जय श्री राम / पुष्पा सक्सेना
”सुनो, पिछले कम्पार्टमेंट का लेडीज कूपे एकदम खाली है............।“
”तुम्हें यहाँ कौन-सी परेशानी है?“ रोहित झुंझला उठे थे।
"परेशानी क्यों नहीं है! हम पहले से ही पाँच है, उस पर यह महिला पूरे तीन बच्चों के साथ एक बर्थ पर हक जमाने के नाम पर पूरी जगह घेरे बैठी है। बच्चे गन्दगी फेलाएँगे सो अलग......।“ मैं धीमे से फुसफुसाई थी।
”यात्रा में थोड़ी तकलीफ़ तो उठानी ही होती है, वर्ना फ़र्स्ट क्लास में चलो, पर वहाँ तुम्हें पैसे बचाने की सूझती है।“
”प्लीज रोहित, जरा टी.टी. से पूछ देखो न, अगर हम वहाँ शिफ्ट कर जाएँ तो कितना आराम हो जाएगा!“
मेरी उस मनुहार पर रोहित पसीज उठे थे। थोड़ी देर में आकर खुशखबरी सुनाई थी-
”चलो तुम्हारी ही बात रही। टी.टी. ने कह दिया है हम वहाँ शिफ्ट कर सकते है; पर मैं फिर कह रहा हूँ, यहीं बैठी रहो, व्यर्थ इतना सारा सामान ढोकर उधर ले जाना होगा।“
”थोड़ी-सी तकलीफ़ के लिए तुम दो दिनों की तकलीफ़ सह सकते हो? जरा कुली को बुला लो, छोटा-मोटा सामान हम ही ले चलेंगे!“
रोहित के अनुसार, जो मिल गया उससे संतोष कर पाना, मेरा स्वभाव ही नहीं है। भानजे की शादी में जाने के लिए ढेर-सा सामान बाँधते देख, रोहित ने नाराज़गी दिखाई थी-
”लगता है पूरा घर खाली करके साथ ले जाना है। ट्रेन से सफ़र करना है, कौन उठाएगा इतना सामान?“
”वाह, शादी-ब्याह में भी चार ही साड़ी ले जाऊंगी? साथ में लड़कियाँ है, शादी में भी अच्छे कपड़े नहीं पहनें तो कब पहनेंगे बताओ?“
प्रज्ञा और मेघा के साथ उनकी दो सहेलियाँ भी आनंद की शादी में सम्मिलित होने जा रही थीं। पाँच स्त्रियों के सामने भला रोहित अकेले की कैसे चलती? हारकर रोहित कुली बुला लाए थे। खाली कूपे में पहुँचते ही मेघा चहक उठी थी-
”वाह, मजा आ गया, यहाँ तो अब हमारा ही राज्य है। पापा, यहाँ तो छठे व्यक्ति की तरह आप भी बैठ सकते हैं।“ प्रज्ञा की माँ की बुद्धिमानी पर मुग्ध थी।
”अब आगरा तक की जर्नी नहीं खलेगी। मम्मी यू आर ग्रेट!“ प्रज्ञा हमेशा से मातृ-भक्त थी।
”पापा, अब तो ढेर-सी मूंगफली खरीद लाइए, साथ में मिर्चो वाला नमक भी जरूर लीजिएगा।“ मेघा ने लाड़ दिखाया था।
एक घंटे मूरी में ठहरने की ट्रेन की बाध्यता थी। जमशेदपुर से आने वाली ट्रेन के डिब्बे इसी गाड़ी में जोडे़ जाते हैं। प्रज्ञा और मेघा भगवान से विनती किए जा रही थीं कि उनके कम्पार्टमेंट में ज्यादा भीड़ न आए।
रोहित के मूँगफली ले वापस आने तक, दूसरे प्लेटफार्म पर जमशेदपुर की ट्रेन आ पहुंची थी। उस ट्रेन से उतर कर हमारी ट्रेन में आने वाले यात्रियों की रेलपेल के साथ प्लेटफार्म ‘जय श्री राम’ के उदघोष से गूँज उठा था। भगवा वस्त्रों में युवकों का एक जत्था हमारे कम्पार्टमेंट की ओर झपटा आ रहा था। सबके हाथ में एक-एक डंडा और माथे पर रामनामी पट्टी बॅंधी थी।
”अरे ओ सुरेसवा देख तो, राम जी हमरे खातिर ई बोगिया भेज दीहिन हैं।“
”जय श्री राम...... आइए, सब इसी में प्रवेश लें।“ दूसरे युवक ने हमारे कम्पार्टमेंट में आ, जयघोष किया था।
युवकों का जत्था इस तेजी से कम्पार्टमेंट में प्रविष्ट हुआ कि मिनटों में पूरा कम्पार्टमेंट भगवा रंग में रॅंग गया।
”ए साहबान, आप सब किसी और बोगिया में चले जाएँ, ई डिब्बा हमरे खातीर है, जल्दी करें।“ बर्थ पर डंडा खटखटाते युवक ने घोषणा की थी।
”क्या कहते हो भाई, हमारा इसमें रिजर्वेशन है।“ एक सज्जन झुँझला उठे थे।
”अरे हमार रिजरवेसन भगवान राम कराए हैं, जल्दी करो नहीं तो मामला गम्भीर बन जाई। समझ रहे हो न?“ सज्जन के साथ की लड़कियों की ओर युवक ने इशारा किया था।
युवकों ने डंडे पीटने के साथ ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने शुरू कर दिये थे। अभी तक उनकी दृष्टि लेडीज कूपे पर नहीं पड़ी थी। प्रज्ञा, मेघा और उसकी सहेलियाँ इस अचानक शोर से घबरा उठी थीं।
”मम्मी, अब क्या होगा?“ मेघा डर गई थी।
”होना क्या है? हमारी बर्थ है, हम यहाँ रहेंगे।“ मैंने उन्हें आश्वस्त किया था।
युवकों ने डंडे के जोर पर थोड़ी ही देर में कम्पार्टमेंट खाली करा लिया था। दो व्यक्तियों ने बर्थ से हटना अस्वीकार करना चाहा था-
”तुम्हारा रिजर्वेशन टिकट कहाँ है, सरसठ, अरसठ हमारी बर्थ है। ये देखो हमारे टिकट..........।“
व्यक्ति के वाक्य पूरा होने के पहले एक युवक ने उनके हाथ से टिकट छीन लिए थे।
”हम आपके खातिर गोली खाए जा रहे हैं, और आप ई टिकस दिखात हैं.... जय श्री राम.........।“
”अरे तू तो निखालिस बुद्धू ही रहा, विनोदवा। अरे हम सीने पे गोली खाए जा रहे हैं न, एही कारन ई भलमानुस अपना टिकटवा तोहका दे दिये हैं.......... अरे ला हम देखें इनकर सीटवा........जय सिरी राम.....।“ युवक ने दोनों टिकट फाड़कर हवा में उछाल दिए थे।
”अरे गुंडागर्दी की भी हद होती है! मेरे टिकट फाड़ दिए, अभी टी.टी. को बुलाता हूँ। महेश, तुम जरा सामान देखना, मैं अभी आया।“ एक व्यक्ति उत्तेजना में कम्पार्टमेंट से नीचे उतरने लगा था।
”अरे आप निश्चिन्त हो जाएँ, हम आपका समनवा अच्छे से रखेंगे भाई।“ एक युवक आँख दबा मुस्कराया था।
”जय श्री राम।“ अन्य युवकों ने जयघोष किया था।
उनकी मुद्राओं को देख दूसरा व्यक्ति डर गया था। सामान सहित कम्पार्टमेंट छोड़कर उतर जाने में ही उसने भलाई समझी थी।
लड़कियाँ अब तक इस सारे कांड को कौतुक से देख रही थीं। शायद उन्हें कुछ मज़ा भी आने लगा था।
”पापा, हम लोग भी ‘राम-सेवक’ बन गए हैं न?“ मेघा ने पूछा था।
”चुप रहो, मैं तो अभी भी कहता हूं, हमें दूसरे कम्पार्टमेंट में ही रहना चाहिए था, ये सब पूरे गुंडे लग रहे हैं।“ रोहित लड़कों के व्यवहार से क्षुब्ध थे।
”वाह, अच्छी कही। अरे एक तो इनकी वजह से हमें पूरा खाली कम्पार्टमेंट मिल गया है, उस पर तुम कहीं और जाने की बात कर रहे हो।“ मैं नाराज़ हो उठी थी।
”ठीक है, बाद में मुझे दोष मत देना।“ चेहरे के सामने अखबार खोल, रोहित ने अपने मनोभाव छिपा लिए थे।
पूरे प्लेटफार्म पर डंडे ठकठकाते युवक छा गए थे।
”अजुध्या में सीस नवाएँगे, सीने पेगोली खाएँगे। जय श्री राम..............“
श्री राम के जय-जयकार से सारी दिशाएँ गूँज उठी थीं। प्लेटफार्म के खींचे-ठेले वाले इन नारों से अभिभूत दीख रहे थे। लड़कों के एक जत्थे ने मूँगफली के खोंचे पर धावा बोल दिया था, दूसरा ग्रुप फलों की टोकरी से सन्तरे उठा, मजे से छील-खा रहा था।
”भइया पैसे........?“ दबे स्वर में मूँगफली वाले ने विनती-सी की थी।
”अरे भइया, तोरे खातिर हम गोली खाने जा रहे हैं और तुम पइसा माँगते हो?“ एक युवक ने आश्चर्य व्यक्त किया।
”हे भगवान, चुल्लू-भर पानी में डूब मरें वाली बात है.......‘जय श्री राम............’“
मिनटों में प्लेटफार्म पर लूट-मार का सा दृश्य उपस्थित हो गया। खोंचे वाले बचा-खुचा सामान उठा भागते नजर आ रहे थे और श्री राम के भक्त भगदड़ से उत्पन्न स्थिति का मज़ा उठा रहे थे।
”कैसन खदेड़ा है साल्लों को।“ एक लड़का अपनी वीरता का बखान कर रहा था।
ट्रेन का सिगनल हो गया था। सीटी के साथ डंडे पटकते श्री रामभक्त कम्पार्टमेंट में कूद कर चढ़ आए थे। रोहित ने उनके आने के पहले ही हमारे केबिन के द्वार बन्द कर लिए थे।
”जय सिरी राम...........“
”खालिस मजा आ रहा है, यार। कैसन मीठे संतरे थे। सिरी राम जी की कृपा बनी रहे, आनंद ही आनंद है।“
”कालेजवा बंद पड़ा है, घर में बोर होई गए थे, सिरी राम जी ने बुलावा भेज, तार लिया रे। अरे ओ भगनवा, तनी कुछ गीत-गान होई जाए।“
”काहे नहीं, अबहिन लो....................“
जिया बेकरार है, छाई बहार है,
आजा मोरी पूनमवा, तोहरा इंतजार है,
”हाय रे तू और तोहार पूनमवा.......... राम जी के दरबार में जाय रहा है तबहिन पूनमवा को बुलावा दे रहा है!“
जोरों के ठहाकों ने हमें दहला दिया था।
”सच कह भगनवा, ई पूनमवा से तोहार आशनाई कैसन भई? बड़ी जालिम लड़की है।“
”सरम कर मुन्ना, यार की परेमिका है पूनम............ उस पर छींटाकशी ठीक नहीं भाई?“
”अरे काहे की सरम, हम यार तो सब मिल-बाँटकर खाने वाले है। क्यों ठीक कहा न, मगन भाई?“
”सोलहो आने ठीक, तोहार जोरू, हमार जोरू...... कहो कैसन रही?“
मेरे कानों में उनके अश्लील वाक्य गर्म शीशे से चटख रहे थे। रोहित की ओर आँख उठा देखने की भी हिम्मत नहीं थी। लड़कियों की सोच दिल काँप उठा था।
”हे भगवान, किसी तरह हमारी रक्षा कर।“ मन-ही-मन मैं भगवान से प्रार्थना कर रही थी।
दूसरे स्टेशन पर रोहित उतरने लगे थे। पीछे से रोहित की शर्ट खींच मैं बुदबुदाई थी-
”कहाँ जा रहे हो?“
”टी.टी. को बुलाने जा रहा हूँ।“ कुछ उत्तेजित स्वर में रोहित बोले थे।
”शिः ............ चुप रहो, टी.टी. क्या कर लेगा? अब तो कान में तेल डाले बैठे रहो, कोई फ़ायदा नहीं।“
”होगा क्यों नहीं, अभी स्टेशन मास्टर को बुलाता हूं।“
”प्लीज पापा, आप बाहर मत जाइए।“ लड़कियों ने विनती की थी।
”चलो डिब्बा बदल लेते हैं।“ रोहित ने सुझाव दिया था।
”इतनी रात में किस डिब्बे में जगह खोजोगे! हमारे पास सामान भी तो कम नहीं है। अब तो भगवान का नाम लेकर यहीं बैठे रहो।“ इस समय सचमुच इतना अधिक सामान साथ लाने का मुझे दुख हो रहा था।
हमारी बातों की कुछ भनक शायद लड़कों को मिल गई थी।
”क्या बात है आंटी जी? कोई परेशानी है क्या?“ हमारे केबिन के द्वार पर डंडा ठकठका किसी ने पूछा था।
लड़कियाँ डर कर सिमट गई थीं। रोहित की दृष्टि मुझ पर आ टिकी थी।
”नहीं भइया, कोई बात नहीं है।“ साहस कर मैंने जवाब दिया था।
”अरे अंकल जी, आप काहे दरबे में बन्द बैठे हैं, तनिक बाहर आएँ। आपका कोई नुकसान नहीं करेंगे।“
तैश में उठे रोहित ने कैबिन का द्वार खोल दिया था। रोहित के बाहर निकलते ही मैं भी उनके पीछे बाहर आ गई थी। बाहर आते-आते प्रज्ञा को केबिन-द्वार अन्दर से लाँक कर लेने के निर्देश दिए थे।
”आइए-आइए आंटी जी, कहिए कहाँ जाना हो रहा है?“ एक लड़के ने पाँव सिकोड़ हमारे बैठने के लिए स्थान बना दिया था। रोहित के पास ही मैं भी सिमट कर बैठ गई थी।
”मेरी बहन बहुत बीमार हैं, उन्हें ही देखने हम जा रहे हैं।“ रोहित के उत्तर देने के पहले ही मैंने अपनी बुद्धि का परिचय दिया था।
”ओह, हम तो समझे आप किसी के बियाह में जा रही हैं, आँटी।“
”न भइया, हम तो मुश्किल में जा रहे हैं। आप लोग कहाँ से आए हैं?“ उनसे मित्रतापूर्ण व्यवहार करने में ही बुद्धिमानी थी।
”हम लोग तो जमशेदपुर से भी बीस कोस दूर से आ रहे हैं। अजोध्या में कार-सेवा करने जा रहे हैं।“
”आप तो बहुत महान काम के लिए जा रहे हैं। क्या स्कूल-कालेज बन्द है?“
”अरे कालेजवा तो बन्दै रहत है। ये पूछिए क्या कालेज खुला है? खाली टाइम सोचा श्री राम जी के दर्शन का पुण्य ही उठा आएँ।“ एक दबंग से युवक ने अक्खड़ लहजे में जबाव दिया था।
”यह तो ठीक ही बात है। आजकल स्कूल-कालेजों की बुरी हालत है। इस बारे में मेरा लेख तैयार है, जल्दी ही आप पढ़ेंगे।“
”क्या ......आप पत्रकार है, युवक की तीखी आवाज पर रोहित चौंक गए।
”यह कहाँ की पत्रकार हैं। स्कूल मे टीचर हैं, कहानी-कविता लिखने का का शौक भर है।“ रोहित को मानो किसी खतरे का आभास-सा हुआ था। उनकी बात पर अविश्वास करती, युवक की तीखी दृष्टि मुझ पर गड़ गई थी। उसकी उस दृष्टि से मैं भी असहज-सी हो उठी थी।
”अब आप लोग आराम करें। आपको तो बहुत दूर जाना है। चलें, रोहित?“
उन जैसे अभद्र लड़कों के प्रति मेरा खुशामदी व्यवहार समय की माँग थी। साथ जा रही लड़कियों की चिन्ता से मेरा कंठ सूखा जा रहा था। अगर ये उद्दंड लड़के कुछ करने पर उतारू हो जाएँ तो अकेले रोहित क्या कर सकेंगे?
”हाँ-हाँ.......... आप आराम करें। खाना-वाना खाया है?“
रोहित भी जैसे डर-से गए थे। कुछ घंटों पहले स्टेशन पर उनकी लूटमार का दृश्य रोहित भूले नहीं थे।
केबिन में प्रविष्ट हो, द्वार की साँकल बन्द करते रोहित के मुख पर अभरे आक्रोश ने मुझे डरा दिया था। ट्रेन अपनी मद्धिम रफ्तार से जा रही थी। रात का घना अंधेरा मेरे अन्दर तक उतर आया था। लड़कियाँ ऊपर की बर्थ पर दुबक गई थीं। नीचे की बर्थो पर मैं और रोहित बेहद तनाव में जाग रहे थे। हमारा रोम-रोम मानो कान बन गया था। बाहर से उनके शील-अश्लील वाक्य हमें दहला जाते थे।
”अरे ओ सुरेसवा, जरा हमको भी चुस्की लगवा दे। स्साला अकेला-अकेला ही मजा ले रहा है।“
”अरे काहे मरे जाते हो....... ले तू भी मजा ले ले।“
उनके सम्मिलित अट्टहास से मैं सिहर गई थीं अजीब-सी गंध से जी घबरा उठा था। रोहित धीमे से बुदबुदाए थे-
”गाँजा-चरस पी रहे हैं.............।“
”रोहित, इनकी इस स्थिति के लिए क्या किसी हद तक हम जिम्मेवार नहीं हैं?“
”क्या कह रही हो?“
”अगर इनकी शिक्षा नियमित रूप से चलती, तो इन्हें इन कार्यो के लिए क्या अवकाश मिल पाता?“
”ये तुम नहीं तुम्हारी अध्यापिका बोल रही है।“
”शिक्षा के बाद की बेरोजगारी भी तो इन्हें निरूत्साहित करती है। हमारे प्रति इनका आक्रोश भी तो स्वाभाविक है।“
”इसका मतलब ये तो नहीं कि गुंडागर्दी पर उतर आएँ।“
”इन्हें गुमराह करने वाले भी तो हम में से ही हैं। इन्हें तो राजनीतिज्ञ अपना मोहरा बना लेते हैं, दण्ड यह भुगतते हैं।“
”अपना व्याख्यान उन्हें दिया तो था, क्या नतीजा निकला?“ रोहित नाराज हो उठे थे।
”एक पल की बात से क्या परिवर्तन संभव है, रोहित?“
”तो उनके साथ तुम भी चली जाओ। पूरे समय भाषण पिलाती रहना।“
रोहित का तनाव मैं समझ सकती थी। तनाव में मैं भी थी, पर रोहित का अकेले पुरूष के रूप में बेहद तनावग्रस्त होना स्वाभाविक था। अन्ततः हम सबके लिए वह अकेले ही तो उत्तरदायी थे।
किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकी थी। शीशे से बाहर देखने पर बाहर काफी सन्नाटा पसरा हुआ था। एक प्रौढ़ महिला के साथ आए व्यक्ति हमारे कम्पार्टमेंट का द्वार खटखटा रहे थे। कई बार जोरों की दस्तक पर एक लड़के ने चिल्ला कर कहा था,
”देखते नहीं ये बोगी रिजर्व है!“
”कैसे रिजर्व है? हमारा टिकट इसी बोगी का है। दरवाजा खोलिए।“
”नहीं खोलेंगे, जो करना हो कर लो।“
”देखो बेटा, मैं तुम्हारी माँ जैसी हूँ, खड़ी-खड़ी चली चलूँगी, मुझे आने दो।“ प्रौढ़ लगभग गिड़गिड़ाई थी।
”अरे वाह, ये अपने पिताश्री तो बड़े ग्रेट निकले, यार। हमें पता ही नहीं, हमारी एक और माताश्री यहाँ रहती हैं।“
जी चाहा था बाहर निकल उन्हें धिक्कारूँ, माँ-तुल्य महिला के साथ ऐसा अभद्र व्यवहार! रोहित की स्थिति मुझसे भी बदत्तर थी। कुछ न कर पाने की छ्टपटाहट से वह तिलमिला रहे थे। अगर हम साथ न होते तो उन लड़कों का यह अश्लील व्यवहार स्वीकार कर पाना रोहित के लिए असंभव होता।
महिला के साथ आए पुरूषों में से एक टिकट चैकर को खोजने चला गया था, दूसरा बार-बार द्वार खोले जाने के लिए अनुनय करता रहा। थोड़ी ही देर बाद टी.टी. को ख़ोजने गया व्यक्ति हताश लौट आया था।
”न जाने कहाँ जाकर सो गया है, किसी का कहीं पता ही नहीं है।“
”ट्रेन छूटने ही वाली है, उमेश, माँजी को बगल वाले कम्पार्टमेंट में बिठा दो। आगे देखा जाएगा।“
ट्रेन में आरक्षण होते हुए भी किसी भीड़-भरे कम्पार्टमेंट में उन्हें शरण मिल सकी या नही हम नहीं जान सकें। महीनों पहले से आरक्षण कराने का क्या लाभ?
लड़कियाँ पता नहीं सो पा रही थीं या नहीं, हम सब भावी आशंका से त्रस्त, जागते हुए भी सोने का बहाना किए पड़े थे।
आतंक का दूसरा दौर शुरू हो चुका था। बन्द दरवाजे पर डण्डों की ठकठकाहट गूंज उठी,
”आंटी जी, क्या सो गई? जरा बाहर आइए-बात करें।“
भय से खून जम गया था। उसके बाद तो डण्डों की ठकठकाहट जैसे रूटीन बन गई। जिस तरह थोड़ी-थोड़ी देर में वे जय श्री राम के नारे लगाते थे, उसी तरह थोड़ी-थोड़ी देर में द्वार पर डण्डे ठकठका उस कम्पार्टमेंट में यात्रा करने का दण्ड हमें दे रहे थे। डर और आतंक से हम मौन पड़े किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बस अब द्वार खुला और.............
चुनार पर ट्रेन के रूकते ही कार-सेवकों के ‘जयघोष’ ने चौंका दिया था-
”जय श्री राम। जय बजरंग बली।“
”उतरो-उतरो, सरयू-स्नान करने जाना है। यहीं से गाड़ी बदलनी है।“
कुछ ही देर में सारे सेवक उतर गए थे। मानसिक दुश्चिन्ता से उबरने की राहत कितनी सुखदायी होती है, उस पल जान सके थे। प्रज्ञा ने ऊपर की बर्थ से नीचे झाँक कर देखा था,
”नाऊ रिलैक्स मम्मी! पूरी रात सो नहीं पाई थीं न?“
क्या प्रज्ञा, मेघा, आभा, नेहा कोई भी सो पाई थीं?
अभी हम उस मानसिक यंत्रणा से उबर भी न पाए थे कि हमारे केबिन के द्वार पर जोरों की दस्तक पड़ी थी।
”कौन? ये लेडीज कूपे हैं।“
”दरवाजा खोलिए, टिकट चेक करना है।“
मेरा क्रोध चरम सीमा पर था। फटाक से द्वार खोल मैं लगभग चीख पड़ी थी।
”अब तक कहाँ गायब थे आप? जानते हैं हमने किस तरह से रात गुजारी है!“
”पूरे कम्पार्टमेंट में जब बिना टिकट यात्रियों का राज्य था, तब टिकट चैक करने क्यों नहीं आए? आपकी रिपोर्ट ऊपर तक भेजूंगा। अक्ल ठिकाने आ जाएगी।“ रोहित तैश में हाँफ उठे थे।
”क्षमा कीजिए, हम क्या कर सकते है?“
”क्यों नहीं कर सकते! अगर आप आते तो हम सब आपकी मदद करते, इस तरह गुंडागर्दी को बढ़ावा तो नहीं मिलता।“
”ऐसी बात है तो सुनिए, अभी कुछ दिन पहले एक सज्जन अपनी किशोरी लड़की के साथ यात्रा कर रहे थे। ऐसे ही कुछ असामाजिक तत्वों ने लड़की से छेड़छाड़ शुरू की। पिता ने विरोध करना चाहा तो उन्हें चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था।“
”हे भगवान, उस लड़की का क्या हुआ?“ मैं स्तब्ध हो उठी थी।
”भगवान जाने। और जानती हैं सज़ा किसे दी गई? बेचारा टिकट चेकर निलम्बित कर दिया गया।“
”पर अगर टिकट चेकर अपनी ड्यूटी ठीक से करता तो ऐसे एलीमेंट को कम्पार्टमेंट में घुसने से तो रोका जा सकता था न?“ रोहित का आक्रोश ठीक ही था।
”जिनके साथ अभी यात्रा कर रहे थे, उनसे नीति-व्यवस्था की बात क्या की जा सकती है? क्या कर सके आप?“
रोहित को जैसे तमाचा-सा लगा था। सचमुच क्या कर सके हम? इक्कीसवीं सदी को अग्रसर हमारा देश और देश की भावी पीढ़ी....जनतंत्र का अर्थ क्या यही है? हमें मौन खड़ा छोड़ टिकट- चेकर आगे चला गया था।
दूसरे दिन प्रातः समाचार-पत्रों पर दृष्टि पड़ते हम चौंक गए थे..... हम तो केवल अपने बन्द दरवाजे के तोडे़ जाने के भय से आतंकित थे, उन्होने तो पूरे देश की संस्कृति, मान-सम्मान को आमूल ढहा डाला था.
”कार-सेवकों द्वारा विवादग्रस्त ढाँचा ढहा दिया गया............।“