है उनसे।”

अब दो लोग धीरे से पहली पंक्ति से उठे। पहले भी कभी उसने उनको देखा था। बीच के मकानों में दूसरी मंज़िल में कहीं रहते हैं।

इशारे में उसने उनको बाहर आने को कहा।

वे लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। वह इन्तज़ार करता रहा। दो दिनों की अनिद्रा से उसके शरीर में रक्त-संचार ऐसे हो रहा था, जैसे वह महाकाश से धीरे-धीरे उतरने की अनुभूति जी रहा हो। दूर से उसने देखा कि एक आदमी ने माथे पर तिलक लगा रखा था। अचानक उसे लगा कि रैंच का साँड़ तो वह तिलकधारी है। वह उस साँड़ से बचना चाहता है, पर अब देर हो चुकी थी।

उनके पास आते ही उसने हाथ जोड़कर तीखी़ आवाज़ में कहा, “भाई साहब! मैं दो रातों से सोया नहीं हूँ; आप लोग लाउडस्पीकर बन्द कर दीजिए। मैं दमे का रोगी हूँ; मुझे तकलीफ़ हो रही है।”

उनमें से एक, जिसका माथा साफ़ था, हँस पड़ा – “लै, ये तो जगरात्ता है – इसका मतलब ही है रात जगना। आप भजन सुनो। माता की जै कहो, दमा-वमा सब ठीक हो जाएगा”

उसे लगा कि वह उस आदमी का गला घोंट देगा। पर उसकी आवाज़ अब भी शांत थी, “देखिए, आप भजन कीजिए, अच्छी बात है। मुझे इससे कोई ग़िला नहीं, पर आप मुझे तो सोने दीजिए...एक तो आपने लाउडस्पीकर हमारी ओर कर रखा है।”

“यह तो कम्युनिटी के लिए हमने किया है। भई...इतना कुछ हमने किया तो इससे कुछ बाकी लोग-बाग...क्या कहते हैं, समाज को भी कुछ मिले! आप आओ, अन्दर आइए, बैठिए...माता की जैकार करो, पुन्न तो आपका होगा।”

“आप लोग समझ नहीं रहे। आपको इस तरह हमें परेशान करने का क्या हक है? मैं पुलिस को भी बुला सकता हूँ! आप क्या समझते हैं, इसके ख़िलाफ़ कोई कानून नहीं है?”

“यार, तू...” वह आदमी अब ‘तू’ पर आ गया था।

तिलकधारी व्यक्ति मुड़कर वापस जा रहा था। वह लड़का जो बीड़ी पीने के लिए बाहर आया था, वह कुटिल-सी मुस्कान लिए इधर-उधर ताक रहा था।

“तू ऐसे ही जुबान बिगाड़ता जा रहा है; हम प्यार से कह रहे हैं कि... और तेरे को बड़ी खुजली होती जा रही है। पुल्स के पास जा या मिल्ट्री के पास... भगवान के काम में पुल्स, मिल्ट्री, कोई कुछ नहीं कर सकता।” फिर कुछ सोचकर उसने कहा, “आप हिंदू ही हो न?...क्या नाम है तेरा?”

वह तुरन्त मुडा़ और वापस घर आया। कुर्सी पर बैठा वह सोचने लगा। वह पुलिस नहीं बुला सकता। अभी दो महीने पहली ही तो मिसेज़ मूर्ति के साथ गया था। उनका मकान मालिक परेशान कर रहा था। वैसे तो थाने में एस. एच. ओ. ने तुरन्त अपने एक सब-इंसपेक्टर को भिजवा दिया था। पर उसे याद है कि उस दफ्तर में तीन-चार मूर्तियां टँगी थीं और धूप की काठियाँ जल रही थीं। जैसे वह कोई पढ़ा-लिखा एस.एच.ओ. नहीं, उसका बूढ़ा बाप था और वह दफ्तर उनकी वह कोठरी थी, जो टोहाना की एक गली में गंदे नाले पर खड़ी थी। बहुत पहले कभी एक दोस्त ने बतलाया था कि पुलिस वाले सबसे अधिक धार्मिक होते हैं, क्योंकि इहलोक में किए गए पापों की चिन्ता उन्हें हमेशा सताती रहती है।

बहुत देर तक वह मन-ही-मन बहस करता रहा। फिर उठा और काग़ज़-कलम लेकर दिव्या को ख़त लिखने बैठा। वह अब लिखना चाहता था कि दिव्या बहुत अच्छा काम कर रही है और उसे उसका पूरा समर्थन है। चाहते हुए भी वह ऐसा नहीं लिख रहा था। पहले तो उसने ब्राज़ीली उपन्यास के बारे में लिखा। इतना लिख चुकने पर उसे लगा कि ज़ोर से पेशाब लगा है। पर वह ख़त को पूरा करना चाहता था। अब वह लिख रहा था कि दिव्या को काम में सावधानी बरतनी चाहिए – इस देश में पुलिस औरतों के साथ बहुत बुरी तरह पेश आती है...।

पेशाब का दबाव सहा नहीं जा रहा था। उसने जल्दी से खत पूरा किया। मन हुआ कि फिर से एक बार पूरा ख़त पढ़े। पर बिना पढ़े ही उसने थूक लगाकर लिफ़ाफ़ा बंद किया और पता लिखा। तब तक लिफ़ाफ़ा फिर खुल गया था। “भैनचो...गोंद भी अच्छी नहीं लगाते।” सुबह गोंद लगाकर ख़त लेटरबाक्स में डाल देगा।

पेशाब करते हुए उसे जलन-सी हुई। शोर शिखर पर था। बाथरूम से लौटते ही अचानक तकिये पर सिर रखकर वह रोने लगा। दिव्या पर गुस्सा आया। इस वक्त दिव्या को यहाँ होना चाहिए था। वे दोनों मिलकर उस उपन्यास के बारे में बातें करते होते। रोते हुए भी उसके अन्दर प्यार का उफ़ान आया। दिव्या होती तो उसके सीने पर एक नर्म भार होता। वे दोनों मिलकर सोचते ब्राज़ील के बारे में...। पर दिव्या यहाँ होती तो वह भी इस शोर से परेशान ही होती। अच्छा ही है कि वह यहाँ नहीं है।

अब वह थोड़ा शांत हो चुका था। हल्की-हल्की नींद-सी भी आ रही थी। उसने फिर उपन्यास पढ़ने की कोशिश की। पर अब उसका सिर दुखने लगा। एक पन्ना भी पढ़ पाना मुश्किल हो रहा था। काश, यह शोर न होता और कोई बहुत प्यारी-सी धुन, जैसे हरिप्रसाद चौरसिया की बाँसुरी या ऐसा कुछ, बज रही होती तो वह उपन्यास के पन्नों में यूँ खो सकता, जैसे कोई सपनों में खो जाता है। अब इतने शोर में वह अपना कैसट लगाए भी तो मज़ा नहीं आएगा। वह उठकर दराज़ में रखे कैसट देखने लगा।

तभी उसे दिव्या के भाई का भेजा कैसट दिखा जो उसने पाँचेक साल पहले भेजा था। एक राक ग्रुप का कैसेट...अब वह साँड़ उसके अन्दर गुर्रा रहा था। उसने अपने दोनों स्टीरियो दरवाज़ा खोल कर बाहर बरामदे में रखे, सिस्टन ऑन किया। बड़ी मुश्किल से पैसे बचाकर खरीदा था। इसको लेकर दिव्या और उसमें लम्बा तनाव रहा। फिर सिस्टम घर आ जाने के बाद दोनों खुश हो गए थे।

सिस्टम ऑन कर वह कैसट चढ़ाने ही वाला था कि उसके हाथ जैसे जम गए। जै माता के विरोध में अंग्रेज़ी रॉक म्यूज़िक...! घोड़े पर चढ़े हुए कई सारे लोगों ने उसके भीतर के साँड़ पर बर्फ़-सा ठंडा पानी बरसाना शुरू कर दिया।

दरवाज़ा खुला रखकर ही वह बिस्तर पर गिर पड़ा। फिर उठा, दरवाज़े पर हल्की ठंडी हवा आ रही थी। डर था कि कोई बरामदे से स्टीरियो ही न उठा ले। रात के दो बज रहे हैं। कैसट वापस दराज़ में रखा। तभी वह नया कैसट दिखा। दिव्या ने एक-दो बार कहा थि कि ग्रुप ने गीतों का संकलन रिकॉर्ड किया है, पर दिव्या से नाराज़ होकर उसने कभी ध्यान न दिया था। एक बार दिव्या ने बजाया भी तो उसने चिढ़कर कहा था कि ये लोग कुछ अच्छा गाने वालों को क्यों नहीं बुला लेते? रिकॉर्डिंग भी इतनी खराब...।

अब वह तय कर चुका था। फ़ुल वॉल्यूम पर कैसट लगाया। तार खींचकर दोनों स्टीरियो जितनी दूर ले जा सकता था ले गया और उनकी दिशा पंडाल की ओर कर दी।

अब वह बिस्तर पर पड़ा था। मुहल्ले-भर में ‘माँ दा नाँ मैनूँ चंगा लगदा’ के समांतर ‘ले मशालें चल पड़े...’ का संघर्ष गूँज रहा था। उसे इतना ही डर था कि कहीं वह सो न पड़े और स्टीरियो कोई उठा न ले जाए।

उस वक्त ब्राज़ील में सूरज सिर से उतर चुका था।