जया बच्चन अभिनीत ‘गुड्डी’ में स्टेच्यू / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 अप्रैल 2020
ऋषिकेश मुखर्जी की गुलजार द्वारा लिखी हुई फिल्म ‘गुड्डी’ द्वारा जया बच्चन ने अभिनय क्षेत्र में प्रवेश किया। फिल्म की शूटिंग अमिताभ बच्चन के साथ प्रारंभ हुई थी, परंतुु उनके लोकप्रिय हो जाने के कारण बंगाल के समित भंजा को ले लिया गया, क्योंकि कथा में कमसिन पात्र के सिर से सितारों के लिए उत्पन्न जुनूून को हटाकर उसे यथार्थ से परिचित कराना था। फिल्म के महत्वपूर्ण पात्र को उत्पल दत्त ने अभिनीत किया था। वे जान-पहचान वाले के माध्यम से सुपर सितारे धर्मंेद्र को सभी बात बताकर प्रार्थना करते थे कि वह समित भंजा से बैडमिंटन में जान-बूझकर हार जाएं। एक दृश्य में किराए के गुंडे धर्मेंद्र पर आक्रमण करते हैं और समित भंजा उन्हें बचाता है।
इस तरह के कई दृश्यों के कारण जया बच्चन अपने सितारा क्रेज से मुक्त होती हैं। उसे समझ में आ जाता है कि फिल्म विश्वास दिलाने की कला है और दर्शक स्वयं अपनी तर्क क्षमता को स्थगित करके तमाशे में रम जाता है। रंगमंच संसार भी इसी के इर्दगिर्द घूमता है। फिल्म में यह प्रस्तुत किया गया है कि पात्र कभी-कभी स्टेच्यू का खेल खेलते हैं। स्टेच्यू अर्थात जड़ हो जाना के खेल में जब तक सामने वाला अनुमति नहीं देता, तब तक आपको मूर्तिवत खड़े रहना है। जब जया बच्चन समझ लेती हैं कि वह समित भंजा से प्रेम करती हैं, तब उससे मिलने जाती हैं और उसे स्टेच्यू बन जाने को कहती हैं। वह उससे अपने बारे में उसकी राय जानना चाहती हैं। अत: कहती हैं कि स्टेच्यू बने हुए ही पलके झपकाकर उत्तर दे सकता है। इस तरह इस प्रेम कथा का सुखांत होता है।
दुनिया के अनेक देशों में स्टेच्यू खेल की प्रथा रही है। एक देश में धनाढ्य परिवार की महिला अपने प्रेमी को स्टेच्यू कहकर अपने कामकाज में व्यस्त हो जाती है। वह अपनी संपत्ति का हिसाब-किताब देखने में व्यस्त हो जाती है। खड़ा-खड़ा वह व्यक्ति मिट्टी का बन जाता है। कुछ समय बाद महिला लौटकर उसे सामान्य होने को कहती है। माटी का पुतला बन गया व्यक्ति भरभराकर उसके चरणों में गिर पड़ता है। मिथ माटी की तरह पुराना है। मानव विचार प्रक्रिया के रहस्य को समझने में मिथ मदद करता है। कभी-कभी फंतासी द्वारा यथार्थ समझ में आता है। मिथ का वैज्ञानिक अध्ययन सन् 1825 में फ्रेडरिक मैक्समुलर नामक विद्वान ने प्रारंभ किया। मायथोलॉजी और धर्म में बहुत अंतर है। यह बात गौरतलब है कि वर्तमान समय में मिथ मेकर हुक्मरान हो गए हैं। इसी तथ्य पर अपना आश्चर्य शैलेंद्र यूं अभिव्यक्त करते हैं कि ‘फिर क्यों नाचे सपेरा..’। सामान्य बात यह है कि बीन बजाने पर सांप डोलता है। एक मिथ में ऐसे सर्प का बखान है जिसकी लंबाई नापी ही नहीं जा सकती। शैलेंद्र का उपरोक्त गीत फिल्म गाइड का है। शैलेंद्र का आशय मंत्रमुग्ध अवाम से है। ज्ञातव्य है कि राजा राव अधिकांश समय पेरिस में रहे और उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी रचनाओं का अनुवाद अनेक भाषाओं में किया गया। फिल्म गुड्डी के विषय में एक जानकारी यह है कि फिल्मकार एच.एस. रवैल की पत्नी विदूषी अंजना रवैल ने एक यथार्थ घटना गुलजार को सुनाई थी। गुलजार ने अपनी सृजन शक्ति से पटकथा लिखी। फिल्म की सफलता के बाद वे अंजना रवैल के घर मिठाई लेकर गए। अंजना रवैल इस बात से खफा थीं कि उन्हें कथा के मूल विचार का श्रेय नहीं दिया गया। दरअसल कहानियां छितरी पड़ी हैं, आप अपने दमखम से मनचाहा माल उठा लें।
प्राय: कलाकार अपनी कृति पर हस्ताक्षर करते हैं। पहले स्टेच्यू और छुपाछई जैसे मासूम खेल बच्चे खेलते थे। वर्तमान में वे वीडियो खेल में रुचि लेते हैं। ऐसा आभास होता है कि वर्तमान में अवाम ने अपनी आंख पर पट्टी बांध ली है और व्यवस्था उसकी पीठ पर धौल जमा रही है, जिसे वह प्रशंसा समझ रहा है। छुपाछई खेल में चतुर बालक आंख पर पट्टी ऐसे बांधता है कि आंख के किनारे से वह कुछ देख सके। कुछ लोग नियम तोड़ते हैं, क्योंकि ऐसा कर उन्हें आनंद प्राप्त होता है।
बहरहाल, कोरोना कालखंड में अजूबे घट रहे हैं। कुछ लोग मीलों का फासला तय करके अपने घर के निकट या अस्पताल के निकट जाकर मर जाते हैं। आश्चर्य है कि मीडिया यह नहीं बता रहा है कि विधायकों और सांसदों ने अपनी जेब से कोरोना कालखंड में कितना धन दिया। अब बताइए क्या अजंता में किसी कृति के नीचे कलाकार ने हस्ताक्षर किए हैैं? पूरा देश लंबे समय से उद्योग और अर्थव्यवस्था के मामले में स्टेच्यू बना खड़ा है और 2022 की वैश्विक मंदी में माटी के पुतले की तरह भरभराकर गिर सकता है।