जमीन पर गिरते सितारे / जयप्रकाश चौकसे

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जमीन पर गिरते सितारे

प्रकाशन तिथि : 15 जुलाई 2012

महाराष्ट्र सरकार, उसके अफसरों तथा मुंबई महानगरपालिका के सामने अनेक समस्याएं हैं और मानसून से जूझने की तैयारी भी अभी अधूरी है, परंतु निर्मम सितारा केंद्रित अपसंस्कृति की शिकार व्यवस्था माधुरी दीक्षित नेने की प्रस्तावित नृत्य अकादमी के लिए उन्हें प्लाट दिखाने के नाचीज काम को महत्व दे रही है। जिस शहर में लगभग 30 लाख लोग नारकीय झोपड़-पट्टी में रहते हैं और अनगिनत लोगों का पूरा जीवन ही फुटपाथ पर गुजर जाता है, उस महानगर के आला अफसर एक अभिनेत्री को जमीन उपलब्ध कराने के लिए बेकरार हैं।

उन्हें आम आदमी की तकलीफें नजर नहीं आतीं, परंतु उनकी आंखों में कॅरियर के उतार पर फिसलती एक धक-धक नायिका का हुस्न छाया हुआ है। उन्हें भूख से परेशान लोगों की आहें नहीं सुनाई देतीं, लेकिन उनके कानों में पायल की छम-छम गूंजती है। हमारी व्यवस्था में साधनहीन लोगों के लिए किस कदर उदासीनता छाई है कि वे फिल्मी सितारों के लिए पलक पांवड़े बिछाने में गर्व महसूस करते हैं। उनके दफ्तर में न्याय मांगने की अर्जियां धूल खा रही हैं, परंतु एक अभिनेत्री की सहायता के लिए वे तत्पर हैं। क्या जमाना है, क्या नजारा है और क्या सितारा है। हमारे मशहूर सितारे व्यवस्था से रियायत मांगने का कोई अवसर नहीं छोड़ते।

आज से कुछ वर्ष पूर्व महान सचिन तेंडुलकर ने उपहार में मिली फेरारी के लिए कस्टम से कर माफी की गुजारिश की थी। मुद्दा यह नहीं है कि कर माफी मिली या नहीं, मुद्दा रियायतें मांगने की मानसिकता और सितारा हैसियत के गन्ने से रस की आखिरी बूंद तक निकालने का है। हमारे सितारों के निर्मम दोहन का यह हाल है कि उनके रस निकालने के बाद गन्ने के चूरे की ओर जानवर देखते तक नहीं। उन्हें मालूम है कि ‘रसिया ने सब रस ले लिया रे पिंजरे वाली मुनिया, चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया।’ सितारों के लिए व्यवस्था का झुकना और संपन्न व्यक्तिका अपने लिए रियायतें मांगना एक ही स्वार्थी मानसिकता के दो पहलू हैं।

यह खुशी की बात है कि सेवानिवृत्त सितारा ‘ज्ञान’ बांटना चाहती हैं, परंतु इसके लिए स्वयं संपन्न होते हुए भी जमीन नहीं खरीदना चाहतीं। उन्हें अपने प्रिय फिल्मकार सुभाष घई के अनुभव की भी जानकारी नहीं कि भविष्य में क्या हो सकता है? माधुरी सुंदर और प्रतिभाशाली हैं, परंतु उन्होंने प्रकाश झा की ‘मृत्युदंड’ को छोड़कर कभी कोई महान फिल्म नहीं की है। उनके पास सफल फिल्मों की कतार है, परंतु एक अदद ‘बंदिनी’, ‘मदर इंडिया’ या ‘पाकीजा’ नहीं है। कुछ वर्षो बाद उन्हें कैसे याद रखेंगे। निवेदन करने पर भी उन्होंने अपनी मातृभाषा मराठी में कोई फिल्म नहीं की है। उन्होंने महाराष्ट्र के लिए क्या किया है? केवल चंद वर्ष अमेरिका में रहने के बाद अब वे हिंदी और मराठी भी अमेरिकी लहजे में बोलती हैं।

यह सही है कि अपनी किशोर अवस्था में माधुरी ने भरतनाट्यम की शिक्षा ली थी, परंतु महाराष्ट्र के अनेक मध्यम वर्ग के परिवार की किशोर लड़कियां गायन, नृत्य, रंगमंच इत्यादि सीखने का प्रयास करती हैं। क्या उतने सीमित अनुभव से आपको शिक्षा देने का अधिकार मिल जाता है? यह सच है कि फिल्मों के लिए उन्होंने अनेक लोकप्रिय नृत्य किए हैं और ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसे गाने भी बखूबी निभाए हैं। क्या यह अनुमान करना गलत होगा कि उनकी प्रस्तावित नाट्यशाला में युवा लड़कियां ‘चोली’ और ‘धक-धक’ के लिए आएंगी? क्या यह भी मुमकिन है कि वे अपनी छात्राओं को नि:शुल्क ‘ज्ञान’ देंगी? क्या यह ‘पाठशाला’ समाजसेवा के लिए रची जा रही है? माधुरी और सचिन की बात केवल लाक्षणिक है। बीमारी सर्वत्र व्याप्त है।

बहरहाल, यह बात महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है, अनेक प्रांतों में वहां जन्मे प्रसिद्ध लोगों ने अपने रसूख का लाभ उठाकर जमीनें हड़पीं हैं और कई जगह तथाकथित तौर पर जन्में ‘लोकल’ नायकों को भी जमीन आवंटित हुई है। ये सारे आवंटन किसी न किसी पाठशाला या कला केंद्र के नाम पर हुए हैं और वहां कभी कोई संस्थान नहीं खुला। राजनीतिक दलों ने भी अपने रसूख का इस्तेमाल करके संस्कृति के विकास के नाम पर जमीनें हड़पी हैं। यह सब असल सांस्कृतिक शून्य के कारण घटित हुआ है। सारी दुनिया की पुलिस और गुप्तचर संस्थाएं भी दिन-रात काम करके भारत महान में जमीन और संपत्ति हड़पने के सारे अपराध उजागर नहीं कर सकतीं।

आप आंख बंद करके पत्थर मारिए, वह किसी न किसी घपले पर ही पड़ेगा और सारे राजनीतिक दल इसके जिम्मेदार हैं। अनेक सितारों ने किसान होने के झूठे प्रमाण पत्र देकर जमीन हड़पी है। उनमें से किसी ने फिल्म तक में किसान की भूमिका नहीं की है। उन्हें डॉन बनने से ही फुरसत नहीं मिली।