जरूरत है जरूरत है कलाविदों की / जयप्रकाश चौकसे

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जरूरत है जरूरत है कलाविदों की
प्रकाशन तिथि : 01 फरवरी 2013


सलमान खान ने सुभाष घई से उनकी फिल्म 'हीरो' का नया संस्करण बनाने के अधिकार खरीद लिए हैं और उसमें संभवत: आदित्य पंचोली के सुपुत्र को जैकी श्रॉफ अभिनीत भूमिका में प्रस्तुत किया जाए। इसी तरह वे अर्जुन कपूर के लिए भी पटकथा खोज रहे हैं। सलमान खान एक निर्माता के रूप में नए कलाकारों और तकनीशियनों को अवसर देना चाहते हैं। वे मराठी भाषा में भी फिल्म की योजना पर अनुभवी महेश मांजरेकर से सलाह-मशविरा कर रहे हैं। उनकी बहन अलवीरा के पति अतुल अग्निहोत्री 'बॉडीगार्ड' के बाद नए कलाकारों को लेकर एक फिल्म की शूटिंग पूरी कर चुके हैं। इसी तरह अरबाज खान भी मध्यम बजट की फिल्म बनाने जा रहे हैं। हाल ही में उन्होंने उमाशंकर सिंह, जो लंबी पत्रकारिता के बाद फिल्म लेखन के क्षेत्र में आए हैं, की एक कहानी पसंद की है। यह फिल्म किन कलाकारों के साथ बनाई जाए, इस पर विचार चल रहा है।

आदित्य चोपड़ा भी स्थापित कलाकारों के साथ-साथ नए कलाकारों को लेकर भी फिल्में बना रहे हैं। अर्जुन कपूर को आदित्य ने 'इशकजादे' में प्रस्तुत किया और अब उन्हें दोहरी भूमिकाओं वाली 'औरंगजेब' में प्रस्तुत करने जा रहे हैं। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म का मुगल बादशाह औरंगजेब से कोई लेना-देना नहीं है। फिल्म में ऋषि कपूर अभिनीत पात्र का पुकारता नाम औरंगजेब है और यह शीघ्र ही विकसित गुडग़ांव में पनपते अपराध जगत की काल्पनिक कहानी है।

महेश भट्ट और मुकेश भट्ट भी आधा दर्जन फिल्मों की योजना बना रहे हैं और नए कलाकारों को प्रस्तुत करने में उन्हें महारत हासिल है। रति अग्निहोत्री अपने पुत्र को 'एक दूजे के लिए' के नए संस्करण में प्रस्तुत करने जा रही हैं। ज्ञातव्य है कि वे स्वयं कमल हासन के साथ इसी फिल्म में प्रस्तुत की गई थीं। 'हीरो' या 'एक दूजे के लिए' के नए संस्करणों के निर्देशकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मूल फिल्मों जैसा मधुर संगीत रचने की होगी। उपरोक्त दोनों फिल्मों की सफलता का अधिकतम श्रेय लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और गीतकार आनंद बक्षी को जाता है। आज इनके समकक्ष कोई प्रतिभा बाजार में उपलब्ध नहीं है। आनंद बक्षी का विकल्प खोजना लगभग असंभव काम है। 'सोलह बरस की बाली उमर को सलाम' जैसा गीत आज कौन लिखेगा? इस टीम के लोप होने के बाद स्वयं सुभाष घई अधूरे हो गए हैं। वे स्वयं अब नए कलाकारों के साथ एक प्रेमकथा बनाने जा रहे हैं। उनकी 'कर्ज' का रीमेक हो चुका है और उन्हें मूल फिल्म से ज्यादा मुनाफा रीमेक अधिकार बेचने से प्राप्त हुआ।

इस बात का एहसास पूरे उद्योग को है कि आधा दर्जन सितारों के दम पर केवल कुछ चुनिंदा लोगों को ही लाभ पहुंचेगा। उद्योग को ऐसे दो दर्जन युवा सितारों की आवश्यकता है, जो दर्शक में उन्माद जगा सकें। फिल्म व्यवसाय इस उन्माद पर ही टिका है। प्राय: एक फिल्म की सफलता के बाद सितारा होते ही व्यक्ति बदल जाता है और उन्माद जगाने योग्य होने के लिए लंबी पारी खेलनी पड़ती है। यह लगातार अनुशासित रहकर कठोर परिश्रम का कार्य है।

दरअसल उद्योग को सितारों से अधिक कल्पनाशील निर्देशकों की आवश्यकता है। आजकल की फिल्में सितारे की इच्छा से उसकी आज्ञानुसार बन रही हैं और निर्देशक पद की गरिमा समाप्त हो चुकी है। आत्मविश्वास से भरे प्रतिभाशाली निर्देशक के हाथ में कोड़ा हो, तब इस मनोरंजन सर्कस के शेर काबू में रहते हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के स्वर्णकाल (१९४७-१९६४) में अनेक ऐसे निर्देशक थे, जिनके सामने सितारे आदरवश सिगरेट नहीं पीते थे। उस दौर के संगीतकारों के घर जाकर गायक-गायिका अनेक दिन तक रिहर्सल करते थे, तब जाकर गीत रिकॉर्ड होता था। उस कठोर तपस्या से उत्पन्न माधुर्य आज भी ताजा है। एक प्रयोग यह किया जा सकता है कि 'एक दूजे के लिए' जैसी फिल्म नए सितारों के साथ शूट हो और मूल फिल्म के गीतों को केवल स्टीरियोफोनिक में पुन: रिकॉर्ड कराया जाए तथा मूल की पाश्र्व आवाजों को जस का तस रखा जाए, जैसा 'मुगल-ए-आजम' का रंगीन संस्करण बनाते समय किया गया।

रंगंच से सिनेमा को अनेक कलाकार मिले हैं- नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, परेश रावल, अनुपम खेर इत्यादि। आज मध्यम शहरों में रंगमंच के क्षेत्र में ज्यादा सक्रियता नहीं है। टेलीविजन ने रंगमंच को बेहद क्षति पहुंचाई है और लोगों को घर में पसरकर टेलीविजन देखने की आदत हो गई है। नाटक देखने के लिए शरीर को हिलाना-डुलाना पड़ता है। सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन आया है। लोकप्रियता आकलन की विधि के दोषपूर्ण होने के कारण टेलीविजन ने कथा को गौण कर दिया है और दोहराने के अपने लटके-झटके विकसित कर लिए हैं। सबसे भयावह यह कि सदियों पुराने अंधविश्वास और कुरीतियों को खूब प्रचारित कर दिया है। टेलीविजन क्षेत्र में नए कलाकार प्रस्तुत हो रहे हैं, परंतु इसने अब तक एक भी प्रतिभाशाली निर्देशक नहीं दिया है। दरअसल सिनेमा से अधिक टेलीविजन फॉर्मूलाग्रस्त है और सबसे अधिक दर्शक उसी के पास हैं।

बहरहाल, मनोरजंन जगत में परिवर्तन का दौर चल रहा है। टेक्नोलॉजी समाज और सिनेमा दोनों में परिवर्तन ला रही है, परंतु सृजन प्रक्रिया किसी प्रयोगशाला में नहीं गढ़ी जाती। लेखन व निर्देशन के क्षेत्र में अनपेक्षित जगहों से प्रतिभा आने की संभावना है।