जब हम इंडीकेटर बने / दीप्ति गुप्ता
यह बात सन् २००१ की है ! १२ बजे एम.ए. की क्लास पढने जाना था, लेकिन उससे पहले ११ से १२ बजे तक वाइस चांसलर के चैंबर में पूना विश्वविद्यालय के 'संस्थापना दिवस समारोह' के सम्बन्ध में आवश्यक मीटिंग थी ! इसलिए मुझे १०:३० तक यूनिवर्सिटी पहुँचना था ! दिमाग में एक तो पहले से ही 'ठीक समय' पर विश्वविद्यालय पहुँचने की हडबडी मची हुई थी, ऊपर से उस दिन ड्राइवर का फोन आ गया कि बुखार होने के करण वह नहीं आ सकेगा ! मैं ११ कि.मी. खुद ड्राइव करके नहीं जा सकती थी क्योंकि डाक्टर ने Vertigo के कारण ड्राइविंग न करने की सख्त हिदायत दी हुई थी कि रास्ते में ड्राइविंग करते हुए, अचानक चक्कर आ गया तो दुर्घटना घट सकती है !
सो ड्राइवर के न आने की खबर मिलते ही, मैंने झटपट अपनी किताबे और पर्स उठाया और कुछ दूरी से ऑटो ले लिया ! ऑटो में बैठते ही आटोवाले ने ऑटो स्टार्ट करके चलाना शुरू कर दिया और बीच सड़क में पहुँच कर मुझे विनम्र स्वर में निर्देश दिया -
मैडम जब मैं कहूँ , तो ज़रा दाएँ- बाएँ हाथ दिखा देना !
यह सुनते ही पहले तो मैं चौंकी, फिर तिलमिला उठी ! देर होने के डर से हडबडाई हुई तो पहले से ही थी ! मैंने उससे लगभग झगडने और फटकारने के मिले-जुले स्वर में कहा - क्यों भई, मैं दाएँ- बाएँ हाथ क्यों दिखाऊँ ??
तो वह शातिर ऑटोवाला ' बेचारा ' बनता हुआ बोला - ऑटो का इंडीकेटर खराब है मैडम...
मैंने चिढते हुए कहा - तो क्या हुआ , तुम दिखाओं दाएँ- बाएँ हाथ ! सब ऑटो वाले दिखाते हैं कि नहीं ! तुम कोई निराले हो क्या ?
तो वह फिर उसी ' निरीह' अंदाज़ में बोला - जी मैडम, आपने सही कहा ! पर बात ऐसी है कि मैं यहाँ का नहीं हूँ ! हैदराबाद से कुछ महीने पहले ही आया हूँ ! वहाँ पर दाएँ- बाएँ हाथ न दिखा कर, पैर का अंगूठा दिखाते हैं ! इसलिए मेरा दाएँ- बाएँ हाथ चलेगा नहीं ! पैर का अंगूठा दिखाऊंगा तो पीछे वाले देखेगे नहीं ! कही एक्सीडेंट हो गया तो... ????
यह सुन कर तो मेरे होश फाक्ता....! मन में भय उपजा - ' एक्सीडेंट..' No,। can not afford।t....माँ - बच्चे सब, पल भर में आँखों के सामने घूम गए ! मैंने मन ही मन कहा - ओफ्फो ....आज कहाँ फंस गए ! सुबह से सारे काम उलटे हो रहे हैं !
फिर सोचा, यह दुर्मति पल्ले पड़ा है तो अब दाएँ- बाँए हाथ दिखा कर दुर्घटना का तो टालना ही होगा, इसके अलावा कोई उपाय भी तो समझ नहीं आ रहा था - ' जान है तो जहान है.....! ' मन में बस ये ही विचार कौंध रहा था !
गुस्सा तो बहुत आया और दाएँ- बाएँ हाथ दिखाने की सोच कर शर्म अलग महसूस होने लगी ! लेकिन दुर्घटना के भय ने मेरा सारा गुस्सा काफूर कर दिया और मैं मजबूर हुई ऑटो वाले के निर्देशानुसार कभी दाएँ हाथ दिखाती, तो कभी बाएँ ! सड़क पर भारी ट्रैफिक था और सब मशीन की तरह अपनी राह भागे चले जा रहे थे ! किसी को किसी की तरफ देखने की फुर्सत नहीं थी, इसके बावजूद भी मेरे ऑटो की अजीबोगरीब हरकत ने सबका ध्यान आकर्षित किया और पास से निकलने वाले सभी लोग कारों से, ऑटो से, गर्दन निकाल - निकाल कर ऑटो को ध्यान से देखे कि ऑटो चलाने वाला तो आगे बैठा हुआ है तो पीछे की सीट से, ये दाएँ- बाएँ हाथ बाहर क्यों आता है ? लेकिन पीछे की सीट पर जब मैं बैठी दिखती तो, वे शराफत से सामने देखने लगते और शायद सोचते हों कि कहीं उन्हें भ्रम तो नहीं हुआ !
मैं अपने आसपास यह तमाशा देखकर शर्म, खीज और दुर्घटना के भय से ग्रसित, चुप लगाए थी ! आज्ञाकारी बनी, ऑटो वाले के निर्देश का पालन करती रही ! खैर, राम-राम करते हुए किसी तरह रास्ता कटा और मैं 'इंडीकेटर' बनी हुई, सही सलामत यूनीवर्सिटी पहुँची ! मैंने उस दिन कितनी झुंझलाहट से भरे हुए , ११ कि.मी. का रास्ता तय किया, वो मैं ही जानती हूँ !
यूनिवर्सिटी पहुँचते ही मैंने ऑटो से उतर कर पहले पर्स से अपनी डायरी निकाली, उस ऑटो का नंबर नोट किया कि भविष्य में इस नंबर के ऑटो में नहीं बैठना है ! मुझे डायरी में नंबर नोट करते देख, ऑटो वाला माफ़ी और आश्वान के मिले- जुले स्वर में बोला - 'मैडम बस अभी जाकर इंडीकेटर ठीक कराता हूँ !
मैंने उसे झुंझलाहट और शक की नज़रों से देखते हुए कहा - कराओ या मत कराओ, मैं तो कभी नहीं बैठूंगी तुम्हारे ऑटो में ! ठीक भी करा लो - तो क्या मालूम, कभी रास्ते में इंडीकेटर खराब हो जाए और तुम सवारी को इंडीकेटर बना दो !
यह सुन कर वह मेरा मुँह देखता रह गया और मैं उसे रुपये देकर, झटपट उस 'सिरदर्द' से मानो अपनी जान बचाती सी, अपने विभाग की ओर मुड गई !