जमीन, सितारे और किसान / जयप्रकाश चौकसे

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जमीन, सितारे और किसान
प्रकाशन तिथि :01 अक्तूबर 2015


विगत कुछ समय से नाना पाटेकर महाराष्ट्र के गांवों का भ्रमण कर रहे हैं और किसानों को न केवल हौसला दे रहे हैं वरन् उन्हें आर्थिक सहायता भी अपनी जेब से दे रहे हैं और उन्होंने इस पुनीत कार्य के लिए एक संस्था भी खड़ी की है, जिसने अभी तक 6 करोड़ रुपए एकत्रित भी किए हैं। दिल्ली में अपनी नई फिल्म के प्रचार के लिए गए अक्षय कुमार ने भी किसानों के लिए धन की अपील की है। सलमान खान ने इच्छा जाहिर की है कि एक रिएलिटी शो का आयोजन खेत में किया जाए और किसानों के साथ सितारों की मुलाकात हो जाए। महानगरों के लोगों का दिमाग फॉर्मूलाग्रस्त हो गया है और वे सितारों से अर्थहीन एक जैसे सवाल करते हैं। धरती के सुपुत्रों से फिल्मी सितारे मिलें तो जमीनी हकीकत का कुछ अनुमान होगा और संभव है कि अपनी फिजूलखर्ची से मुक्त होकर वे कुछ धन किसानों को दें। सरकारों के द्वारा जो काम नहीं किए जा सकते, वे सारे सकारात्मक काम अब आम आदमी और सितारों को करना चाहिए।

गणतंत्र व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्वयंभू नेताओं से अधिक उत्तरदायित्व आम जनता का है और हर व्यवस्था की शिकायत करने वाले खुद अपने आप से सवाल पूछें। किसानों की इतनी अधिक संख्या में आत्महत्या हर आम आदमी के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। आजादी के इतने दशक बाद भी गांवों में बिजली नहीं पहुंची, अस्पताल नहीं खुले, क्योंकि पूरा समाज ही सुविधाभोगी होकर आत्मकेंद्रित हो गया है। जब साधारण से दवाखाने ही नहीं खुल पाए तब यह उम्मीद करने का कोई अर्थ नहीं है कि मनोविज्ञान के जानकार गांव में क्यों नहीं हैं। किसानों की आत्महत्या के कारण महज सूखा पड़ना या आर्थिक अभाव ही नहीं है वरन् नैराश्य है, जो जीवन को मूल्यहीन बना देता है। तीन दशक पूर्व एजे क्रोनिन की 'सिटेडल' से प्रेरित विजय आनंद की देव आनंद, मुमताज और हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म 'तेरे मेरे सपने' में गांव के अस्पताल के एक डॉक्टर के शहर में सफल होने के साथ नैतिक मूल्यों के पतन की कहानी थी। गांव के अस्पताल में सुविधा की कमी के कारण नायक महानगर आया था, जहां उसकी व्यक्तिगत सफलता और महानगर की रोशनियों से उसकी आंखें चौंधिया जाती हैं। कोई जरूरी नहीं है कि आपको कैटरेक्ट अर्थात मोतियाबिंद ही हो, नज़र व नज़रिया कई कारणों से कमजोर हो सकते हैं। शायद इसे ही रेखांकित करने के लिए जीनियस विजय आनंद ने एक दृश्य रखा था, जिसमें गांव का पुराना साथी डॉक्टर महानगर के सफल डॉक्टर के कक्ष में बत्ती गुल करके बैठा है और जब शहरी डॉक्टर आकर रोशनी करना चाहता है तो वह कहता है, 'रोशनी मत करो, जो मैं कहने आया हूं, वह तुम अंधेरे में ही सुनो तो बेहतर समझ सकते हो।'

हिंदुस्तानी सिनेमा में अनेक दशकों तक जमीन, किसान और मजदूर पर फिल्में बनती रहीं परंतु आर्थिक उदारवाद के बाद जीवनशैली इतनी बदली कि गांव, किसान तो दूर की बात है, फिल्मों से दिवाली, होली जैसे तीज-त्योहार भी नदारद हो गए। जानवरों के सींग रंगने और उनकी पूजा का त्योहार तो ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सिर से सींग। दशहरे पर मशीन की पूजा भी बहुत कुछ बयां कर रही है और िदवाली पर लक्ष्मी पूजन अब हर दिन की रीति हो चुकी है। पहली बोलती फिल्म के निर्माता ने सआदत हसन मंटो से 'किसान कन्या' लिखवाई थी और अब्बास साहब ने 'धरती के लाल' बनाई थी परंतु कौमी दंगों के कारण 1946 में 'धरती के लाल' का अखिल भारतीय प्रदर्शन नहीं हो पाया परंतु बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' खूब देखी गई और धवन की मुंशी प्रेमचंद की 'दो बैलों की कथा' से प्रेरित हीरा-मोती भी सफल रही थी। विगत समय में जहरीले फर्टीलाइजर, हथियार व इंसान के अपने हृदय में बसी नफरत की बोनी हमने की है तो फसल कैसे अच्छी होगी। नफरत और संकीर्णता के त्याग के बाद ही जमीन पर फसलें लहराएंगी और किसान अात्महत्या नहीं करेंगे।