जरिया / दीपक मशाल
“अंकल मैं उस कॉमिक्स का दो दिन का किराया नहीं दे पाऊंगा।” कॉमिक्स को एक दिन ज्यादा रखने का किराया देने में असमर्थता ज़ाहिर करते हुए बल्लू ने दुकानदार से कहा। लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव ना देख बेचारगी सी दिखाते हुए बोला-
“प्लीज एक ही दिन का किराया ले लीजिये ना अंकल।”
“हम्म। पैसा तो पूरा देना पड़ेगा” सपाट-सा जवाब मिला और फिर थोड़ी देर तक खामोशी
“रहता कहाँ है वैसे तू? किसका लड़का है?” उसे ऊपर से नीचे तक घूरते हुए सवाल हुआ।
जेब में सिर्फ अठन्नी लिए बल्लू को कुछ आशा जगी- “अरे अंकल वो नाले के पास छिद्दन कारीगर को जानते हैं, उन्हीं का बेटा हूँ।”
“ठीक है माफ़ कर देता हूँ। और मेरा काम करेगा तो फ्री में भी पढ़ सकेगा” कुछ सोचने के बाद जवाब आया
“लेकिन कल दोपहर १ बजे आना जब दुकान के आसपास कोई ना हो, सब समझा दूंगा”
खुशी से झूमता बल्लू सर हिला के चला गया लेकिन रास्ते भर सोचता रहा कि कौन-सा काम होगा जिसकी वजह से उसे इतनी ढेर सारी कॉमिक्स फ्री में पढ़ने को मिलेंगीं। खैर जो भी हो करने का निश्चय कर लिया उसने और अगले दिन नियत समय पर दुकान पर पहुँच गया।
“आ गया तू!! किसी ने देखा तो नहीं?”
“नहीं” उसने सिर हिलाकर संक्षिप्त सा उत्तर दिया
“हम्म। चल अन्दर वाले कमरे में”
थोड़ी देर खामोशी छाई रहने के बाद अन्दर वाले कमरे से आवाजें आ रहीं थीं- “छिः अंकल ये गन्दा काम है। मुझे घिन आती है”
“तुझे कॉमिक्स पढ़नी है या मैं किसी और को फ्री पढ़ाऊं?”
कुछ पल की खामोशी के बाद अब बल्लू फ्री में कॉमिक्स पढ़ने के नए ज़रिये के लिए राज़ी हो गया था।