जयपुरी कंगन / ममता व्यास
आज सुनयना ने जल्दी-जल्दी घर का और गौशाला का काम निपटाया, मवेशियों को चारा डाला और दूध के डब्बे फटाफट सभी के घर पहुँचा आई। गाय दुहना और दूध घर-घर पहुँचाने के काम में वह ऐसी उलझ जाती है कि ज़रा फुर्सत नहीं मिलती। आज सुबह से ही उसने तय कर लिया था कि आज वह सावन का मेला देखने ज़रूर जायेगी। पूरे पांच दिन से मेला लगा था गाँव में। आज मेले का आखिरी दिन है। गाँव की सभी औरतें रोज़ किसी न किसी बहाने से सावन का मेला घूम ही आती थीं, कभी कोई झूला झूलने जाती तो कभी कोई मेहंदी लगवा आती। बस एक वह ही थी, जिसे फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। आज तो उसने ठान ही लिया कि मेले में ज़रूर जाएगी। लोहे के पुराने बक्से में से उसने काली छींट की लाल साड़ी निकाली और रुमाल में दो तीन मुड़े-तुड़े नोट बाँधकर ब्लाउज में खोंस लिए।
मेला बहुत ही सुन्दर था। कई तरह की दुकानें लगी थीं। रेशमी कपड़ों की, चीनी के बर्तनों की, लाख की रंगबिरंगी चूडिय़ों की, बच्चों के लिए लकड़ी के सुन्दर-सुन्दर खिलौनों की, लेकिन चूडिय़ों की दुकानों पर सबसे ज़्यादा औरतों की भीड़ थी। दुकानों के सामने जो मैदान था, वहाँ कई तरह के झूले लगे हुए थे और इन झूलों पर बच्चों और औरतों का हुजूम था।
कोने की एक दुकान पर कई स्त्रियाँ कतार लगाये खड़ीं थीं। वे अपने हाथों पर मेहंदी लगवा रही थी। सुनयना ने ग़ौर से मेहंदी लगवाने वाली स्त्रियों की ओर देखा। वे सब धनाढ्य परिवार की स्त्रियाँ थीं, जो हाथ भर-भरकर मेहंदी लगवा रही थी। उसने पूछा, कितने में भरता है एक हाथ? "सौ रुपये में एक हाथ भरता है, दो हाथ दो सौ रुपये में।" मेहंदी लगाने वाली स्त्री ने अपने लाल-लाल हाथ नचाकर उसे बताया। सुनयना ने ग़ौर से देखा उस सांवली-सी औरत के दोनों हाथ गहरे लाल, कहीं काले कहीं भूरे यानी बदरंग हो चुके थे। अब उसके हाथों पर महीनों तक कोई और रंग नहीं चढ़ सकता था, न कोई सुन्दर डिजाइन ही बन सकता था। सुनयना ने सोचा मेहंदी भी क्या चीज है अगर कायदे से और करीने से न लगाई जाए तो कितनी भद्दी दिखती है। जो हाथ उन धनाढ्य औरतों के गोरे हाथों को सुन्दर बना रहे हैं, वे हाथ ख़ुद कितने बदसूरत दिख रहे हैं। मेरे हाथ भी रोज़ उपले थापते हुए ऐसे ही तो दिखते हैं। मेरे हाथों में भी मेहंदी कभी रच नहीं सकेगी। उन पर तो गोबर ही जंचता है और ख़ुद से बातें करते हुए वह ख़ुद पर ही हंस दी। "लगवानी है क्या मेहंदी?" आवाज़ ने उसका ध्यान तोड़ा "नहीं-नहीं" कहकर वह आगे बढ़ गयी।
पूरा मेला घूम लिया सुनयना ने, लेकिन कोई चीज उसे पसंद नहीं आई। अपनी ज़रूरतों को और इच्छाओं को कम करना सुनयना ने बचपन में ही सीख लिया था। वह वापस अपने घर जाने को मुडऩे ही वाली थी कि आवाज़ आई "जयपुरी कंगन ले लो जयपुरी कंगन, आज मेले का आखिरी दिन है। कंगन ले लो।" सुनयना ने देखा एक दुकान पर बहुत सुन्दर रंगीन मोतियों से चमचमाते हुए सुनहरे कंगन सजे हुए थे। बहुत-सी औरतें उन्हें अपनी कलाइयों में पहन-पहनके देख रही थीं। सुनयना भी उन औरतों के पास जाकर खड़ी हो गयी।
एक जयपुरी जड़ाऊ कंगन पर उन औरतों की नज़र रुक गयी। दिखने में छोटा, लेकिन ग़ज़ब का बारीक काम था उस पर। कंगन के ऊपर सुन्दर रंगबिरंगे मोतियों को और हीरों को बहुत ही सुन्दर तरीके से जड़ा गया था। ग़ज़ब की मीनाकारी भी थी उसमें। बहुत देर से सभी औरतें बारी-बारी से उस कंगन को पहनने का प्रयत्न कर रही थीं, लेकिन किसी भी स्त्री का हाथ उस कंगन में जाता ही नहीं था।
उन चतुर स्त्रियों ने बहुत देर तक कोशिश की, लेकिन कोई भी उस जयपुरी कंगन को पहनने में सफल नहीं हुई।
बस उसे गोल-गोल घुमाकर देखती, पहनने की कोशिश करती और मायूस होकर रख देती।
सुनयना बड़ी देर तक उस दुकान पर खड़ी रही और उन धनाढ्य और चतुर औरतों की परेशानी देख रही थी।
वह जानती थी कंगन कैसे पहना जायेगा। उसे पता था ये कंगन सीधे-सीधे कलाइयों में नहीं पहना जायेगा। वह कंगन इतनी कुशलता से गढ़ा गया था कि घंटों देखने पर भी उसका न ओर मिलता था न छोर। चतुर कारीगर ने रंगबिरंगे मोतियों के बीच में ही कुशलता से एक छोटा पेच लगा दिया था। जिसे खोलते ही कंगन दो भागों में बंट जाता था और फिर उसे आराम से कलाई पर बाँधा जा सकता था।
सुनयना ने उस खूबसूरत कंगन को उठाया और पेच खोलकर अपनी कलाई पर बाँध लिया। कंगन पहनते ही उसकी कलाई और भी खूबसूरत हो गयी थी और पलभर में कंगन भी सुनयना कि चतुराई पर मुस्काने लगा था।
तभी दुकानदार ने कहा "पांच हज़ार रुपये।"
"क्या? इतना कीमती है यह। उसकी आवाज़ भर्राई।"
"हाँ, जयपुरी कंगन है ये, हर कहीं नहीं मिलता, असली पक्के मोती जड़े हैं इसमें, अपने आपमें अनोखा है ये कंगन।" क़ीमत सुनकर सुनयना ने भारी मन से कंगन वापस रख दिया।
अपने पूरे जीवनभर की कमाई देकर भी वह ये कंगन नहीं खरीद सकती थी।
मन ही मन सोचने लगी, उन चतुर महिलाओं के पास क़ीमत है, लेकिन वे कंगन खोलने का रहस्य नहीं जानतीं। मेरे पास उसे खोलने का रहस्य है, लेकिन खरीदने की क़ीमत नहीं।
सुनयना के मुंह फेरकर जाने से न जाने क्यों कंगन उदास हो गया। वह मन ही मन बोला-"तुम जानती हो मेरे खुलने का रहस्य फिर क्यों मुझे छोड़ जाती हो? जानती हो, मैं कब से इस दुकान में पड़ा हूँ। हर स्त्री मुझे देखती है। आकर्षित होती है और घंटों उलटती है, पलटती है, घुमाती है, लेकिन मेरे छिपे हुए खुलने के पेच को नहीं देख पाती। ऐसे तो मैं सदियों तक किसी कलाई को छू नहीं पाऊंगा, मुझे छोड़कर मत जाओ।"
सुनयना ने भी हसरतभरी निगाह उस नायाब कंगन पर डाली और तेज चलते हुए मेले से बाहर निकल आई।