जब भारती जी फफक कर रो पड़े / कैलाश वाजपेयी

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जब भारती जी फफक कर रो पड़े..
कैलाश वाजपेयी

`टाइम्स' कार्यालय में, अपने केबिन में बैठा कॉलिन विल्सन की नई कृति `द एज ऑफ डिफीट' पढ़ रहा था। तभी फोन की घंटी बजी। आवाज धर्मवीर भारती की थी। धर्मयुग में उनके अधीन काम करने वालों का कहना था- `भारती जी एक कुशल संपादक और क्रूर इंसान हैं। वे अक्सार अपने नीचे काम करने वालों को अपने कक्ष में बुलाकर अपमानजनक वाक्यों का प्रयोग करते हैं।'

हमारे साथ उनका व्यवहार कुछ अलग हटकर था। शायद इसलिए कि उन्हें ज्ञात था कि हमें भी उन्हीं रमाजी ने नियुक्त किया था, जिनके इसरार पर वे मुंबई आए थे या शायद इसलिए कि हम दोनों एक ही क्षेत्र से आए थे। उनका व्यवहार हमारे प्रति एक बड़े भाई जैसा था।

फोन पर भारती जी ने अधिकार भरे शब्दों में कहा, `शाम को अपन साथ-साथ चलेंगे। खाना तुम हमारे साथ खाओगे।' बिना हमारी स्वीकृति या अस्वीकृति की प्रतीक्षा किए उन्होंने फोन रख दिया। कार्यालय बंद होने के बाद हम लिफ्ट से उतरकर उनके कक्ष में गए। उन्होंने कहा थोड़े अंतराल बाद चलेंगे। भीड़ जब छंट गई, जाने वाले विक्टोरिया टर्मिनस से अपने-अपने डेरे की ओर चले गए, तब भारती जी के साथ हम नीचे उतरे।

भारती जी ने कहा, `चरैवेति-चरैवेति। हम पैदल चलेंगे।'

इत्तिफाक से हमें वह श्लोक याद था। हमने कहा, `चरैवेति से पहले का श्लोक इस तरह है।

-कलि:शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:,

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवित कृतं संपद्यते चरन्। चरैवेति चरैवेति।'

सोने का नाम कलियुग है, ऊंघना द्वापर है। उठ बैठना त्रेता है पुरुषार्थ करने का नाम सतयुग है। चले चलो, चले चलो।

भारती जी जोर से हंसे। वे अट्टहास के लिए जाने जाते थे। साथ ही अपनी काकुवक्रोक्ति के लिए भी। बोले,`तुम तो पक्के पंडित हो। बस थोड़े-थोड़े पोंगे। तुम धर्मयुग में क्यों नहीं आ जाते।' हम चुप।

फ्लोरा फाउंटेन आने से पहले गांधी वस्त्र भंडार आता है। वहां भारती जी रुके। काफी पड़ताल के बाद उन्होंने भागलपुर से आने वाला वजनदार सिल्क खरीदा बुशशर्ट के लिए। भारती जी पूरी बांह की बुशशर्ट पहनते थे। सफारी सूट शायद उन्हें पसंद नहीं था। लंबे-छरहरे बदन पर उन्हें अपनी तरह की ऐसी बुशशर्ट रास आती थी।

मुंबई में सुबह-शाम जो हवा चलती है, विशेष रूप से शाम की हवा, वह खासी औपशमिक होती है। उसे जीवनरेखा भी कह सकते हैं। बहरहाल रास्ते में सहज और हल्की-फुल्की बातें करते हम `दिव्यांग' नाम वाले भारती जी के आवास पहुंचे। हमारा कयास था कि पुष्पा जी (भारती जी की सहचरी) वहां होंगी, मगर वे वहां नहीं थीं। जबकि भारती जी पहले-पहल जब मुंबई आए ही आए थे, तब एक बार हम तीनों ने शहर में एक साथ बस यात्रा की थी।

घर पहुंचकर और शायद सजी हुई पुस्तकों को देखकर हमने पूछा, `अंधा युग' जैसी कालजयी कृति लिखने से पहले उन्हें कितनी साधना करनी पड़ी रही होगी।' प्रश्न पूछने से पहले हम भूल ही गए थे कि भारती जी प्रयाग से आए हैं, `परिमल' की गोष्ठियों के ही साथ वे वहां के विश्वविद्यालय में एक सफल व्याख्याता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं।

फिर क्या था! प्रश्न सुनते ही भारती जी के भीतर का मास्टर जाग गया। बादरायण के ब्रह्मसूत्र से शुरू कर उन्होंने हमें वेदांत, निरुक्त, छंद, व्याकरण आदि की पेचदार गलियों में तब तक घुमाया, जब तक कि भोजन समाप्त नहीं हो गया। इसके बाद भारती जी ने कहा, `चलो अब थोड़ी आवारागर्दी की जाए।' नीचे उतरकर हम गेटवे ऑफ इंडिया की तरफ चले। वहीं पास में तब एक पान की दुकान हुआ करती थी। वहां भारती जी ने इलाहाबाद के अपने मित्रों से जुड़े एक-दो चुटकुले भी सुनाए।

इलाहाबाद का जिक्र आने पर हमें वहां के रेडियो की गोष्ठी की याद आई, जिसमें भारती जी के साथ उनकी पहली पत्नी कांता भारती भी आईं। विवाह से पहले उनका नाम कांता कोहली हुआ करता था। उनकी गोरी, छरहरी देहयष्टि पर आसक्त हुए भारती जी ने उनसे विवाह किया था। विवाह के बाद भारती जी एक कन्या के पिता भी बने थे, जिसका नाम भारती जी ने `केका' रखा था। रात के दस बज रहे थे, मगर भारती जी थे कि उनकी वाणी विराम बिंदु पर आ ही नहीं रही थी।

अब भारती जी बोले, `चलो बस पर बैठकर थोड़ा घूमा जाए।' हमने बस ली, जो हमें मैरीन ड्राइव, बालकेश्वर, धोबी तालाब, तीन बत्ती, पैडररोड, प्रभादेवी आदि न जाने कहां-कहां लिए जा रही थी और भारती जी थे कि वे अपनी वैष्णवीयता और रचनाधर्मिता का एक-एक पृष्ठ खोले जा रहे थे।

सामान्यतः हम किसी और की नितांत निजी जिंदगी के बारे में किसी तरह की पड़ताल को अभद्र किस्म की उत्सुकता का पर्याय मानते आए हैं, मगर उस रात पता नहीं क्या हुआ, हमने उनकी दुखती हुई रग छू ली और अपनी मूर्खता का परिचय देते हुए सहमे से स्वर में पूछ लिया, `आपने ये पंक्तियां किसके लिए लिखीं?'

रख दिए तुमने नजर में बादलों को साधकर
आज माथे पर, सरल संगीत से निर्मित अधर
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छांह में
बांसुरी रक्खी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर।

प्रश्न सुनकर भारती जी फफक कर रो पड़े। पता नहीं भारती जी कांता कोहली के लिए रोए या फिर 'कनुप्रिया' के लिए, जिसके विरह में वे उन दिनों बौरा गए थे।