जमीनों की छीना-झपटी / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
जमींदारी तो मिटी नहीं। लेकिन किसानों की जमीनों की छीना-झपटी तेज हो गई। जमींदारी जाने के भय से जमींदारों ने जोर मारा है कि जितनी भी हो सकें जमीनें हथिया लें। बकाश्त के बढ़ते झमेले का यही रहस्य है और बकाश्त बोर्ड इसी पर पर्दा डालने के लिए ही है। यदि किसानों ने संगठित रूप से इसका जल्द सामना न किया तो उनकी अधिकांश जमीनें छिन जाएँगी जरूर मुझे भय है। इसके लिए सीधी लड़ाई एकमात्र रास्ता रह गई है। सो भी सत्याग्रह नहीं , जेल भी नहीं। अब तो लाठियों और गोलियों का ही सामना करना पड़ेगा , याद रहे। इधर कुछ दिनों से स्वराजी शासक जो कुछ इस संबंध में कर रहे हैं वह तो इसी बात का सबूत है कि हवा का रुख किधर है।
लेकिन जमींदारों के साथ ही सरकार भी इस छीना-झपटी में शामिल है। फार्म बनाने के नाम पर बंजर और पड़ती जमीनों को छोड़ टटुपुँजिए किसानों एवं गरीबों की जमीनें छिनी जा रही हैं। हमें यह चीज बंद करवानी है। अन्न कम पैदा होता है और भुखमरी का सवाल है। जमीनें छिन जाने पर ये गरीब कहाँ जाएँगे ? क्या इसी भुखमरी के लिए ही वे अंग्रेजों से लड़ते रहे हैं ? बंजर जमीनों को फार्मों के लिए सरकार ही आबाद कर सकती है। तब आबाद जमीनों को लूटने के क्या मानी ?
इतना ही नहीं। पड़ोस में बक्सर के पूर्व आधे दर्जन गाँवों की खेतीवाली जमीनों में मिलें खोलने की तैयारी हो चुकी थी जो बड़ी दिक्कत से रोकी जा सकी। पता नहीं फिर भी वह सर उठाएगी या नहीं। यदि उठाए तो हमें पूरी ताकत से लड़ना होगा। वे मिलें डुमराँव में या अन्यत्र बंजर जमीनों में अच्छी तरह बन सकती हैं। तब किसान के खेत उन्हीं के लिए क्यों छीने जाएँ ? यही बात मुल्क में आज लाखों मिलों को लेकर जारी है जिससे करोड़ों किसान और गरीब प्यारी जमीनों और घर-बार से हाथ धोते हैं। वे कहाँ बसेंगे , क्या खाएँगे , यह पूछनेवाला भी कोई नहीं। जब तक उन्हें दूसरी जगह खेत देने और बसाने का पूरा प्रबंध नहीं हो जाता , हम ये मिलें बनने न देंगे और लड़ेंगे , ऐसा दृढ़संकल्प किए बिना काम न चलेगा।