जयसिंह की वेधशाला / कविता भट्ट

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जयसिंह की वेधशाला

18वीं शदी में राजा जयसिंह सवाई ने (1688-1743) यंत्रों पर एक प्रबंध, यंत्र-प्रकार लिखा, जो 1724 से पहले पूरा हो गया। इसमें 1729 तक कुछ और तथ्य जोड़े गए। 1732 में उनके खगोलशास्त्राी जगन्नाथ ने अल तुसी रचित अलमाजेस्त के अरबी पाठों को सम्राट् सिद्धांत के नाम से संस्कृत में अनुवाद किया। इसमें पूरक परिशिष्ट जोड़ते हुए बहुत-से यंत्रों पर प्रकाश डाला गया है।

जयसिंह ने ईंट-पत्थर की कई वेधशालाओं (टेलिस्कोप से पूर्व की) का निर्माण करवाया। उन्होंने 1721-24 के दौरान बनी वेधशाला से भी बड़ी वेधशाला, 1728-34 में अपनी राजधानी जयपुर में बनवाई। 1723 और 1734 के मध्य उन्होंने मथुरा, उज्जैन तथा वाराणसी में कुछ छोटी वेधशालाओं का निर्माण करवाया। (इनके निर्माण की सभी तारीख़ें अनुमानित हैं।) वाराणसी की वेधशाला का निर्माण मानमंदिर महल की छत पर हुआ है, जो जयसिंह के पूर्वज मानसिंह (1550-1614) द्वारा बनवाया गया था; यह संभव है कि उन्होंने किसी पुरानी वेधशाला का पुनरुद्वार किया हो। जयसिंह की वेधशाला ‘शहीद शहज़ादे’ उलूग बेग के नमूनों के आधार पर बनाई गई थी। यद्यपि समरकंद की वेधशाला दिल्ली एवं जयपुर की वेधशालाओं से तीन सौ वर्ष पहले बनाई गई थी, तथापि उलूग़ बेग के यंत्र जयसिंह के यंत्रों की तुलना में काफी सत्य थे।

निस्संदेह खगोल विज्ञान में जयसिंह की सच्ची रुचि थी, किंतु यह उनके लिए आश्रय भी था और संभवतः यह उनका एक राजनीतिक वक्तव्य भी हो। सन् 1720 का वर्ष मुहम्मद शाह के लिए एक हर्ष ।का वर्ष था; क्योंकि वह ‘राजा बनाने वाले’ सामंतों के पंजों से मुक्त हो गए थे। 25 नवंबर 1720 को एक भव्य दरबार का आयोजन किया गया। वहाँ हिंदुओं से लिए जाने वाले जज़िया कर के विरुद्ध जयसिंह ने सफलतापूर्वक अभियान छेड़ा एवं जज़िया कर को समाप्त करने की दलील दी। संभवतः इसी दरबार में (या हो सकता है कुछ महीनों पश्चात् जुलाई 1721 के शाही दरबार में) जयसिंह ने अपनी वेधशाला बनाने की अनुमति बादशाह से ली। एक तरह से दिल्ली वेधशाला, जयसिंह के समर्थन से बनी, नेतृत्व का तो नहीं, लेकिन सुव्यवस्था की पुनर्स्थापना का स्मृति चिह्न है। औरंगजश्ेब के निरंकुश शासन के बाद दिल्ली में यही एक कार्य महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट था। ठीक उसी प्रकार, जयपुर तथा वहाँ की वेधशाला जयसिंह के राजसी स्वप्न का प्रतीक है। उनके खगोलीय कार्य के नामकरण में एक विडंबना है।ज़ि-ए-मुहम्मद शाही (1728 में पूर्व) संभवतया एकमात्र सच्ची श्रद्धांजलि है, जो राजा जयसिंह ने अपने निष्प्रभावी, किंतु आकर्षक बादशाह को प्रदान की थी।

सन् 1728 में, जब जयसिंह की खगोलीय सारणियाँ निर्मित हो गईं तो उन्होंने अपने ख़र्च पर एक प्रतिनिधिमंडल पुर्तगाल भेजा । आगरा के जेसुइट मिशन के प्रधान पादरी फादर इमैन्युएल डी. फिग़रेडो के नेतृत्व में यह प्रतिनिधिमंडल 1728 में लिस्बन के लिए रवाना हुआ तथा डेढ़ वर्ष बाद 1730 में वापस लौटा। अपने साथ यह प्रतिनिधिमंडल बहुत-सी गणित संबंधित पुस्तकें और संभवतः कुछ दूरदर्शी यंत्र लेकर आए थे। जयसिंह ने कुछ यंत्रों को आज़माया और उनमें कुछ कमी पाई। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि प्रतिनिधिमंडल अपने साथ लिप दे ल हाइरे (1640-1718) की लगभग महत्त्वहीन पुस्तक टेबुले एस्ट्रॉनॉमिके लेकर आया। ये सारणियाँ पेरिस की वेधशाला में बनाई गई थीं तथा 1687 में मूल रूप से प्रकाशित की गई थीं। इसका संशोधित संस्करण 1702 में आया था। जयपुर में सारणियों का स्वागत उत्साहपूर्वक किया गया और तत्काल इनका अनुवाद किया गया। यद्यपि जयसिंह की सारणियों में अधिकतर आँकड़े संभवतः उनके अपने थे, फिर भी उन्होंने दे ल हाइरे के अपवर्तन सुधारों, कई स्थानों के भौगोलिक निर्देशांकों और संभवतया समय के समीकरणों का अनुसरण किया। शीघ्र ही यह पाया गया कि हाइरे की सारणियाँ अंतिम सत्य नहीं हैं कुछ स्थानों पर अवलोकनों से वे मेल नहीं खा रही थीं। पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करते हुए जयसिंह ने इन विसंगतियों व दोषों के लिए हाइरे के यंत्रों के ‘अशुद्ध व्यास’ को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने चंद्रनगर (बंगाल) की फ़्रांसीसी-से जेसुइट पादरियों को सलाह मशविरे के लिए बुलाया। फ़्रांसीसी जे पौन्स (1698-1752) के साथ फ़ादर क्लॉड बूदियर (1686-1757) जयपुर आए और उन्होंने दे ल हाइरे की सारिणियों के त्रुटिपूर्ण होने की पुष्टि कर दी। जयसिंह ने यूरोप से दो जेसुइट गणितज्ञों की यात्रा की भी व्यवस्था की गयी तथा आदर एंतोन गैबल्सबर्गर (1704-41) तथा आंद्रियाज़ स्त्रोब (1703-52), 1740 में जयपुर आए। जयसिंह ने एक अन्य प्रतिनिधिमंडल को यूरोप भेजने की योजना बनाई थी, किंतु दुर्भाग्यवश सन् 1743 में उनका देहान्त हो गया और उसी के साथ उनकी सारी योजनाएँ समाप्त हो गईं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो जयसिंह के खगोल विज्ञान की असाधारण विशेषता उसका काल-दोष है। जब जयसिंह परिदृश्य में आए, तब एक शताब्दी पहले से यूरोप में दूरदर्शी यंत्र का प्रयोग होता आ रहा था। पेरिस तथा ग्रीनविच में वेधशालाओं का निर्माण हो चुका था तथा कई महत्त्वपूर्ण आविष्कार किए जा चुके थे। दूरदर्शी यंत्र भूतकाल से अपने आप में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। इसमें खगोल विज्ञान को आँखों के दायरे से मुक्त किया। इसलिए यह भविष्य का एक महत्त्वपूर्ण यंत्र बन गया। पीतल तर्था ईंट -पत्थर के प्राचीन यंत्र चलन से बाहर हो गए थे, भले ही वे प्रारंभिक दूरबीनों से ज़्यादा बुरे भी नहीं थे। जयसिंह यूरोपीय विकास के महत्त्व को पहचानने में चूक गए। अपनी प्रेरणा के लिए, समरकंद से परे देखने की उन्होंने रत्ती भर जरूरत नहीं समझी। उनके लिए यूरोपीय खगोलशास्त्राी यूरोप के उलूगश् बेग थे और एक निष्ठावान अनुसंधानकर्ता की तरह उन्होंने अपने परिणामों की तुलना उनके परिणामों से की।

जयसिंह के वैज्ञानिक परामर्श के लिए पुर्तगाल का चुनाव एक बहुत बड़ी भूल थी। इसकी संपदा बहुत पहले ही भारत पहुँच चुकी थी तथा इसकी शैली का उपयोग मुगश्लों ने अपनी शान-शौक़त के लिए किया था। उच्च वैज्ञानिकता से वंचित पुर्तगाल जयसिंह को ज्ञान का कोई प्रकाश नहीं दे पाया; इसलिए खगोल विज्ञान के क्षेत्र में इसका प्रभाव गौण था। 18वीं शताब्दी का खगोल विज्ञान फ़्रांस और इंग्लैंड का है। जयसिंह के लिए यह संभव था कि वह यूरोप की इस संपदा का अनुकरण करें तथा पेरिस और लन्दन से कुछ अच्छी गुणवत्ता वाले यंत्र मंगवाएँ, प्रेक्षण में उनका उपयोग करें या फिर शाही दरबार में अपनी स्थिति का प्रयोग करते हुए किसी भी व्यापारिक कंपनी से बतौर उपहार खगोल विज्ञान के यंत्रों को प्राप्त करें। किंतु जयसिंह ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। यदि उन्होंने ऐसा किया होता,तो उनके जीवन में ज्ञान का प्रकाश अवश्य होता; वह दक्षिण आकाश को परखने वाले प्रथम आधुनिक सुव्यवस्थित खगोलविद होते।

जयसिंह की विज्ञान संबंधी इमारतें लंबे समय तक अस्तित्व में नहीं रहीं। सन् 1745 में जयसिंह की मृत्यु के दो वर्ष बाद मुहम्मद शाह ने फ़ादर स्त्रोबल को दिल्ली आने का निमंत्रण दिया और उन्हें दिल्ली की वेधशाला का कार्यभार सँभालने के लिए कहा; परन्तु उन्होंने इंकार कर दिया। सन् 1764 में वेधशाला का अस्तित्व मिटा दिया गया। यह तब हुआ, जब भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के पुत्र जवाहर सिंह ने दिल्ली को लूटा। इसके 150 से भी अधिक वर्षों के पश्चात् सन् 1911 में सम्राट् जॉर्ज पंचम के दिल्ली दरबार के अवसर पर वेधशाला आकर्षक दिखे, इसलिए तत्कालीन जयपुर नरेश ने इसका पुनर्निमाण किया। आज दिल्ली तथा जयपुर की वेधशालाएँ जीर्ण-शीर्ण दशा में हैं तथा सैलानियों के आकर्षण केंद्रों के अलावा कुछ नहीं हैं। जयसिंह द्वारा किए गए वैज्ञानिक प्रयत्नों के लिए, जो हालांकि बड़े पैमाने पर अप्रासंगिक थे, इससे बड़ी विडंबनापूर्ण बात क्या होगी कि उनके पोते ने उनकी वेधशाला को तोपों के कारख़ाने में बदल दिया तथा पूर्वजों की 400 किग्रा की पीतल क एस्ट्रोलैब को निशाना साधने के काम में लिया।

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