जमानत / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक नए पुलिस अफसर की पहली पोस्टिंग शहर में हुई थी। उसने सबसे पहले वेश्याओं के अड्डे पर छापा मारा। सब वेश्याओं को घेरकर पुलिस थाने ले जाया गया। उनमें एक ऐसी सामाजिक कार्यकर्ता भी थी जो नामी परिवार की बहू थी। उसने बताया कि वह वेश्याओं के दुख-दर्द बांटने आई थी। पर पुलिस विश्वास कैसे करे? रात का समय, रेड लाइट एरिया और वहाँ एक खूबसूरत जवान औरत। बहू के घरवालों के पास खबर पहुँची। घरवालों को जैसे साँप सूंघ गया। बहू ने तो जैसे उनकी इज्जत मिट्टी में मिला दी। भरे बाज़ार नाक कटवा दी। वे पहले से ही बहू के समाज सेविका वाले रूप से चिढ़े हुए थे। अब तो ठोस कारण मौजूद था। उन्होंने कहा वे पुलिस थाने नहीं जाएंगे। इतनी बड़ी समाज सेविका है तो क्यों नहीं सलटा लेती अपना मामला, आप?

बहू थाने में चुपचाप बैठी थी। तभी एक नौजवान आया। उसने कहा-'मैं इनकी जमानत देता हूँ।'

उसे देखकर बहू चकित थी। युवा पुलिस अफसर ने नौजवान से पूछा, 'तुम कौन हो? और कैसे कह सकते हो कि यह इस धंधे में लिप्त नहीं है।'

नौजवान ने सहजता और सम्मान के साथ कहा कि 'मैं इनके यहाँ कम्प्यूटर ठीक करने जाता रहता हूँ। मैंने एक दिन दोपहर में देखा कि ये सो रही थीं, तब भी दुपट्टा इनके सिर पर था और आप देख रहे हैं कि वह अब भी इनके सिर पर है।'

और उसे जमानत मिल गयी।