जयपुर और कोल्हापुर : कैसी नज़दीकी? / जयप्रकाश चौकसे

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जयपुर और कोल्हापुर : कैसी नज़दीकी?
प्रकाशन तिथि :20 मार्च 2017


भारत के नक्शे में जयपुर और कोल्हापुर चंद इंच के फासले पर है परंतु जमीन पर यह दूरी सैकड़ों मीलों की है। जयपुर राजस्थान में है और कोल्हापुर महाराष्ट्र में। जयपुर अपने इतिहास के लिए और कोल्हापुर अपनी चप्पलों के लिए प्रसिद्ध है परंतु मराठा इतिहास में कोल्हापुर का महत्व जयपुर से कम नहीं है। फिल्म इतिहास में भी कोल्हापुर का बहुत महत्व है, वहां कभी फिल्म निर्माण का स्टूडियो हुआ करता था और संभवत: लता मंगेशकर ने भी इसी तरह की पहल की थी। बहरहाल, फिल्मकार संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्‌मावती' की शूटिंग दोनों ही शहरों में संभव नहीं हो पाई। जयपुर में करणी सेना ने उधम मचाया कि फिल्म में प्रामाणिक इतिहास नहीं है। धन्य हैं वे लोग, जिन्होंने पटकथा पढ़े बिना आपत्ति उठाकर फिल्म की शूटिंग नहीं होने दी। क्या वे हुड़दंगी पकड़े गए या पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने के प्रयास किए? इसी तरह कोल्हापुर में 'पद्‌मावती' के सेट पर तोड़-फोड़ हुई और महीनों के परिश्रम से बनाए परिधानों में आग लगा दी गई गोयाकि नए ढंग से होली मनाई गई। कभी गांधी ने अंग्रेजी वस्त्रों को जलाकर स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई थी और दशकों बाद भारतीय निर्माता की इतिहास प्रेरित काल्पनिक फिल्म के लिए बनाए परिधान जला दिए गए। पहली आग गुलामी के दिनों में लगाई गई और दूसरा अग्निकांड स्वतंत्र भारत में हुआ है। क्या हमारी स्वतंत्रता पर अभी तक गुलामी की परछाई पड़ रही है? संभवत: तर्कहीनता और अंधविश्वासों से हम कभी आजाद होना ही नहीं चाहते। संविधान के आदर्श का यथार्थ यह है कि हुड़दंग अपने आप में एक अलिखित संविधान बन चुका है।

जयपुर और कोल्हापुर में हुड़दंग करने वालों के बीच कोई भाईचारा या रिश्तेदारी नहीं है। यह कोई योजनाबद्ध काम नहीं है और उन लोगों की भंसाली से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी भी नहीं है। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि संजय भंसाली के सिनेमा पर उनके अपने महान निर्देशक शांताराम का गहरा प्रभाव है। दरअसल, शांताराम ने बहुत लंबी पारी खेली और अगर हम सिनेमा को एक दिन मान लें तो यह कहना होगा कि वे सूर्योदय के थोड़ी देर बाद आए और सूर्यास्त के कुछ पहले चले गए। भंसाली पर उनकी 'नवरंग' और 'झनक झनक पायल बाजे' का प्रभाव हो सकता है परंतु शांताराम की 'दुनिया न माने (1937),' 'आदमी (1941),' और 'दो आंखें बारह हाथ' का कोई प्रभाव नहीं है। शांताराम ने अपनी लंबी पारी में कवितानुमा फिल्मों के साथ गद्यनुमा फिल्में और नीरस 'ग्रामरनुमा फिल्में' भी बनाई हैं।

संजय लीला भंसाली के पिता ने एक असफल फिल्म बनाने के बाद शराबनोशी में अपने को गर्त किया और उनकी माता लीला ने उन्हें पालापोसा। लीला ने गुजराती नाटकों में नृत्य निर्देशन किया है। अपनी मां के प्रति श्रद्धा को अभिव्यक्त करने के लिए ही वे स्वयं को संजय लीला भंसाली कहते हैं। भारत के कई क्षेत्रों में मकानों के नाम 'मातृकृपा,' 'मातृछाया,' इत्यादि रखे गए हैं। मां के प्रति यह आदरभाव कमाल का है परंतु यथार्थ जीवन में कितनी ही माताएं वृद्धाश्रम में रहती हैं। भारत विरोधाभासों और विसंगतियों का देश है, जो अबूझ पहेली की तरह भी है और कबीर की उलटबासी की तरह भी है। 'औघड़ गुरु का औघड़ ज्ञान, पहले भोजन फिर स्नान।'

मलिक मोहम्मद जायसी ने 'पद्‌मावत' नामक महाकाव्य लिखा, जिसमें सूफियाना ढंग से आत्म (मनुष्य) प्रेमिका है और ईश्वर प्रेमी है। यह संभव है कि भंसाली ने यह महाकाव्य नहीं पढ़ा हो और न ही राजस्थान के मोहन काव्या से कभी वे मिले हों, िजन्होंने इस विषय का गहन अध्ययन किया है। इतिहासकार पद्‌मावती के विषय में एकमत नहीं है। कुछ का कहना है कि पूरा प्रसंग ही काल्पनिक है। इतिहास प्रेरित फिल्में काल्पनिक ही होती हैं। मुगल साम्राज्य में कोई अनारकली नहीं थी परंतु सलीम से उसकी प्रेमकथा के.आसिफ की 'मुगल-ए-आजम' का आधार है। यह भी आश्चर्य की बात है कि लाहौर में एक अनाकरकली बाजार भी है। यह सारा मामला विचित्र है। 1912 में टाइटैनिक दुर्घटना ऐतिहासिक सत्य है परंतु इसके चौदह वर्ष पूर्व मॉर्गन रॉबर्टसन ने एक उपन्यास लिखा था, जिसमें टाइटैनिकनुमा जाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ और दुर्घटना का स्थान तथा मरने वालों की संख्या भी लगभग समान है। यह अजूबा कैसे घटित हुआ? खाकसार का विचार है कि समय की नदी में ऊपरी सतह वर्तमान है, जिसके भीतर बहती है विगत में घटी बातें और भीतरी सतह पर भविष्य है तथा कभी-कभी हवा की गति, दिशा और धरती के घूमने के कराण तीनों सतहें किसी उतंग लहर में एक साथ दिखाई पड़ती है। उसी समय सृजनशील व्यक्ति समय की नदी के इस खेल को देखकर भविष्य भी जान लेता है। हमारे देश में भृगु संहिता में जन्म-जन्मातर के ब्योरे दिए गए हैं। एक पूरा ब्रह्मांड मनुष्य के भीतर विद्यमान है।