जमींदारी खत्म हो / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जिस ईमानदारी और नेकनीयती के साथ विश्वासपूर्वक मैंने जमींदारी और जमींदारों के सुधारने और किसानों एवं उनके बीच सद्भाव लाने की कोशिश की थी,उसका परिणाम सिवाय परेशानी और भयंकर निराशा के दूसरा कुछ न हुआ। उलटे जमींदारों का कुचक्र दिन-रात बढ़ता ही गया। भूकंप के बाद जिस हृदय-हीनता का परिचय उन्होंने दिया, वह मेरी आँखों के भी सामने आज नाचता है। बिहार में सरकार के ही कथनानुसार गल्ले का दाम साठ फीसदी गिर गया। फलत:, किसानों को ढाई रुपए की जगह सिर्फ एक रुपया दाम मिलने लगा। भूकंप ने अच्छी जमीनें बालूमय कर दी थीं, जिससे पैदावार भी मारी गई। उसके बाद ही ऐसी बाढ़ आई कि किसान तबाह हो गए। भूकंप के करते जमीन की सतह ऐसी खराब हो गई कि बरसात और बाढ़ का पानी बह जाने के बजाए स्थान-स्थान पर जमा होकर खेतों को चौपट करने लगा। इसी के साथ हमने आंदोलन करने में कोई भी कसर नहीं उठा रखी। मगर सरकार और जमींदार दोनों ही वज्र बहरे हो गए। दूसरे प्रांतों ने किसानों को आराम देने के लिए कुछ-न-कुछ किया। बहुतों ने तो ज्यादा किया। मगर बिहार की सरकार ने,यहाँ के जमींदारों ने और कौंसिल ने भी गोया कसम खा ली कि वह टस से मस न होंगे। सचमुच उनके कान पर जूँ तक न रेंगी।
फलस्वरूप,मैंइस नतीजे पर पहुँचा कि जमींदार नाम की चीज ही बुरी है। वह रहने लायक नहीं। उसे खत्म करना चाहिए। मनुष्य के नाम से या और नामों से कोई , रहे भले ही। मगर इस नाम से नहीं। मेरी धारणा हो गई कि यदि मिट्टी का भी जमींदार हो तो वह भी उतना ही खतरनाक होगा। इसलिए तय कर लिया कि जमींदारी का खात्मा करना ही होगा और समय आ गया है कि किसान-सभा इस मामले में अपनी आवाज बुलंद करे। सन 1935 ई. के बीतने के पहले ही मैं इस नतीजे पर पहुँचा। आखिर , दुनिया में और खास कर बंबई आदि प्रांतों में बिना जमींदारी के ही लोग खाते-पीते रहें। तो फिर , यहाँ जमींदार बन के क्यों किसानों की छाती पर कोदो दलते रहें ? रोजगार , व्यापार करके क्यों न खाएँ-पिएँ ? शैतान से आदमी क्यों ने बन जाएँ ?
उस साल मुजफ्फरपुर जिले के हाजीपुर में तृतीय बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन होनेवाला था। नवंबर का महीना निश्चित था। मैं ही सभापति चुना गया था। इसलिए मौका अच्छा मिला। मैंने साथियों से कहा कि अब जमींदारी मिटाने की बात साफ-साफ बोलिए। मैंने अपने भाषण में, जो छपा था, यद्यपि इस बात को साफ-साफ नहीं कहा। तथापि इशारा जरूर किया। मेरा खयाल था और आज भी है कि महत्त्व पूर्ण सैध्दांतिक बातों के बारे में कोई व्यक्ति न बोलें। इस बारे में किसान-सभा या ऐसी संस्थाएँ ही पहले पहल निर्णय करें तो ठीक हो। खास कर सभापति के बोल देने पर और लोगों पर एक भार हो जाता है और उन्हें स्वतंत्र निर्णय करने में दिक्कत होती है। यों तो प्रचार के लिए सभी लोग बोल सकते हैं। यही कारण था कि भाषण में मैंने स्पष्ट बात नहीं कही।
यों तो हाजीपुर का इलाका छोटे-मोटे जमींदारों का है। अतएव किसानमय नहीं कहा जा सकता,जैसा कि दरभंगा, गया आदि के अनेक इलाकों को कह सकते हैं। मुजफ्फरपुर में भी ऐसे अनेक भाग हैं। फिर भी सम्मेलन अच्छा जमा और उसने एक क्रांतिकारी कदम आगे बढ़ाया जो किसान-सभा के इतिहास में अमर रहेगा। यह तो कही चुका हूँ कि मेरा भाषण छपा था। हमारे सम्मेलन को यह पहला ही अवसर ऐसा मिला था। जब मैंने वह भाषण लिख लिया तो छपने के पहले साथियों को उसे दिखला दिया। केवल यह जानने के लिए कि वह उसे पसंद करते हैं या नहीं। तभी से एक रूढ़ि सी हमारी किसान-सभा में हो गई है कि सम्मेलनों के सभापतियों के भाषण हम पहले ही देख लेते हैं। शायद कभी-कभी कुछ संशोधन भी उनमें करते हैं। इससे नीति में सामंजस्य बना रहता है और कोई गैर-जवाबदेही की बात सभापति जैसेउत्तरदायी व्यक्ति के मुँह से नहीं निकल पाती।
हाँ, तो मेरा भाषण साथियों ने पसंद किया, केवल समाजवाद के बारे में एक अंश उन्हें कुछ जरूरी न जँचा और मुझे कहा गया कि उसे निकाल दूँ तो अच्छा हो। मगर मैंने ऐसा नहीं किया। असल में मैंने अपने व्यक्तिगत विचारों के सिलसिले में लिखा कि मेरे जानते समाजवाद में धर्म का स्थान नहीं हो सकता। चाहे,उसका विरोध वह भले ही न करें। धर्म का सम्मिश्रण होते ही उसमें गड़बड़ियाँ आएँगी और अपने लक्ष्य से वह च्युत हो जाएगा। मैंने यह भी लिखा कि भौतिक दर्शन जितने हैं,उनमें यही सबसे सही है। मगर धर्म को उसमें स्थान न होने से मेरे जैसों के लिए उसमें जगह नहीं है। इस अंश को हटाने को मैं तैयार न था। यदि समाजवाद या मार्क्सवाद पर कोई आक्षेप रहता तो जरूर हटा लेता। मगर यह तो उसके एक पहलू पर मेरे निजी विचार थे जो किसी को खटक नहीं सकते थे। धर्म के मामले में आज भी मेरे विचार बहुत कुछ वैसे ही हैं। फिर भी उस कारण से उसमें शरीक होने में मुझे तो अब कोई बाधा नजर नहीं आती,हालाँकि,अब तक शरीक हूँ नहीं और इसके दूसरे ही कारण हैं।