जमुना के तीरे-तीरे / विद्यानिवास मिश्र
जमुना के तीरे-तीरे चलता आ रहा हूँ। जल के रंग से खिंच कर मन पैरने को करता है, पर गहराई का आभास पाकर डग आगे नहीं पड़ता। इसी खींचातानी में किनारे-किनारे रमता आ रहा हूँ, कहीं सुघाट मिल गया और भली डेंगी मिल गई तो दूसरा किनारा थाम्हे चलता रहा और लौट कर फिर इसी किनारे। उस किनारे जाता हूँ तो बबूल की छाँह मिलती है, करील के कुंज मिलते हैं और मिलते हैं कुश-परास, आगे रेती और चिलचिलाती धूप या कड़ा जाड़ा। इन्हीं के साथ मिलती है कँटीले बबूल की मीठी गंध तनिक भी नशीली नहीं, पर बड़ी शीतल और हियलगी, मिलती है पलाश की निर्गंध लाली, अपार्थिव तेज से डहडहाई और मिलती है कुश की नुकीली हरीतिमा। करील के कुंजों में मिलती है अंत: सलिला सरस्वती की गूँज,अमिय बरसाने वाले गगन का अनाहत नाद। पर गेहूँ की बालियों के झुमके नहीं मिलते, मटर के फूलों की नकबेसर नहीं मिलती, कचनार का लुटाया प्यार नहीं मिलता और सघन वंशीवट की स्निग्ध छाँह नहीं मिलती। मन मानता भी है तो रूप की ये जली आँखें नहीं मानतीं। इसलिए थोड़ी देर घूम-घाम कर फिर इसी किनारे पलट आना पड़ता है।
भले याद आई, इसी किनारे पर मिलता है दोआबा, गंगा-यमुना का अंतर्वेद... जिसमें छतियाफार अनाज उपजे, जिसमें अमराइयों की लहक से वायु पुलकित हो-हो जाए। याद आई कि रूपकों के धनी तुलसी ने 'राम भगति' को 'वर सुरसरि धार' का साकार रूप प्रदान किया है और साथ ही उन्होंने ब्रह्म विचार के प्रचार' को सरस्वती का निराकार रूप प्रदान किया है। इन दोनों के बीच में
करम कथा रविनंदिनि बरनी।
बिधि निषेधमय कलिमय हरनी॥
पूरी अर्द्धाली जोड़ी गई है, कर्म के श्यामल सौंदर्य को आत्मसात करने वाली यमुना के लिए। विधि-निषेध से पुण्य-पाप, सुख-दुख और राग-द्वेष आदि द्वंद्वों का संकेत मात्र किया गया है, पर 'कतिमलहरनी' कहने का स्पष्ट अभिप्राय है कि कर्ममार्ग ही कलिमल-हरण करने में समर्थ हैं, क्योंकि यही राजमार्ग है, इससे दिनलगाव जितना हो, पर रास्ता सीधा है कटाव-घुमाव नहीं है। इस नदी में छिछलापन नहीं है, मजे में नाव आ जा सकती है, गहराई है, कुंड हैं, पर तोड़-मार धार नहीं है, घुमरीदार भँवर नहीं है, पानी का बहाव मंद है, एक बार तैरना आ जाए तो फिर विश्वस्त होकर धारा को पकड़े आदमी आगे बढ़ सकता है जल-सघन नील होते हुए भी अत्यंत पारदर्शी है। जल की भीतरी सतह तक झलझल-झलझल दिखाई पड़ जाती है। कर्मपथ में भी अणु-अणु का दर्शन हो सकता है। इस पथ में त्वरा नहीं है, गहनता है, पर भय नहीं है। बस अभ्यास की जरूरत पड़ती है। ऊपर निविड़ संघर्ष का अंधकार होते हुए भी भीतर शीतल शांति का आलोक बना रहता है।
जाने कब से बराबर जमुना की धार धरे चलता आ रहा हूँ। बीच-बीच में दूर नीचे से किसी भिन्न कलकल की गूँज भी सुनाई पड़ी है, कई बार उसके पीछे भटकते-भटकते छिछली खेलने लगा हूँ, पर वह कल-कल ध्वनि बराबर कुछ देर बाद आप से खो जाती रही है। चिंतन के ऐसे उलझे क्षणों के बाद क्लान्ति और विवशता के सिवा और कुछ हाथ नहीं लगा है। कई बार मुझे याद है मैनें हाथ से डाँड़ छोड़ कर नाव टिका दी है और अपने मन से नाव किसी अनजाने कुघाट पर आकर लग गई है, मैं अपने में खोया हुआ यकायक चौंक कर जग पड़ा हूँ। तब मेरा ज्ञान घाट पर सिर धुनती हुई लहरों के साथ चूर-चूर होता रहा है, अपने को नियंता समझने की अहंता लौटती लहरों के साथ डूब जाती रही है।
पर यह जली रेतीली सरस्वती का विभ्रम बहुत बड़ा अभिशाप है। मैं आज युगों के बाद भी पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि जहाँ से चला था, वह जगह ही मानों इसी बीच आगे बढ़कर आ गई है, मैं उससे आगे नहीं बढ़ सका हूँ। प्रगति का यह धीमापन उस जली रेतमई की प्रसादी है। कुछ रेगिस्तानी बलुओं में से भी ऐसा लुभावना मधुर संगीत कभी-कभी निकला करता है। वह संगीत मरीचिका से भी अधिक खिझाने और पगलाने वाला होता है, क्योंकि रसना से श्रुति का महत्व जो अधिक होता है। मेरे पीछे की चली हुई किश्तियाँ आगे का क्षितिज पार करके ओझल हो गईं, पर मैं अभी लगभग जहाँ का तहाँ। इस मरे ज्ञान की 'नसावनी' भूख जिसे अपने संतोष के लिए साधना भी कह लेता हूँ मुझे'सुन्न' बनाती जा रही है। और यह ज्ञान देता क्या है, निराशा, हीनता, ग्लानि, अनुताप और उदासी। हाथ अपने जी भर डाँड़ चलाते रहते हैं, पर मन पीछे किसी कछार में दु:स्वप्नों में उलझा पड़ा रहता है। कर्म के तुमुल संकुल के बीच उत्साह के साथ ठेला-ठेली करते हुए भी भीतर निष्फलता की भावना सुबकती रहती है।
जिंदगी में ऐसे मोड़ एक वृत्त बनाकर मेरी आँखों के सामने नाच रहे हैं। बचपन में, दूसरों के मुख से ही सुना है कि जज बनने की बात मैं किया करता था। उस माने में जज तो नहीं बना, पर यह इच्छा अनचाहे रूप से यों पूरी हुई कि मैं अपने ही भाव-कुभाव का बहुत कच्ची उम्र में ही जज बन बैठा और मन में तीन व्यक्तियों की स्थापना हो गई। इस जजों ने प्राय: भीतरी झमेलों को निबटाने के बजाए और अधिक उलझाया ही है, जिससे अंतर्द्वंद्व ने नया-नया रूप धारण किया है। और घूम-घाम कर मैं फिर पृथ्वी को गोल सिद्ध करने के लिए वहीं का वहीं मौजुद हूँ। कि कर्म-पथ में सबसे अधिक भय मनुष्य को अपने ज्ञान से है। ज्ञान से बढ़कर कोई भ्रामक तत्व इस पथ पर है ही नहीं।
ऐं! बुद्धिवाद के इस युग में ऐसी बात? हाँ, बुद्धिवादी युग स्वयं विमूढ़-प्राय हो गया है, उसके पैरों में अपनी ही बनाई बेड़ी लग गई है, मैं जो कह रहा हूँ वह आसपास की गर्दनतोड़ घुड़दौड को दख कर कह राह हूँ। इस घुड़-दौड़ में जो अंधाधुंध घोड़ा दौड़ाएँ चला आ रहा है, वही आगे निकल पा रहा है, कलाबाजी करने वाले सवार पीछे रह जा रहे हैं। विवेक का जो सहारा ले रहा है, वह विवेक भर के लिए हो रहा है। अपनी कर्मगा यमुना में ही देखता हूँ, जो बचा-बचा के अपनी नाव आगे की ओर निकालना चाहता है, वह पीछे रह जाता है और जो दूसरों को ढकेलते छकियाते हुए किसी नाव के डूबने आदि की पहरवाह न करते हुए अपनी बिजली-डेंगी चीरता चला जाता है, वही नौका-दौड़ में विजय-पदक प्राप्त कर रही है। बुद्धिमान लोग इसी को 'योग्यतम का अतिजीवन' (सरवाइवल आफ दी फिटेस्ट) कहते हैं। डर्विन का सिद्धांत है, कुछ मजाक थोड़े ही। परंतु तब बुद्धि का भी कुछ मूल्य है कि नहीं, यह प्रश्न स्वभावत: उठेगा। इसके जवाब में भी बोलने वाले बोल उठेंगे - बुद्धि का अर्थ है व्यवहार - बुद्धि उसका अर्थ निर्विकल्प ज्ञान नहीं है, और व्यवहार-बुद्धि का सीधा सादा अर्थ है 'काँइयापन' जिसके अनुसार उचित अनुचित के विवेक का पैमाना बन जाती है यदृच्छा या मनमानी।
यह भी लोग कहते हैं कि धूर्तता की बदौलत ही मनुष्य अपने से विशाल और शक्तिशाली प्राणियों को भी परास्त करके सृष्टि में मूर्धन्य बन गया है, स्वयं मानव जातियों में ही जो जाति जितनी ही महीन चतुराई में अभ्यस्त रही है, वह उतनी ही आगे बढ़ती गई है। सिधाई और सच्चाई के पीछे भटकने वाली जाति विलुप्त हो गई है।
अब प्रश्न यह है कि धूर्तता को ज्ञान की कोटि में रखा जाए कि नहीं और यदि रखा जाए तो क्या आगे बढ़ना ही एकमात्र सफलता का मापदंड है? ये जिज्ञासाएँ उठती हैं, पर इनका ठीक-ठीक समाधान नहीं मिल पाता। 'गहणा कर्मणो' गति:' कर्म की गहराई आज तक थहाई नहीं जा सकी। साध्य बड़ा कि साधन, सिद्धि बड़ी कि साधना, या सागर बड़ा कि नदी, इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर मिल नहीं सका। प्रत्येक युग में इन प्रश्नों की मीमांसा करने का प्रयत्न हुआ है, पर कभी भी कवियों की किसी एक उत्तर पर राय एक नहीं हो सकी है। सीधी-सी बात जानता हूँ कि जमुना की धार में जीवन-नौका छोड़ दी है, अनके मानसिक क्लान्तियों एवं विरसताओं के बीच हार थक कर इसी धारा में पड़ा रहा, बीच-बीच में एक से एक चमकीली उपधाराएँ आईं, बहुतेरे साथ के माँझी उनकी धरे-धरे ऊपर चढ़ गए और बीच-बीच में गंदी मोरियाँ भी मिलीं, कुछ साथी उनकी ओर खिंचकर नीचे चले गए, कर्म-पथ पर चलने रहने की अपेक्षा उन्हें नरकों में धँसना ही सुकर लगा, परंतु मेरी तरी निश्चल गति से यमुना की मझधार में ही पड़ी रही।
सुना है कि यमुना और यमराज में भाई-बहन का नाता है, शुभ-अशुभ और विधि-निषेध की थप्-थप् इसीलिए इस धारा में एक क्षण भी बंद नहीं होती, भाई इनके लेखा-जोखा के ठेकेदार जो ठहरे। एक बार थप्-थप् से इसीलिए इस धारा में कान परच जाते हैं तो फिर बाद में इनके बिना जीना दूभर हो जाता है, यह ध्वनि प्राणों में बस-सी जाती है। इस ध्वनि के आगे दूर से आती हुई गंगा की हहकार अधिक विमोहिनी हो पर आप्यायिनी नहीं है। जब नाव को प्रतिकूल पवन मिला है, तो उस पवन के साथ जूझते हुए मैंने वह हहकार जरूर सुनी है। जब प्रतिकूल परिस्थितियों ने मुझे झकझोरना चाहा है,झकझौर के मेरी नाव उलटनी चाही है, तब उस हहकार का उद्दम आमंत्रण अनचीते ही मिला है। उस समय भक्ति-प्रवाहिनी अपने अंत : श्रवणों के समीप उमड़ने लगी है और अपनी नाव से बँधे रहने के नाते अपनी धार न छूट सकी हो, यह दूसरी बात है, पर उस आमंत्रण ने ऐसी लवलीनता ला दी है कि उलटी बयार का वेग कुछ जान ही नहीं पड़ा है और उसकी चोट मैंने फूल की तरह ओढ़ ली है। इन विरल क्षणों का मैं आभारी हूँ, क्योंकि मैं अपने आप तो उस सुरसरिता की धार पाने कौन कहे चाहने से भी रहा, पर जो अनमाँगे, बेबुलाए वह अपना दुलारभरा संदेश भेजती है तो मैं हृदय से उसकी कृतज्ञता कैसे न मानूँ। कौन जाने, यह कृतज्ञता ही कभी मन में वहाँ तक पहुँचने की उन्मादिनी प्रेरणा बन जाए तब वह रोके न रुके जब तक उस धवल धार में लीन न हो जाए।
सुनता हूँ उस धारा में एक बार आदमी उतर जाए तो बस उसे हाथ-पाँव हिलाने की जरूरत नहीं रह जाती, कर्तव्य-अकर्तव्य का प्रपंच नहीं रह जाता, शुभ-अशुभ का बोध नहीं रह जाता, सुख-दुख की अनुभूति नहीं रह जाती, सब कुछ धारा में समर्पित हो जाता है। हाँ, उस धारा में उतरना कठिन है, इतने लुभावने और इतने डरावने अंतराय हैं कि वहाँ तक पहुँचना खतरे से खाली नहीं है। मेरे जैसे भीरुओं के लिए वह रास्ता नहीं है। जिसको अपने पाप-पुण्य से चिपकाव होगा, वह उस धारा में कूदने का साहस नहीं करेगा। जो अपने प्राणों का मोह छोड़ कर ऊँचे कगार से कूद जाने का बस एक बार साहस कर सके, उसी की वह धार है। उस धार में कूदने वाला स्वयं नौका बन जाता है, उसे ले जाने के लिए किसी दूसरी नौका की आवश्यकता नहीं रह जाती।
पर जाने दो, जो मेरा प्राप्य नहीं है, उसकी चर्चा क्यों करूँ, इसलिए कि बहुत मीठी है, चोरी की प्रीति की तहर, लोभी के दाम की तरह। न-न-न-न मेरी यह चिरपरिचित चिरचलित धार ही बहुत अच्छी है। भले ही उसके दोनों ओर करील ही करील हो, भले ही उसकी धारा में विरसता की जड़ता हो, भले ही उसकी लीक लहरदार न हो, पर उसके श्यामल रंग के प्रसार में जो सौंदर्य है, मैं उसी पर मुग्ध हूँ। अपने बहुधंधीपन में मैं इस सौंदर्य के प्रति अंधा हो जाऊँ, यह मेरी अपनी चूक है। मैं बीच धारा पकड़ के नहीं चलता, यह मेरी अपनी दुर्बलता है। स्थिर और निश्चित सिद्धि के लिए मेरा जो लोभ है, उसी के कारण तो एक-एक पग दूभर हो गया है। पर इस थकान में भी जमुना के तीर चलते रहने का अपने आप क्रम बना हुआ है। वह कम नहीं है। यों तो अपने नसीब के नाम पर कल्पना मानव स्वाभाव है, उसके लिए मै क्या करूँ?
- श्रवण 2008, प्रयाग