जमा पूँजी / सरस्वती माथुर
पिछले एक हफ्ते से मोना बुजुर्गों का मान सम्मान विषय पर हो रहे एक सेमीनार में अपने शहर आई हुई है। अपने शहर यानि अपना मायका, जहाँ जीवन के २५ वर्ष उसने गुजारे थे। हमेशा इस शहर में आने के मौके वो तलाशती रहती है! इस बार माँ के गुजरने के बाद पहली बार आई है । खुशबू की तरह हर कोने में माँ की यादें बसी हैं, वैसे भी दिवाली दशहरा आने के बीस दिन पहले से ही मोना के मायके में सफाई का अभियान शुरू हो जाता था। पुरानी किताबें, अखबार और खाली डिब्बों का आँगन में अम्बार लग जाता था! उसके बाद पकवान का दौर शुरू होता था। नवीन उत्साह से घर में रंग रोगन के बाद रंगोली बनाई जाती थी। पिताजी की तस्वीर पर नयी माला चढती थी । पिताजी एक जाने माने लेखक थे, माँ बड़ा गर्व करती थी। पिताजी की एक एक किताब को वो छाड़ कर वापस पुस्तकालय में जमा कर धूप बत्ती दिखा देती थी । मोना को याद है माँ हमेशा कहती थी, इन किताबों को मैं लायब्रेरी में भी दान नहीं दे सकती क्यूंकि मुझे लगता है तेरे पिता इनमे आज भी जिन्दा हैं, गाहे बगाहे इन किताबों से बाहर आकर, घर भर में घूमते रहते हैं। मोना का दिल भर आया था।
घर का पुराना नौकर रामू तहखाने से बोरा भर कर लाया और आँगन में उलट दिया! मोना ने देखा माँ की संगृहीत पुस्तकें, गीता, रामायण और भी बहुत सी धार्मिक किताबों के साथ पिता जी की लिखी किताबों का ढेर भी वहां उलट दिया था, रद्दी वाला उन्हें तौलने को तैयार था। भाई वहां आराम कुर्सी पर बैठे थे। उनके आदेश पर रामू रद्दी ला रहा था। तभी रसोई घर में से धोती से हाथ पोंछती भाभी आँगन में आयीं और कुछ देर मौन खड़ी उन किताबों को देखती रहीं! फिर भैया से बोलीं - "आप इन्हें निकाल रहे हैं?"
"हाँ शांता, क्या करेंगे, देखो सब पर दीमक लग गये हैं।" भैया ने एक किताब पर बने दीमक के घर को दिखाया!
भाभी ने तपाक से जवाब दिया -" जी नहीं यह रद्दी नहीं है । यह मेरी सास और ससुर की जमा पूँजी है ।अपने जीते जी मैं इन्हें नहीं बेचने दूंगी !" मैं अम्मा की तरह ही हर साल इन्हें सहेजऊँगी!" वह प्रणाम की मुद्रा में झुकी और पिताजी की लिखी किताब को माथे से लगा बोलीं - "रामू सबको झाड कर वापस पुस्कालय में ज़माना है ,चल वापस बाँध !"
मोना ने कृतज्ञता से भाभी की ओर देखा! उनकी आँखें नम थी। भैया अवाक् से उन्हें देख रहे थे! रद्दी वाले की तराजू अभी भी हवा में लटकी थी!