जब महाप्राण रोए / कृष्णकांत
इलाहाबाद शहर को आप देवभूमि भले कह लें, पर वहां देवता बिल्कुल नहीं बसते। कभी रहे हों तो मैं नहीं कह सकता। वहां भी वैसे ही लोग हैं, जैसे हिंदुस्तान भर में या बाकी दुनिया के किसी कोने में पाये जाते हैं। मेरी छह साल की रहनवारी में मुझे वहां कोई देवता नहीं मिला। न इलाहाबाद की चौड़ी सड़कों पर, न संगम तट के दूर तक फैले रेतीले मैदान पर। धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता' वाला नगर देवता भी नहीं मिला। छल मिला, कपट मिले, हत्या मिली, बलात्कार मिले। सपनों को पिसते देखा। और कुछ बीत चुकी आत्माओं को बिलखते देखा। दो आत्माएं कई-कई बार मिली- जहां-जहां कुछ धतकरम होता दिखता, वहां-वहां। अक्सर चौड़ी छाती, लंबी दाढ़ी वाला एक 'महाप्राण' क्रंदन करता हुआ दिख जाता था। मैंने उनसे कई बार पूछा- बाबा आप रोते क्यों हैं? वे बोले- जिन बातों को जीते जी नहीं सहा, मरे के बाद वह सब रोज सहना पड़ता है। हमारी संतानें ही हमारे सपनों को रौंद रही हैं। यह सब देखता हूं तो आत्मा रोती है। यह बात कई दफा हमने अपने साथियों को दिखाने-बताने की कोशिश की तो उनने हमें पागल करार दे दिया। कहा-तू अभी कवि हुआ नहीं है, बस होने की कोशिश कर रहा है और अभी से तेरे लक्षण ठीक नहीं हैं। तू विश्वविद्यालय न आकर पागलखाने जाया कर।
सुना है कि महाप्राण ने अपने जीवन में कभी किसी की आंख में आंसू बर्दाश्त नहीं किये। पुरस्कार में मिली शॉल सड़क पर पड़ी ठिठुरती अधनंगी महिला को ओढ़ा दी तो पूरी की पूरी तनख्वाह रिक्शे वालों में बांट दी। जिस राह से वे गुजरें, उस राह कोई भूखा या नंगा दिख जाये तो जो कुछ पास होता, सब उसे दे आते थे। अब उस धरती पर ऐसा नहीं होता।
हमने और भी कुछ देखा। कई बार एक ‘दुख की बदली' देखी। इलाहाबाद के आसमान पर मंडराती हुई उसकी चीख अक्सर ही सुनी जा सकती है। वह कितने सपने बो कर गई थी, सब के सब खौफनाक मौत मारे गये। वह महाप्राण की तरह सड़कों पर नहीं दिखती। उसने अपने जीन की तरह रोने के लिए भी एकांत चुना है। आंसुओं का तिरस्कार शायद उसे बरदाश्त नहीं होता है। संगम तट पर मौजूद अकबर के किले के पीछे चुपके-चुपके कई बार जार-जार बरसते देखा उसे।
जिन तमाम मौकों पर उन्हें चीखते-बिलखते देखा, उनमें से एक वाकया सुनाता हूं। मैं कहानीकार होता तो इसे कहानी कहता। लेकिन जो मैं कहने जा रहा हूं वह मानव के पशु होने की महा-दुर्घटना है। इसे त्रासदी कहने में मुझे ज्यादा सुविधा हो रही है।
मार्च का महीना था। मौसम में फागुन की महक और आलस्य दोनों ही घुलने लगे थे। विश्वविद्यालय परिसर में लगे अमलतास और गुलमुहर के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे झूमर की तरह लटकने लगे थे। चहारदीवारियों पर लटकती बेलें परिसर को और सुंदर बना रही थीं। परीक्षा छात्रों की खोपड़ी पर सवार थी और वे लगातार उससे जूझ रहे थे। इसलिए परिसर अब जरा सूना-सूना दिखने लगा था। तमाम छात्रों के कमरे के दराजे कई-कई घंटे बाद खुलते। वे अपने को किताबों में झोंक देना चाह रहे थे। रोज शाम को सड़कों पर, चौराहों पर परीक्षाओं को लेकर हजारों चर्चाएं एक साथ चलतीं। अगर आप इलाहाबाद गये हों, या रहे हों तो आपको मालूम होगा कि हां की शाम बहुत ही सुहानी होती है। हजारों सपने एक साथ सड़कों पर उतर आते हैं। जसे कोई गुलशन गुलजार हो और तमाम फूल एक साथ हंस उठें। हर चौराहे पर हजारों की संख्या में छात्र निकलते हैं, गप्पें मारते हुए चाय पीते हैं, सब्जियां जरूरत के सामान खरीदते हैं औरोपस अपने कमरे पर आ जाते हैं। ये युवा जीवन की चुनौतियों से जूझने को तैयारी कर रहे होते हैं। दुनिया को अपने मुताबिक आकार देने के सपने देख रहे होते हैं। वे जमाने को दिशा देने की योजनाओं पर सिर धुन रहे होते हैं। उनकी आंखों में उम्मीदों का सैलाब देखकर आपको हौसला मिल सकता है। आपको एक उम्मीद मिल सकती है। हर शाम इस तरह उनका उमड़ना बहुत सुखद लगता है।
यह एक ऐसा शहर है जहां आकर हर युवा कुछ समय तक के लिए ही सही, पर थोड़ा आदर्शवादी हो ही जाता है। यहां की एक परंपरा है, कि हर विद्यार्थी जैसे ही पहले साल विश्वविद्यालय में दाखिला लेता है, तो सीनियर छात्र उसे गुनाहों का देवता पढ़ने की सलाह देते हैं। हर बीए का छात्र कम से कम बीए के दौरान अपने को चंदर समझता है और उसे एक सुधा की तलाश रहती है। यह बात दीगर है कि यह फैंटेसी ज्यादा दिन नहीं टिक पाती।
इन्हीं आदर्शादी युवाओं में से कुछ कभी-कभी भटकते हैं और वे खुद को वहशी होने से नहीं रोक पाते और इन्हीं पर तरस खाकर महाप्राण रोते-बेचैन होते हैं।
रोज की तरह एक खुशनुमा शाम की बात है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लगा हुआ प्रयाग स्टेशन। करीब पांच बज रहा था। चारों तरफ लोग ही लोग। कुछ भीड़-भाड़ सी थी हर ओर। स्टेशन के बाहर चाय की दुकान पर तमाम लोग जमा थे। प्रयाग स्टेशन से लगा हुआ विश्वविद्यालय का एक हॉस्टल है। उस भीड़ में हॉस्टल के कुछ छात्र भी थे। वे चाय पीते हुए बातों में मशगूल थे कि अचानक एक लड़की आई और दुकानवाले से समोसे मांगने लगी। सामान्य कद-काठी, खूब गोरा रंग। चेहरा धूल-मिट्टी में सन गया था और उस पर काले-काले धब्बे से उभर आये थे। लंबे और कुछ-कुछ घुंघराले बालों में गंदगी के कारण लट पड़ गयी थी। लड़की मानसिक रूप से विक्षिप्त लग रही थी। उसके कपड़े बुरी तरह मैले हो चुके थे और जगह-जगह से उनके फटे होने की जह से बाकी शरीर के साथ स्तनों के कुछ हिस्से बाहर झांक रहे थे। एक हाथ पर आस्तीन थी और दूसरा कंधे तक खुला था। सर से पांव तक गंदगी में सनी होने के बाद भी वह देखने में खास बुरी नहीं लग रही थी। यह अंदाजा लग रहा था कि एक सुंदर सी दिखने वाली लड़की है, जो पागल हो गयी है। इधर कुछ दिन से वह स्टेशन के आसपास घूमते हुए दिख जाती थी। वहां मौजूद सब लोग उसे ही देखने लगे। वह समोसे लेने के लिए हाथ फैलाए हुए दुकान वाले के और करीब चली गयी तो उसने उसे डांटा और वहां से भाग जाने को कहा। इस पर लड़कों के झुंड से एक ने उस पर दया दिखाई और दुकान वाले से बोला- जो मांगे, दे दो उसे। पैसे की चिंता मत करो। देख नहीं रहे हो उसका दिमाग थोड़ा ठीक नहीं है? लड़की बिना किसी ओर देखे उसी मुद्रा में दोनों हाथ फैलाए खड़ी रही। दुकान वाले ने उसकी दोनों हथेलियों पर एक-एक समोसे रख दिये। वह एकदम निस्तब्ध थी। न हंस रही थी, न मुस्करा रही थी, उसने कुछ देर तक समोसे लिए हुए हथेलियों को निहारा और फिर एक ओर खिसक कर खाने लगी। इस बीच लड़कों की आपसी बातचीत बंद हो गयी थी और सब के सब उसी को देख रहे थे। एक लड़के ने आवाज दी तो लड़की ने पलट कर देखा। लड़के ने उसे पास आने का इशारा किया। वह आकर उसके बगल खड़ी हो गई। लड़के ने पूछा- भूख लगी है?
उसने हां में सर हिलाया। लड़के ने पूछा- जलेबी खानी है? उसने फिर हां में सर हिलाया। लड़के ने दुकानवाले से कहकर उसे जलेबी दिलायी। वह खाने लगी और लड़के उससे कुछ-कुछ साल करने लगे। लड़की बेतहाशा बड़े-बड़े निवाले खाए जा रही थी और उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रही थी। एक लड़के ने थोड़ी रुखाई से कहा- ये तो सुनती ही नहीं है, बहरी है क्या? इतना कहना था कि वह जोर से हंसी और चबाते हुए शब्दों में बोली- हा.हा..हा.हा.. यही तो वह भी कहता था कि तू बहरी है। तू कुछ नहीं सुनती। उसे कैसे बताती कि तुम्हारे अलावा कुछ सुनाई नहीं पड़ता़.. हा.हा..हा.हा..
सब लड़कों ने एक दूसरे को जिज्ञासा से देखा और अंदाजा लगाया कि हो सकता है कि इसका प्रेमी इसे छोड़ गया हो। खैर, क्या हुआ उससे क्या लेना देना?
एक ने फिर पूछा- चाय पिओगी? उसने हां में सिर हिला दिया। चाय आ गयी। उसने चाय पी ली। अब वह थोड़ी खुश दिखने लगी। शायद भूख मिट जाने के कारण। लड़के लगातार ठिठोली किये जा रहे थे। कोई नाम पूछ रहा था। कोई घर पूछ रहा था। कोई पूछ रहा था- कपड़े कैसे फट गये? कोई पूछ रहा था इतनी गंदी हो, नहाती क्यों नहीं? एक लड़के ने बुरी तरह आंख नचाते हुए उसके स्तनों की ओर इशारा किया- कपड़े खींच कर उसे ढंक लो? इस पर लड़की ने कपड़े में हुए छेद में उंगली फंसाई और खींच कर थोड़ा सा और फाड़ दिया। इस पर लड़के ठहाके मार कर हंस पड़े।
लड़कों की बातें और हरकतें पास की बेंच पर बैठे एक बुजुर्ग को बुरी लगी तो वे उठे, बुदबुदाते हुए एक भद्दी सी गाली दी और चले गये।
इतनी देर में वह लड़की इन लड़कों के लिए तमाशा बन चुकी थी। वे सभी भरपूर मजा लेने को आतुर थे और लड़की इस सबसे बेखबर। अब वह अपने शरीर के प्रति सजग स्त्री नहीं रह गयी थी। शायद अब उसे किसी बुरी निगाह से डर लगना बंद हो गया था। वह चाय पी चुकने के बाद भी बेखौफ बैठी रही। शायद बहुत दिनों बाद उसे किसी ने खिलाया पिलाया हो, और यह उसे अच्छा लगा हो। या जो भी हो, पर वह खा-पी चुकने के बाद भी वहां से गयी नहीं। ऐसा शायद इसलिए भी हो, कि अब जब उसे देह बचाने का डर नहीं है, तो वहां से हटने का ख्याल ही क्यों आये?
थोड़ी देर बाद लड़कों ने एक दूसरे को इशारा किया कि अब चलना चाहिए। सभी उठ खड़े हुए। वह बैठी रही। एक ने कहा- आओ तुम भी चलो। उसने इशारे में पूछा- कहां? दूसरे ने कहा- आओ आओ तुम भी चलो साथ। खाना खाओगी? खाना है तो आओ। वह उठी और उन लोगों के पीछे चल दी।
सब लोग हॉस्टल पहुंचे तो जाने क्यों ह बाहर ही ठिठक गयी। लड़के उसे अंदर बुलाने की कोशिश कर रहे थे मगर ह बेपरवाह इधर-उधर देख रही थी। अंतत: वे उसे फुसला कर अंदर बुलाने में कामयाब रहे।
लड़कों कि आपस कि बातें ऐसी थीं कि उन्हें सुनने वाला सोच सकता था कि इस लड़की का जीवन अब सफल हुआ। उसकी चिंता करने वाले उसे मिल चुके हैं और अब वह अपनी तकलीफों से मुक्त हो जाएगी।
सारी पटकथा तैयार हो गयी। सब लड़के एक कमरे में इकट्ठा हो गये। यह उस गैंग के सरदार का कमरा था। लड़की को अंदर बुलाकर सीधे बाथरूम ले जाया गया। दो लड़कों को उसे खूब अच्छी तरह नहलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी ताकि वह साफ सुथरी हो जाये और बदबू न करे। हॉस्टल के तमाम लड़कों के लिए जसे कठपुतली नाच सरीखा कोई खेल चल रहा था। वे यह सब देख रहे थे और मजे ले रहे थे। आखिर जूनियरों को वहां से यह कहकर भगा दिया गया कि क्या तमाशा देख रहे हो? अरे बेचारी पागल है। जरा उसको सलीके से कर देंगे तो ठीक रहेगा। इतनी सुंदर लड़की मारी-मारी फिर रही है। चलो, सब भागो यहां से।
दोनों लड़कों ने उसे बाथरूम में लाकर नहाने को कहा तो वह सहर्ष जा कर पानी की बाल्टी के पास बैठ गयी। उन्होंने उस पर पानी डालना शुरू किया। नहाना शायद उसे अच्छा लग रहा था। वे उस पर पानी डालते तो वह उछल कर खुश होती। एक लड़के ने उसके हाथ में शंपू उड़ेला और बालों में लगाने को कहा। उसने बालों को शंपू किया, पर बेसलीका तौर पर। साबुन लगाने की दफा वह अजीब हरकतें करने लगी। एक ने उसे साबुन पकड़ाया तो वह हाथ में लेकर उसे सूंघने लगी। उन्होंने चेहरे में लगाने को कहा तो उसने साबुन पानी में डाल दिया। काफी कोशिश के बाद भी वह ढंग से अपने अंग साफ नहीं कर रही थी और सबकी राय थी कि यह जरूरी है। दो लोग नहला रहे थे बाकी बार-बार आ-जा रहे थे, मुआयना कर रहे थे। अंतत: फैसला हुआ कि उसके कपड़े भी तो कितने गंदे हैं। उन्हें फेंको उतार कर और उसे अपने हाथों से खुद नहलाओ। पहले तो दोनों लड़कों ने थोड़ा संकोच किया, लेकिन फिर जुट गये। दरवाजा बंद कर लिया गया। उन्होंने उससे कपड़े निकालने को कहा तो वह भाग कर एक किनारे दीवार से जा लगी और जोर जोर से सिर हिलाने लगी। एक लड़के ने बढ़कर उसे खींच लिया और उसके कपड़े लगभग फाड़ते हुए उतार दिया। इस पर वह जोर जोर से चीखने लगी। उसकी चीख हॉस्टल भर में फैल रही थी। दूसरे लड़के ने उसका मुंह जोर से साध लिया और उसे पुचकार कर समझाने लगा कि चिललाओ मत, नहा लो अच्छी तरह, फिर तुम्हें नये कपड़े पहना देंगे। फिर तुम खूब सुंदर लगोगी। वह नहीं मानी तो दूसरे ने उसका मुंह खूब जोर से दबा दिया जिससे वह बेतरह डर गयी और चुपचाप कांपती रही। वे दोनों उसे पुचकारते रहे और वह जाल में फंसी सहमी हिरनी की तरह सांस थामे उन दोनों को देखती रही। उन्होंने उसे एकदम नंगा कर दिया था और साबुन लगा-लगा उसे नहला रहे थे। वह बीच बीच में भागने की कोशिश करती तो वे उसे दबोच लेते। वे काफी देर तक उससे उलझे रहे।
यह कहने की जरूरत नहीं कि उनका उद्देश्य उसे नहलाना नहीं था। जो था, उसे अंजाम दिया जाना शुरू हो चुका था। उसे नहलाते हुए वे उसके अंगों को छेड़ रहे थे। खिलौने की तरह उससे खेल रहे थे। वह लड़की यदि विक्षिप्त न होती तो शायद कुछ और होता, शायद वह चीखती, रोती, गिड़गिड़ाती। पर यहां बात और थी। उसकी चेतना इस सब से परे हो चुकी थी और क्या हो रहा था उसे क्या पता? हां, वह बार-बार छुड़ाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। काफी देर हुई तो बाहर दराजे पर गैंग के सरदार ने दस्तक दी- अबे क्या कर रहे हो? बाथरूम में ही सही कर दोगे क्या? ले आओ अब, बस हो गया। इतना साफ कर दो कि उल्टी न हो जाये बस।
अंदर से आवाज आयी- क्या करें भाई, साली हाथ नहीं रखने दे रही। वैसे हो गया। बिना सुरक्षा कच के और कुछ करने लायक नहीं है। ले चलो कमरे में।
उन्होंने तौलिए से उसे पोंछ कर उसके शरीर का पानी सुखाया। फटी पुरानी एक लंबी टी-शर्ट किसी की लाकर पहना दी। नीचे तौलिया लपेट दिया और उसे कमरे में ले आये। एक ने कमरे की आलमारी पर रखा डियो और पाउडर का डिब्बा बढ़ाते हुए कहा- इसे भी लगा दो, ठीक रहेगा। और दूसरे ने डियो की शीशी से उस पर फुहारें बरसा दीं। जब तक उसे नहलाया गया, तब तक इधर कंडोम और वियाग्रा के पैकेट मंगाये जा चुके थे।
रात के आठ बजने को थे। शहर धीरे-धीरे शांत होने लगा था। आसमान में तारे बिछ चुके थे। चांद क्षितिज पर सहमा हुआ सा चुप-चुप झांक रहा था। हॉस्टल के सामने वाली सड़क पर कुछ कुत्ते घूम रहे थे जो कभी-कभी रोने जसी आवाजें कर रहे थे। सन्नाटे में घुली हुई रात की स्याह तासीर चारों ओर पसर गयी थी। शैतानी ताकतें और सक्रिय हो गयीं थी। हॉस्टल के कॉमन रूम में कुछ एक जूनियर छात्र बैठे थे और शनि देओल की किसी फिल्म का रेप सीन चल रहा था। खलनायक थे, बलत्कृत होती मासूम नायिका थी और कुछ मरी हुई चेतना वाले तमाशबीन थे। उस दिन फिल्म में हीरो की एंट्री नहीं हुई, न ही ‘कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा' जैसा कोई डायलॉग सुनाई दिया।
जिन दो लड़कों ने उसे नहलाया था, उनमें से एक ने कहा- भाई, है बहुत कंटास पीस। समझ लो एकदम आग है। मेरा तो दिमाग गरम हो गया, अब काम ही नहीं कर रहा। गैंग का सरदार बोला- ठीक है, ठंडा कर लेना अभी। एक और लड़के ने कहा- तो भाई देर किस बात की। बकरा तैयार है। बेदी भी। पूजन सामग्री भी। बस, हलाल करना बाकी है। सरदार थोड़ा झिड़कते हुए बोला- जाओ भागो सब यहां से, थोड़ी देर में बुलाउंगा तो आना। सरदार को छोड़कर बाकी पांच लोग कमरे से बाहर चले गये और कमरा बंद हो गया।
सरदार लड़की की ओर बढ़ा तो लड़की तख्त पर लगे बिस्तर पर एक कोने सिमट कर बैठ गयी। उसने नजदीक जाकर उसे पकड़ लिया। वह झिटक कर भागने की कोशिश में तख्त से नीचे आ गयी। थोड़ी देर यह सिलसिला चलता रहा कि सरदार के भीतर का पशु उस अबोध पर झपट पड़ा। एक झटके में उसके गिर्द लिपटा तौलिया दराजे के पास जा गिरा। टी-शर्ट फाड़कर शरीर से दूर फेंक दी गयी। क्षिप्त लड़की भी शायद अपने लुटने की आहट कुछ देर पहले ही पा चुकी थी और निर्वसन खड़ी कांप रही थी। आखिर शिकारी एक चेतनाशून्य जीव का शिकार करने में कामयाब हो गया।
हर कोमल चीज क्रूरता के आगे हार जाती। दीन-दुनिया से अनजान एक पागल, जो ऐसे ही किसी आघात से अपने को खो चुका था, चेतनाहीन हो चुका था, उसे कुचला गया। उसकी देह को खिलौना बनाया गया यह बोध भी तो उसे नहीं हो सकता था। दो समोसे खाकर वह उस बंदर की तहर फंस गयी थी जो दाने के लालच में संकरे घड़े में हाथ डाल तो देता है, लेकिन अनाज भरी बंद मुट्ठी निकाल नहीं पाता और पकड़ा जाता है।
एक के बाद एक बाकी पांच लोग भी आये गये। कोई दो बार, कोई चार बार या जिससे जितना हो सका। दो जन की बारी तक वह अपने को बचाने की कोशिश में छटपटाती रही थी। तीसरे की बारी आने तक वह बेहोश हो गयी थी।
अगले दिन सुबह वह कमरा बंद था। कुछ-कुछ देर बाद कोई एक जाकर दरवाज़ा खोल कर मुआयना कर आता- अभी मरी नहीं है। सांस चल रही है। अगर मर गयी तो? तो रात को लाद कर गंगा के कछार में फेंक आएंगे..।
तीन बजे उसे होश आया तो वह दरवाज़ा पीटने लगी। एक ने आकर दरवाज़ा खोला। अब तक वह निर्वसन थी और बेहद डरावनी हो गयी थी लेकिन वह डरा नहीं। उसने उसे वह टी-शर्ट फिर पहना दी, जो कि काफी कुछ फट चुकी थी। एक पुराना सा पैंट नीचे पहनाया गया। अब तक सभी कमरे में इकट्ठा हो गये थे। अब तक सबकी यह राय जाहिर हो चुकी थी कि जल्दी से इसे यहां से दफा करो, वरना मुसीबत गले पड़ सकती है। एक ने उसे बिस्कुट का पैकेट खाने को दिया। उसने पैकेट हाथों में लेकर देखा और नीचे गिरा दिया।
जैसे ही लड़कों ने उसे छोड़ा, वह दरवाजे से बाहर निकल गयी और तेज कदमों से चलती गयी। दो लड़के उसका पीछा करने लगे कि देखो कहां जाती है? वह प्रयाग स्टेशन तक गयी और एक भूजा वाले ठेले के पास खड़ी हो गयी। ठेले वाले ने उसे दो- चार मूंगफलियां दी जिसे लेकर मुंह में भरते हुए वह आगे निकल गयी।
आखिरी बार उसी जगह हमने महाप्राण को दहाड़ मार-मार कर रोते देखा। ठीक उसी समय वह दुख की बदली रेजा-रेजा बिखर रही थी.. बरस रही थी, किले की दीवार के पीछे। उसके बाद मैं इलाहाबाद कभी नहीं गया।