जरूरत है उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने की / गिरीश तिवारी गिर्दा

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जरूरत है उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने की
लेखक:गिरिजालय जोशी

‘उत्तराखण्ड’ का जुबां पर नाम आते ही निगाहें बरबस उस शख्स को ढूंढ़ती हैं जो फक्कड़ इंसान की तरह जिया, जिसने अपने लिए कभी किसी से कुछ नहीं चाहा, अपितु अपनी कोमल वाणी से उत्तराखण्ड को सब कुछ दे डाला-एक बहुमूल्य सौगात, एक अमूल्य धरोहर, उस सौगात में छिपा है-‘उत्तराखण्ड का आइना’ और उस आइने में गौर से दृष्टिपात करें तो बेशुमार अमूल्य उत्तराखण्ड की साहित्यिक निधियाँ देखने को मिल जायेंगी। इन निधियों में गिर्दा की दूरदर्शिता की जहाँ झलक देखने को मिलेगी वहीं समसामयिक उत्तराखण्ड की समस्याओं पर तीखे वाणों की वर्षा देखने को मिलेगी।

‘जल-जंगल-जमीन’ की समस्याओं को गिर्दा ने अपने गीतों के माध्यम से उत्तराखण्ड में पर्यावरण-जागृति में अभिवृद्धि की।

ग्राम ‘ज्योली’, पो. हवालबाग, जनपद-अल्मोड़ा में जन्मे गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ एक अद्भुत व्यक्तित्व के थे। उनका बाल्य जीवन ग्राम ‘ज्योली’ के लोक गायकों के बीच बीता। हाथ में हुड़का लिये उत्तराखण्ड के लोक गीतों को गाकर उन्होंने पारंगत हासिल की। धान रोपने के गीतों से लेकर जागर-होली गीतों में वे बराबर शिरकत करते रहे। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद रोजगार की तलाश में ‘गिर्दा’ लखनऊ चले आये तथा आजीविका की तलाश में हाथ पैर चलाते रहे, अन्ततः निराश होकर देव भूमि को वापस लौट आये। तदुपरान्त भारत सरकार के ‘नाट्य एवं गीत प्रभाग’ नैनीताल में अनुदेशक पद पर नियुक्त हुए।

अपने खाली समय में उनका मन उत्तराखण्ड की पावन संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में लगा रहा। इस हेतु उन्होंने (जब भी उन्हें अवकाश मिलता) देवभूमि के ऐतिहासिक जगहों का दिन-रात भ्रमण किया, राह में जो भी मिला उसे अपनी यात्रा का हिस्सा बनाते चले। उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक स्थानों पर लगने वाले मेलों के महत्व पर लोक गीतों के माध्यम से लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए अपनी इन धरोहरों को संजोये रखने की अपील करते।

उत्तराखण्ड के विकास में बहुमूल्य योगदान देने वाले जन कवियों की पहचान अपने संकलित ग्रन्थ ‘शिखरों के स्वर’ के माध्यम से करायी जिसमें जनमानस को बहुमूल्य संदेश प्रदान करती हुई अनेक सारगर्भित रचनायें संकलित हैं। इतना ही नहीं गिर्दा ने अथक प्रयास के फलतः एक शोधपरक ग्रन्थ ‘हमारी कविता के आंखर’ में अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष अर्पित करते हुए, मन-मस्तिष्क में नवागत शब्दों से एक अनूठे ग्रन्थ की रचना कर डाली जो आज कुमाऊँ विश्वविद्यालय के स्नातक-परास्नातक कक्षाओं के ग्रंथ के रूप में मान्य होते हुए छात्रों के मनन-चिन्तन का अध्ययन विषय है।

‘गिर्दा’ की लेखनी कभी थमी नहीं, सरिता के निर्मल जल की तरह अबाध गति से चलती रही उत्तराखण्डवासियों द्वारा उत्तराखण्ड हेतु अलग राज्य की मांग विगत दो दशकों से बड़ी बुलन्दियों पर थी। राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा इस दिशा में कोई रचनात्मक कदम नहीं उठाये गये बल्कि प्रशासन द्वारा आन्दोलनरत निहत्थे भाई-बहनों पर लाठियाँ भाँजी गयी, हजारों लोग हताहत हुए। इस बीच आन्दोलन ने फिर जोर पकड़ा। जनकवि गिर्दा से न रहा गया, वे भी पूरे परिवार के साथ कूद पड़े। गिर्दा के आन्दोलन में सम्मिलित हो जाने से अनेक बुद्धिजीवी भी साथ हो गये जिससे संघर्ष को बल मिला। अपने जोशीले व्यक्तित्व व प्रखर वाणी से-गीतों से उत्तराखण्ड आन्दोलन की धार को और प्रखर कर दिया। जगह-जगह नुक्कड़ नाटक व गोष्ठियाँ आयोजित करके उत्तराखण्ड आन्दोलन की दिशा में ‘लोकमत’ निर्माण की प्रक्रिया (सच कहें तो गिर्दा ने ही प्रारम्भ की) को तीव्रता प्रदान की। जन-सैलाब उनकी कविताओं-गीतों को सुनकर उमड़ पड़ा और जन-भीड़ जुटती ही गयी।

उत्तराखण्ड आन्दोलन का शंखनाद केन्द्र व राज्य के सदनों में गूँज उठा उत्तराखण्डवासियों की मेहनत रंग लायी, उन्हें मिला उनका ‘उत्तराखण्ड राज्य’।

जनकवि गिर्दा ने अपने आन्दोलन पर विराम नहीं लगाया अपितु वन व भू माफिया द्वारा देवभूमि के सम्पूर्ण पर्यावरण को तहस-नहस करने की नियत को भांप कर अपने गीतों के माध्यम से प्रशासन व लोगों को सचेत किया। उत्तराखण्ड की संस्कृति और ‘जल-जंगल-जमीन’ के पर्यावरण संरक्षण में वे जीवन-पर्यन्त संघर्षरत रहे।

निःसंदेह जनकवि ‘गिर्दा’ के कदम ‘निष्काम कर्म-पथ’ पर सदैव अग्रसर रहे, पीछे मुड़कर देखना उन्होंने सीखा ही नहीं था। गिर्दा ने ही उत्तराखण्ड की लुप्त हुयी संस्कृति को अपनी मधुर वाणी से स्पन्दित किया। उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व की किरणों ने उत्तराखण्डवासियों के अन्तर्मन में अमिट छाप छोड़ी है।

आज ‘गिर्दा’ हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी आत्मा-गीत व लेख अमरत्व को प्राप्त कर चुके हैं, जो उत्तराखण्ड की बहुमूल्य निधि बन चुके हैं जिनसे भविष्य में भावी पीढि़याँ प्रेरणा लेकर उत्तराखण्ड की पावन संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में रत रहेंगे।

उत्तराखण्ड सरकार से हमारी अपील है वे जनकवि गिर्दा के आधे-अधूरे कार्यों को उनके परिजनों के साथ मिल-जुलकर पूरा करेगी शायद उनके लेख-गीत व कवितायें जो अब तक प्रकाश में नहीं आयी हैं, उन्हें भी ग्रन्थों के रूप में प्रकाशित कर जन-भावनाओं को राहत पहुँचायेगी क्योंकि गिर्दा के एक-एक शब्द उत्तराखण्ड के लिये बहुमूल्य रत्न समान हैं और इन रत्नों में छिपी हुयी है – ‘उत्तराखण्ड की लोकवाणी’

नैतीताल समाचार से साभार