जमींदारी खत्म न होगी / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
जमींदारी मिटाने का प्रश्न मुद्दत से सामने है। नए शासक खयाली पुलाव के रूप में कई साल से हमारे सामने इसे रखते आ रहे हैं। असेंबलियों में प्रस्ताव पास हुए। फिर कानूनी मसविदा बना और पास हुआ। लेकिन वह बड़े लाट के यहाँ त्रिाशंकु की तरह उलटा लटका तप कर रहा है। कहा है , उसमें कुछ संशोधन करके कानूनी रूप दिया जाएगा। कभी कहा जाता है , पाँच हजार की आय से कमवाली जमींदारी न मिटेंगी। फिर आवाज आती है सरकार खुद ही जमींदारियों का प्रबंध करेगी। फिर सुनते हैं , तीन ही महीने में जमींदारी खत्म होगी।
लेकिन यह सब लीडरों की विशुध्द माया है। ये लीडर जमींदारी मिटा नहीं सकते। यदि जमींदारी के लिए मूल्य या मुआवजे की बातें ये भले आदमी नहीं करते रहते तो मिटा सकते थे। मगर मूल्य देने में जो सबसे बड़ी बाधा है वह है नए सर्वे की जब तक सभी जमींदारियों का सर्वे नहीं हो जाता कि किसकी कितनी जमीन है , कैसी है और उसकी आय कितनी है तब तक मूल्य कैसे दिया जाएगा ? एक ही जमींदार की जमींदारियाँ कई जिलों में हैं। प्रांतव्यापी सर्वे के बिना किसी की आय का पता चलेगा कैसे जिसके हिसाब से मूल्य दिया जाए ? और यह सर्वे तो वर्तमान दशा में असंभव है। इसे पूरा करने में बहुत साल लगेंगे , यह जानकारों का कहना है। यह एक बाधा है।
दूसरी बाधा है कि यह मूल्य बाजार दर से सोलहों आना नगद देना होगा। मुआवजे का यही अर्थ है। यह नहीं कि आप जो चाहें वही दे दें और नगद दें या उधर। नहीं-नहीं , बाजार दर से पूरा दाम कौड़ी-कौड़ी नगद चुकाना पड़ेगा। मुआवजे के बारे में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट का यही फैसला है। मुआवजे के मानी में जो अंग्रेजी का शब्द ' कंपेन्सेशन ' आया है उसका यही अर्थ है जो बदला जा सकता नहीं। याद रहे कि यह मुआवजा सिर्फ बिहार में चार अरब से कम न होगा। वह छह अरब और उससे भी ज्यादा हो सकता है जिसे चुकाना बिहार सरकार की शक्ति के बाहर है। यहाँ तथा अन्य प्रांतों में उसे नगद चुकाने पर मुद्रावृध्दि ऐसी होगी कि चावल शायद रुपए का आधा सेर बिकने लगे।
तीसरी बाधा छोटानागपुर की कीमती खानों को लेकर है। ये खानें पूँजीपतियों के हाथों में हैं जिनसे छीनकर उन्हें रंज करने को नेहरूजी तैयार नहीं हैं। इसीलिए खानों की जमींदारी अछूती रखने की पेशबंदी हो रही है। अगले चुनाव में करोड़पतियों से हमारे नेता पैसे कैसे लेंगे यदि उन्हें नाखुश किया ? और फंड के करोड़ों रुपयों के बिना चुनाव लड़ा कैसे जाएगा ? उद्योग-धंधों के राष्ट्रीयकरण की बात फिलहाल जो दस साल के लिए टाली गई है उसके भीतर ऐसे ही कारण हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से जो समझौता हुआ है उसमें भी यह मुख्य शर्त होगी। तब खानों को कैसे ले सकते हैं ? और जमींदारी मिटा के क्या होगा यदि 20-25 करोड़ की इस आय को छोड़ ही देना है ?
जमींदारियों का प्रबंध सरकार करे ऐसी तैयारी जो आज की जा रही है वह भी जमींदारी न मिटाने के पाप को छिपाने के ही लिए। इससे भोले किसान समझेंगे कि जमींदारी मिट गई। मगर खासमाहाल के किसान कम पामाल नहीं हैं। जमींदारों के अमले कलक्टर की मातहती में गजब करेंगे और करैला नीम पर चढ़ जाएगा। हम लाखों जमींदारों को हटाकर उनकी गद्दी पर कलक्टरों और माल मंत्री को बिठाने का विरोध सारी शक्ति लगा कर करेंगे। हमें जमींदारी मिटानी है , न कि उसकी शक्ल बदलनी और तमाशा करना है। हम जानते हैं कि जब सरकार जमींदारियों को हथियाने की धमकी देगी तो डर से जमींदार कहेंगे कि जो भी हो सके हमें कीमत दी जाए। इसी के लिए यह तैयारी है। मगर हम इसके विरोधी हैं। जमींदारों को कीमत के रूप में एक कौड़ी भी न देकर उनके लिए अच्छे गुजारे का प्रबंध हो और उनके योग्य काम उन्हें दिया जाए , हम यही चाहते हैं। उनके पढ़ने-लिखने , दवा-दारू , रहन-सहन में कोई कठिनाई न रहे हम ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जरूर।
लेकिन जमींदारी न मिटने पर जिन लाखों लोगों की बहालियाँ इसीलिए हुई थीं उनका क्या होगा , यह प्रश्न होगा। मगर इसका उत्तर वही दें जिनने ये बहालियाँ कीं। शायद इन नए नौकरों से अगले चुनाव में काफी सहायता लेने की तैयारी थी जिस पर पानी फिरा चाहता है। संभव है , इन्हें कहीं और फँसाया जाए। नहीं तो बहाल करनेवालों की छाती पर भूत की तरह ये खुद चढ़ेंगे और इस तरह नेताओं को लेने के देने पड़ेंगे।