जर्नलिज्म / नीलम कुलश्रेष्ठ
फोन पर दूर के रिश्ते के देवर की आवाज है, 'भाभीजी! इस बार आपको हमारे शहर आना ही होगा। कब से टाल रही हैं।'
'क्या करूँ, कुछ ना कुछ व्यस्तताएँ चलती ही रहती हैं।'
'आप मेरी बात सुनेगी तो उछल पड़ेंगी, दौड़ती हुई हमारे यहाँ चली आएँगी।'
'ऐसी क्या बात हो गई?'
'आपका मैंने अपनी पार्टी के मिनिस्टर के साथ लंच फिक्स करवा दिया है। एक जर्नलिस्ट को और क्या चाहिए? - कॉन्टेक्टस। यह तो एक सुपर डुपर कॉन्टेक्ट है।'
फोन उसके हाथ से छूटते छूटते बचा, 'भला मैं मिनिस्टर के साथ खाना खाकर क्या करूँगी?'
'हम सब चलेंगे। वे अपने बारे में कुछ प्रकाशित करवाना चाह रहे हैं। बाद में ये संबंध आपके लिए कितना यूजफुल हो सकता है - यू नो - स्काई इज द लिमिट।'
'मुझे आसमान छूने में कोई दिलचस्पी नही है।'उसने जान-बूझकर रिसीवर इतनी जोर से रक्खा कि वे दोबारा ऐसे प्रस्ताव की हिम्मत ना जुटा पाए।
पत्रकारिता के आरंभिक कल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों को तुर्शी से प्रश्न दागते देखकर व खाने की टेबल पर टूटते देखकर उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस से किनारा कर लिया था। इतने वर्षो तक काम करके उसे लगा है कि वह जर्नलिज्म की परिभाषा सीख चुकी है लेकिन अभी कहाँ - कितना भी जानने पर भी हम कहाँ जान पाए हैं - इस अबाध फैले क्षेत्र को?
भारी भरकम आवाज में एक फोन मिलता है, 'मैं सरस्वती एजुकेशन ट्रस्ट का प्रेसिडेंट एम.एल. वर्मा बोल रहा हूँ।'
'जी कहिए?'
'मेरे ट्रस्ट का डेंटल कॉलेज है, होटल मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट है, नर्सेस एंड आया ट्रेनिंग सेंटर है। कंप्यूटर क्लासेस हैं। मैं जर्नलिज्म डिपार्टमेंट खोल लिया है स्टूडेंट्स, फैकल्टी सब तैयार है क्या आप दो तीन घंटे हमारे यहा दे सकेंगी।'
'मुझे सोचना पड़ेगा।'
'आप हमारे यहाँ आइए तब बात करते हैं।
निश्चित किए समय पर वह उस इन्स्टीट्यूट का बड़ा गेट पास करती है। सारी इमारत की सुघड़ता, सुंदर रेशमी पर्दे, बरामदे में सजे चाइना क्ले के बड़े फ्लावर वास उसका मन मोह लेते हैं।
उसके विजिटिंग कार्ड भिजवाते ही उसे अंदर बुलवा लिया जाता है, 'रियली आई एम ग्लेड टु मीट यू।'
वह बहुत सजग रहती है कि इस तबके के लोग जब तक अपना मतलब ना हो तब तक ग्लेड नही होते। वर्मा जी बताते हैं, 'मेरी कंस्ट्रक्शन कंपनी है बट आई वांट तो डू समथिंग फॉर सोसायटी इसलिए मैंने व मिसिज चावला ने ये एजुकेशन ट्रस्ट बनाया था। ये सेल्फ फाइनेंस इन्स्टीट्यूट है। जितना रुपया आता है वो इसी में लगाता चलता हूँ।'
सेल्फ फाइनेंस इन्स्टीट्यूट यानी शिक्षा के केशत्र में कुछ कर गुजरने वाले लोग इन्हें स्थापित करते हैं। भारी भरकम फीस से इनके खर्च पूरे होते हैं। उसका बहुत बड़ा अंश इसके मालिकों की जेब में जाता है।
वह शंकित से पूछती है, 'क्या छात्र जर्नलिज्म पढ़ना चाहेंगे?'
'क्यों नही? देखिए पहले वर्ल्ड में मोनार्की थी।' उन्होंने अपने बाएँ हाथ की उँगली को पकड़कर कहा फिर दूसरी को पकड़ते हुए बोले, 'फिर ये दुनिया इंडस्ट्रियलिस्ट के हाथ में चली गई, अब एजुकेशनिस्ट का समय आ गया है। यानी कि ज्ञान यानी कि बिल गेट। यानी कि आप जैसे लोगों का बोलबाला होने वाला है तो सतयुग आएगा हा...हा...हा...'
'सर! आजकल दूरदर्शन पर मायथोलोजीकल सीरियल्स आ रहे है उन्हें देखकर लगता है कि आज भी उसी युग में जी रहे है। कैसा सतयुग? बेकार ही लोग आज के युग को कलयुग कहते हैं।'
'नो...नो, दिस इज रियली कलयुग। बाकी युगों में तो एक बॉर्डर लाइन होती थी कि ये देवता है, ये दानव लेकिन अधिकतर लोग देवता का मुखौटा लगाए हैं, असल में हैं दानव हा...हा...हा।'
वह उनके तर्क पर चकित है। वो नौकरी की बात करने आई थी, बात दार्शनिक होती जा रही है, वह चुपके से घड़ी देखते हुए पूछती है, 'सर! वो जर्नलिज्म डिपार्टमेंट की बात?'
'हम यहाँ तीन ट्रस्टी थे। उनमें एक मिसिज चावला थी जो कोऑर्डीनेटर का काम करतीं थी। मै अपना कंस्ट्रक्शन का बिजनेस देखा करता था, अब वो ये काम छोड़कर चली गई हैं। अब आप बतौर एक ट्रस्टी हमारे इन्स्टीट्यूट को सँभाल लीजिए।'
'जी?' उसे हँसी आ रही है, ये अहिंदीभाषी प्रदेश है इसलिए वो समझ नहीं पा रहे कि हिंदी के लेखक या पत्रकार कोई हस्ती नही होते। 'सौरी सर! आई एम वेरी कमिटेड टू जर्नलिज्म।
'आपसे छोड़ने की बात नही कर रहा हूँ। आई वांट टु पुट योर जर्नलिज्म दिस एजुकेशन। आपने इतने वर्ष काम किया है, अब आपको अपना हक मिलना चाहिए। जर्नलिस्ट कैन मेक रिलेशंस विद एजर्नलिस्ट आर वेरी गुड पीआरओ`ज।'
वह ऊपर आसमान से नीचे आ गिरती है, किंचित क्रोधित है, 'वोट टु यु मीन? जर्नलिस्ट आर नोट पीआरओ`ज।'
मेरा मतलब है दोनों का काम एक ही है, बस नाम अलग अलग है।'
'गलत, हम लोग लोगों से सूचना निकालने लेने के लिए संपर्क करते हैं न कि उनसे किसी कंपनी का काम निकलवाने के लिए पटाने का।'
'आप तो बुरा मान गईं। मेरा मतलब यह नहीं था। जैसे आपको कोटा, भोपाल जाकर पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संपर्क करना पड़ेगा। आपका जो खर्च होगा उससे दो हजार रुपया आपको अधिक दिया जाएगा।'
'मै वैसे भी शहर से बाहर जाकर काम नही करती।`
'यहाँ के कोऑर्डीनेटर को बाहर जाना ही होता है।'
'मै बस यहाँ की यूनिवर्सिटी में जा सक्ती हूँ।'
'चलिए यही सही। हमारे यहाँ ऑडिट के लिए सरकारी अफसर आते है तो उन्हें ये ऑफिस दिखाना, उन्हें लंच पर ले जाना। वो दस पचास हजार रुपये माँगें तो उन्हें रुपये देना ये तो कर ही सकती हैं।'
उसे लगता है कि वह दोबारा धड़ाम से नीचे गिर गई है। 'आप मुझे क्या समझ रहे हैं? आपको एक जर्नलिस्ट नही एक इंडस्ट्री के लिए लाइजन ऑफिसर चाहिए, आई वांट तू लीव।' वह कहते हुए उठती है, उसकी आँखों में दो चार बार देखी लाइजन ऑफिसर्स महिलाओं की तसवीर उभर आती है। दोपहिए दौड़ाती इस कंपनी से उस कंपनी दौड़ती रहती हैं। उसे आश्चर्य हो रहा है कि उसके उम्र की महिला को कोई लाइजन ऑफिसर बनाने की सोच भी सकता है।
'प्लीज सिट डाउन, आई एम सौरी! नाराज मत होइए, मैं कोई और चीफ कोऑर्डिनेटर तलाश लूँगा, आप जर्नलिज्म सँभालिए, कल आप इसी समय आइए तब डिस्कस करेंगे।'
वह कम उमर की होती तो इतना सुनने के बाद पलट कर ना आती लेकिन समझ चुकी है कि अंगद ने रावण के दरबार में पैर जमाया होगा तो उसे पीछे हटाने का ख्याल भी मन में आया होगा तो उसने मसलकर रख दिया होगा। पत्रकारिता की उलटी सीधी छवि के बीच उसे उजली छवि बनानी है। बनानी क्या है बनाती चली आई है। सप्ताह में तीन दिन तीन घंटों की नौकरी, वह भी मनपसंद क्षेत्र में, फिर भी ये ट्रस्ट छोड़ गई मिसिज चावला से पता लगाना होगा इस एंपायर व वर्माजी के बारे में। वह फोन मिलाती है, 'मै आपके डेंटल क्लीनिक में एक बार आई थी।'
'ओ! यस। पत्रकारों को कोई नही भूलता।'
'जी सरस्वती एजुकेशन ट्रस्ट के वर्मा जी ने मुझे जर्नलिज्म डिपार्टमेंट खोलने का ऑफर दिया है।'
'इट्स योर पर्सनल मेटर, मै क्या सलाह दूँगी?'
'आपने उसे क्यों छोड़ा?
'मैंने एक ट्रस्टी की तरह इन दस वर्षो में अपना सब रुपया, दिमाग, अपनी इनर्जी सब कुछ लगा दिया। जब अच्छी तरह सेट हो गया, पैसा बरसने लगा तो वर्मा जी अपना हक जमाने आ गए। उनकी आवाज गीली हो काँप रही है, घर में रहने वाली उस स्त्री की तरह जो मध्य वयस में इसी तरह बोलती है,
'सौरी मैडम! आई हर्ट यू, क्या मैं जर्नलिज्म डिपार्टमेंट शुरू कर दूँ क्योंकि सीधा सादा हिसाब है मेरा काम उन्हें पसंद नहीं आता तो वो मुझे निकाल सकते हैं या मैं इन्स्टीट्यूट छोड़ सकती हूँ।` इस शहर में मुझे बीस वर्ष से लोग जानते हैं। यदि कोई पत्रकार इतने वर्ष काम करके गाड़ी ना खरीद पाए तो एथिक्स वाला होगा।'
वह धीमे से हँस पड़ी, 'आप खुद ही निर्णय लीजिए।' वह उनके बारे में इतना जानती है कि वे एक अच्छी डेंटिस्ट हैं। बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। प्रारंभ में पिता के छोड़े पैसे से व अपनी टयूशंस से बहिन भाइयों को पढ़ाया व स्वयं पढ़ी। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के प्रोजेक्ट पर विदेश गई। श्री वर्मा अपना दाँत दिखाने उनके क्लीनिक गए - उसके बाद क्या हुआ कहना है। उन्होंने वरिष्ठ पद पर होते हुए नौकरी छोड़ दी व वर्मा जी व इनके मित्र के साथ सरस्वती इन्स्टीट्यूट खोला व उसकी प्रगति में जीजान से जुट गई थी। बचपन की गरीबी ने उन्हें इतना उन्मत बना दिया था कि काम के अलावा उन्हें कुछ नही सूझता था।
अब वर्मा जी के घर व इन्स्टीट्यूट के रास्ते में उनका अपना डेंटल कॉलेज है, जो आते जाते वर्मा जी की आँखों में जरूर चुभता होगा। सामाजिक ढाँचे में इन जैसी चुनिंदा स्त्रियाँ अपना तेज दिमाग, अपना शरीर लेकर उपस्थित हैं। वर्मा जी व इनका रहस्य अभी भी पर्दे में है किसने किसको जख्म दिए - पहेली सुलझानी बाकी है।
श्री वर्मा उसे दूसरे दिन भी बहुत उद्विग्न व असुंतलित लगते हैं। वे बात नौकरी की ना करके भावुक हो रहे है, 'मैं मैडम चावला को डॉक्टर साहब कहता था। इस इन्स्टीट्यूट की नींव हमने इस इमारत में डाली थी। हम दोनों नीचे बैठा करते थे। मैं मानता हूँ कि दस वर्षो में उन्होंने बहुत मेहनत की थी लेकिन बाद में उनमें बहुत ईगो` पैदा हो गया था। झगड़े के बाद उन्होंने जितने रुपये मेरे वकील से माँगे मैंने दे दिए। मुझे लगता है कि फीमेल्स में ईगो बहुत होता है।' उसे हँसी आ जाती है, 'ये इल्जाम तो स्त्रियाँ पुरुषों पर लगाती हैं, खैर आप छोड़िए, आप कहाँ रहे थे कि कुछ स्टूडेंट्स जर्नलिज्म पढ़ने को तैयार हैं। उन्हें मुझसे मिलवा दीजिए।'
'कौन से स्टूडेंटस? उन्हें तो कोऑर्डीनेटर ढूँढ़ता है।' वे साफ झूठ बोल रहे हैं, 'आप अखबारों में विज्ञापन दीजिए फिर छात्र एप्लाई करेंगे।'
तो उसे स्टूडेंट्स व फैकल्टी तैयार है का ब्लफ देकर यहाँ बुलाया गया है। वह विज्ञापन लिखने में लग जाती है। बाद में उसे निर्देश दिए जाते हैं,' आप ऐसा करिए अगले महीने यहाँ के विश्वविद्यालय में जर्नलिज्म के लिए एंट्रेंस टेस्ट होगा। ढाई सौ छात्रों ने फॉर्म भरे हैं, सीट है पचास तो बाकी कहाँ जाएँगे?'
'सर असफल स्टूडेंट्स कौन से हैं पता कैसे लगेगा?'
'वेरी सिंपल! आप विभाग के क्लर्क को चार पाँच सौ पकड़ा कर वो लिस्ट निकलवा लीजिए। उन सबको यहाँ कोर्स आरंभ हो रहा है इसकी जानकारी देते हुए पत्र डाल दीजिए।'
देने दिलाने के नाम पर उसके शरीर में झुरझुरी हो जाती है, 'सर! इस तरह का काम मुझसे नही होगा।'
अब तक वे एक डेढ़ हजार रुपया विज्ञापनों पर खर्च कर चुके है, अपने क्रोध को पीकर उससे कहते हैं, 'अच्छा आप ऐसा करिए सोनल से मिल लीजिए। यू नो शी बिलोंग टु अ रॉयल फेमिली। उसका असली नाम है सोनल देवी चौहान। उसके एटीकेट्स देखने लायक हैं। हमारा जो लोकल टीवी चैनल है उसमें पीआरओ है।'
'मैंने सुना था कि वह तो लीना देसाई का है।'
'उस चैनल के लिए बिल्डिंग हमने दी है, रुपया लीना के पति ने दिया है।'
'में आई कम इन सर!'
वर्मा जी जोर से हँस पड़ते हैं, 'थिंक ऑफ डेवेल - डेवेल इज हीयर। वेलकम सोनल अभी तुम्हारी बात चल रही थी।'
'सर! आपने कैसे मुझे याद किया?' वह उनके सामने बैठते हुए पूछती है।
वे उसका परिचय करवाते हैं, 'इनसे मिलो ये हैं जानी मानी जर्नलिस्ट।'
'हाय!'वह गर्मजोशी से कहती है, 'यू नो मैडम! मैं भी जर्नलिस्ट बनना चाहती थी। आपने बातली वाला कोचिंग क्लास का नाम सुना है? ...नहीं ...यहाँ के सर साठ हजार रुपये में मुझे इजरायल के अखबार में ट्रेनिंग के लिए भेजने वाले थे।' उसका माथा फोड़ लेने को मन करता है। हथियारों से लड़ने वाले। हथियार बेचने वाले इजरायल का कहीं कला या शिक्षा में ऊँचा नाम नहीं सुना। वहाँ ऐसा कौन सा तीसमार अखबार है जो यहाँ नहीं होगा। वह ऊपर से कहती है, 'यहाँ भी तो यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म डिपार्टमेंट है।'
'वो ये बात है मैडम! फॉरेन तो फॉरेन ही होता है। न।'
वह जिस ऐंठ से अकड़कर मुस्कराती है। उसे लगता है वह जिन लोगों के बीच बैठी है उसे भी मुस्कराना चहिए। तभी इस इन्स्टीट्यूट के हर कोर्स के लिए विदेशी मान्यता ली हुई है, उसे विज्ञापित भी खूब किया जाता है। इस संस्थान के अपने सेल्स एग्जीक्यूटिवस भी हैं जैसे कोई धंधा हो।
'तो इस वर्ष जर्नलिज्म डिप्लोमा कर लो। मैं इस वर्ष क्लास आरंभ कर रहा हूँ।'
'अब मूड नही है। मै मार्केटिंग में घुस गई हूँ।'
वर्मा जी कहते हैं, 'मैंने तुमसे बात की थी न, हमें युनीवर्सिटी के जर्नलिज्म डिपार्टमेंट में एंट्रेंस टेस्ट देने वाले छात्रों की लिस्ट चाहिए।'
'सर! वहा सेकंड ईयर का स्टूडेंट मेरी जान पहचान का है। मैं अभी उसे फोन मिलाती हूँ।' वह फोन पर नंबर डायल करने लगती है, 'कौन शिरीष बोल रहे हो?'
सर स्पीकर ऑन कर देते हैं। उधर से शिरीष की आवाज आती है, 'हाँ'।
'मैं सोनल बोल रही हूँ। मेरा एक काम करेगा। मुझे तेरे डिपार्टमेंट की इस बार एंट्रेंस में एपीयर होने वाले छात्रों की लिस्ट चाहिए।'
'वो किससे मिलेगी ?'
'ये लिस्ट क्लर्क के पास होती है। हेड से मैंने बात की थी वे तैयार नही हैं। तू क्लर्क से बात कर।'
'अगर उसने मना कर दिया तो...'
'तो चार पाँच सौ पकड़ा देना। मै तुझे बाद में दे दूँगी।'
'चल हट ये गंदा कम मुझसे नही होगा।'
ओय! अगर नही करेगा तो मार्केट में फेल हो जाएगा, एकदम फ्लॉप जर्नलिस्ट।' वह बड़े नाटकीय स्वर में बोलने लगी, 'जानता है जर्नलिस्ट का क्या काम है? पेपर ऑन द टेबल, मनी अंडर द टेबल ...हाँ...हाँ...हाँ।'
इस बात से खुश होकर वर्मा जी तिरछी आँखों से सोनल को शाबासी देते हैं, उनकी आँखें सोनल के चेहरे से हटकर उसे उलाहना देती है, 'समझो जर्नलिज्म किसे कहते हैं।
'ये सब मुझसे नही होगा।'
'सोच ले मैं बाद में फोन करूँगी।' फिर वह वर्मा जी से कहती है, 'मैं अब निकलती हूँ।'
'ऑफिस जा रही हो?'
'नहीं टीवी प्रोग्राम के एक स्पोंसर से मिलना है।'
वह सोचती है - ऐसे कामों के लिए सच ही रॉयल एटीकेट्स चाहिए। वह चैन की साँस लेती है। अच्छा है सोनल ने जर्नलिज्म नहीं किया नहीं तो एक और जर्नलिस्ट जर्नलिज्म को बाजारू चौराहे पर खड़ा कर देता।'
समाचार पत्रों में विज्ञापन देने के दौरान उसकी दृष्टि विज्ञापन कॉलम पर फिसलती रहती है। कौन कौन से किस किस तरह के विश्वविद्यालय पैदा हो गए हैं डीम्ड यूनिवर्सिटी, दिसटेंट यूनिवर्सिटी, इन्स्टीट्यूट ऑफ करेस्पोंडेंस एजुकेशन। हर शहर में दक्षिण के स्टडी व इन्फॉर्मेशन सेंटर के नामालूम से कोर्स करके बी.ए. यहाँ तक कि एम.सी.ए. या एम.बी.ए. की डिग्री हासिल की जा सकती है।
श्री वर्मा ने एक मीटिंग में ये बात बताई थी, 'बहुत वर्षों पहले ठाकुरों का पूरे उत्तर प्रदेश में दबदबा था। कारण ये था कि उनके परिवार का एक सदस्य घर से घोड़े पर निकाल जाता था। उसका मन जहाँ आता था, वहाँ एक तलवार गाड़ देता था। बस उसके आसपास का इलाका उसकी जागीर बन जाता था। मजाल है कोई उसकी उसकी तलवार को हाथ भी लगा दे। यदि किसी में हिम्मत होती तो उसे हट्टे कट्टे ठाकुर से लड़ना होता था। इसी तरह उस तलवार के इर्द गिर्द गाँव बसता जाता, इसी तरह ठाकुरों की जागीर बढ़ती जाती थी।'
तो वर्मा जैसे तलवार वाली मानसिकता वाले लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में तलवार गाड़ कर जागीर खड़ी कर दी है। - उपजाऊ जमीन सी जो हर वर्ष लहलहाती फसल देती है। जिनके पास पुश्तैनी इमारतें होती हैं, उन्हें और भी सुविधा होती है।
वे कभी अपने अतिथि से से कहते मिलते हैं, 'आई एम एन एजुकेशनिस्ट। मैंने [?] इसे खड़ा करने में दस वर्ष लगाए हैं। यहाँ रोज छह-सात घंटे काम करता हूँ।'
आने वाला उनकी इस समाज सेवा पर मुग्ध हो जाता है, 'बहुत खूब।'
'कभी कभी तो काम करते हुए शाम के सात बज जाते हैं। अच्छा है न! कुछ बच्चों की जिंदगी बन जाए।'
कभी कभी कहते मिलते हैं, 'आई एम अ पक्का बिजनेस मैन, बिना फायदे के एक कदम भी आगे नही बढ़ाता हा...हा...हा...!'
यहा सेवा करने से इस बिजनेसमैन को क्या फायदा हो रहा होगा? महीने भर में समझती चली जाती है। उनके ऑफिस में कंप्यूटर में उनके बिजनेस के आँकड़े भी फीड होते हैं ।उनके सहायक उनके इन्स्टीट्यूट का काम कम, उनकी कंस्ट्रक्शन कंपनी का काम अधिक देखते हैं। किसी भी पुरुष फैकल्टी को कभी भी एक दिन के नोटिस पर उनके व्यवसाय के काम से बाहर जाना होता है। बाई हुक एंड क्रुक वह काम करवाना होता है। हर तीसरे महीने होटल मैंनेजमेंट वालों को एक थीम फूड फेस्टिवल या ईस्ट एंड वेस्ट या ट्राइबल कल्चर या नवरात्रि फेस्टिवल, जिसकी छात्रों को सौ प्रतिशत टिकिट बेचनी पड़ती हैं। दो लाख वाले इस कोर्स के छात्रों को तृतीय वर्ष किसी की इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग में गुजरना होता है। नर्सिंग कोर्स वालों को किसी नर्सिग होम में एक वर्ष मुफ्त काम करना होता है। यह अनुमान लगाया जा सकता है। ट्रस्ट-होटल, ट्रस्ट-नर्सिंग होम के बीच किसका कितना कमीशन है ये जानना मुश्किल है।
वह घर आकर चिड़चिड़ाती है - इतनी भारी फीस लेकर वर्मा जी स्टूडेंट्स को सिर्फ दो ढाई हजार रुपये की नौकरी दिलवा देते हैं।'
उसके पति मुस्करा देते हैं, 'हंड्रेड परसेंट प्लेसमेंट का वायदा पूरा करते हैं। होटल व नर्सिंग होम, को बारह-चौदह-सोलह घंटे जी तोड़ काम करने वाले युवा मिल जाते हैं इसलिए वे वर्मा जी को कमीशन देते हैं।'
'ये लाखों रुपये लेकर शत प्रतिशत प्लेसमेंट है या बंधुआ मजदूर पद्धति?'कहते हुए उसका मन कसैला हो जाता है।
एक दिन कॉरीडोर में सामने से आती शिल्पा दास उसे आमंत्रित करती है, 'हम अगले हफ्ते लौयंस क्लब के साथ डेंटल कैंप लगा रहे हैं। होटल कामा स्पॉन्सर कर रहा है।'
'आपने दो महीने पहले ही तो एक डेंटल कैंप लगाया था।'
'क्या करे वर्मा सर का ऑर्डर है। ऐसे कैंप की जनता भी आदी हो चुकी है कुछ मुफ्त टेस्ट के नाम पर प्राइवेट डॉक्टर्स को अनेक मरीज मिल जाते हैं, वर्माजी को अपना कमीशन।'
उस दिन ही वह इन्स्टीट्यूट की हलचल देखकर चकित रह जाती है। सभी मुस्तैद हैं। जिन फेकल्टीज की कभी सूरत नहीं दिखाई दी थी, वे अलग अलग कक्षाओं में पढ़ा रही हैं, वर्मा जी गंभीर चेहरा लिए एक सरकारी अधिकारी को सारा इन्स्टीट्यूट दिखा रहे हैं।
उन अधिकारी के जाते ही ये नई सूरतें अकाउंटेंट की मेज के इर्द गिर्द जमा हो गई हैं। एक सर उसे समझते हैं, 'ये सरकारी इंस्पेक्शन है जिसके लिए दिखाने के लिए ये फेकल्टीज एक दिन पढ़ाने आ जाती हैं।'
वे एक दिन उससे पूछते हैं, 'आपको एनजीओ`ज के काम में रुचि है। हम वीमन एंपावरमेंट के लिए कुछ करना चाहते हैं।'
'जी ये तो बड़ी अच्छी बात है।'
'कैपीटल में समाज कल्याण मंत्रालय की इंचार्ज एक आईएएस लेडी हैं। उनके पास महिला कल्याण के लिए कुछ प्रोजेक्टस हैं, जिनमें तीन तीन दिन के शिविर लगाने होते हैं। इन्हें छह महीने में पूरा करना होता है। किसी महिला संस्था की सदस्य के साथ आप मिलकर ये काम कर सकती हैं। पेमेंट्स हम करेंगे।'
'सर! आपका इसमे फायदा?'
'इन प्रोजेक्टस का चालीस हजार रुपया सरकार देती है। उसमें से बीस पच्चीस हजार रुपया खर्च होगा बाकी का इन्स्टीट्यूट का हो जाएगा ...हा...हा...हा।'
'वह आईएएस इस बात को मान जाएगी?'
'देखिए ये सरकारी मामला है। उसके ऑफिस में बिना खिलाए-पिलाए ये प्रोजेक्टस पास नही होगा। बिइंग अ जर्नलिस्ट आप उन्हें इंटरव्यू लेने का लालच दे सकती हैं।'
दो तीन दिन बाद वह उदास कैंटीन में मीना से कहती है, 'सर! एक एनजीओ के साथ मुझसे काम करवाना चाह रहे थे।'
'हाँ, उन्होंने वहा मुझे भेजा भी था।'
'लेकिन वे तो मुझसे खिला पिलाकर काम करवाने की बात करते रहते हैं।'
वह चकित है, 'मुझे सर ने आपकी बताई संस्था में कल भेजा था लेकिन लेने देने की बात नहीं की थी।'
शिल्पा दास भी अश्चर्य करती है, 'सर! हमसे भी लेने देने की बात नही करते।'
मीना सोचते हुए कहती है, 'आप जर्नलिस्ट हो ना।'
'उन्हें जर्नलिज्म की परिभाषा भी पता है?'उसे अब ये शब्द गाली सा लगने लगा है। जिनकी पत्नियाँ सुबह से घर से निकल कर सारा दिन पब्लिक डीलिंग करती हैं, शहर से बाहर दो तीन दिन टूर पर जाती है, उनको भी मीडिया की स्त्रियाँ तितली नजर आती हैं।
वर्मा जी रिटायर्ड विशेषज्ञों या अपने कैरियर से असंतुष्ट लोगो को ढूँढ़कर यहाँ सहारा देते हैं। यहाँ हर आने वाले फेकल्टी की इतनी तारीफ की जाती है कि वह यहाँ का हो जाता है। उसे उस जादूगर की याद आती है जो बच्चों को एक एक करके हिप्नोटाइज कर बेहोश कर थैले में डालता जाता है।
मेहुल को पाँच सितारा होटल में एक चोरी के इल्जाम में फँसाकर निकाल दिया गया था। उसे सहारा देने पहुँच गई थी फोन पर वर्मा जी की आवाज जिन्होंने होटल मैनेजमेंट का कोर्स सेट किया था, वे कर्वे साहब बहुत निराश हैं, मै सोच रहा हूँ रिजाइन कर दूँ।'
'क्यो सर! आपने तो इस कोर्स की नींव रक्खी है, फूड फेस्टिवल्स आपके कारण ही सोना बरसा रहे हैं।'
मिसिज चावला के जाने के बाद काम रुक गया था इसलिए वर्माजी को मेरी बहुत जरूरत थी। उन्होंने कहा भी था कि कुछ समय बाद मेरे पैसे बढ़ा देंगे। अहमदाबाद से यहाँ आना इतना आसान नहीं होता।'
सच ही दूसरे दिन उन्होंने आना बंद कर दिया है। उसके जर्नलिज्म विभाग में सिर्फ चार लोगों का बैच बनता है, उसे लगता है कि उसका विदा लेने का समय आ गया है। वे तनाव रहित हैं, यूनिवर्सिटी में भी पहले सिर्फ सात लोगों का बैच बना था। आज वहाँ पचास पढ़ रहे हैं।'
वह सच ही उत्साहित हो गई है। वह इन छात्रों को समाचार पत्र व पत्रिकाओं के पते देती है, उनसे छोटे छोटे लेख लिखने के लिए कहती है।।
वर्मा जी के पास हर उम्र की महिलाओं का तांता लगा रहता है, सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक काम करने वाले वे कहते रहते हैं, 'क्या करे लड़कियों के साथ समय का पता ही नहीं चलता।' इन्स्टीट्यूट मिसिज चावला जी की मेहनत से फला फूला -शिक्षित माहिलाओं का सैलाब उमड़ आया - वो पीछे छूटती चली गई।
उधार रास्ते से गुजरते हुए रास्ते के कोचिंग संस्थानों को देखकर उसका दिल बैठने लगता है। ये शिक्षा की कैसी प्रचंड आँधी है कि विश्वविद्यालय, कॉलेज कम पड़ रहे हैं। अखबार के शीर्षक उसे डराते हैं, 'छह सौ तैयार इंजीनियर्स में से सिर्फ साठ को नौकरी - या मारे मारे घूमते एमबीए। हाथों में लंबे लंबे ग्लब्स पहने, अपने आधे चेहरे को दुप्पट्टे से ढके दोपहिए दौड़ती इन लड़कियों को देखकर लगता है। इन शिक्षा के ठेकेदारों के युग में अपने को कहाँ खड़ा कर पाएँगी?
उसके पड़ोस की लड़की पायल दो कंप्यूटर के कोर्स करके बिना नौकरी के बैठी है। हर तीसरे दिन अखबार लेकर चली आती है मैं मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन में - फैशन टेक्नोलॉजी - फैशन डिजाइनिंग में दाखिला ले लूँ?'
वह उसकी माँ से बात करने पहुँच जाती है, 'पायल नए नए कोर्स के पीछे क्यों पागल रहती है।
'तो क्या करे चौबीस की हो गई है। शादी नही हो पा रही तो कोई कोर्स ही कर ले।'
'इन कोर्स का भारी भरकम फीस भरने से पहले इसकी सेहत तो ठीक करिए। इन कोर्स का क्या ठिकाना, नौकरी लगे या नहीं।'
'बच्चों की वेहीकल के पेट्रोल से पैसा बचे तो इन्हे कुछ खिलाए। विशाल से बड़ी उम्मीद थी कि उसके इंजीनियर बनते ही हमारे दिन फिर जाएँगे - लेकिन बिचारा सारे दिन टाई लगाए तीन हजार रुपये में यहा वहा सेल्स एग्जेक्यूटिव बना मारा मारा फिरता है।
अपनी सूखी टाँगें सिंदबाद के गले में अटकाए ये कैसी विकराल शिक्षा व्यवस्था है जो खाने की खोज में दिनभर भटकते पसीने से लथपथ होते सिंदबाद का सारा श्रम अपने बूढ़े मुख में गपके जा रही है लेकन बहुत से बच्चों के लिए उस डरावने बूढ़े की तरह निरर्थक है।
इस शिक्षा को परिभाषित किया था टी.वी. चैनल की निदेशिका लीना देसाई ने। उन्होंने उसके आमंत्रण पर इन्स्टीट्यूट में अपने भाषण में कहा था, 'आज का मॉडर्न शब्द है 'एद्यूएंट' अर्थात एजुकेशन विद एंटरटेनमेंट। मै अपने चैनल में ऐसे ही कार्यक्रम प्रस्तुत करती हूँ जो कि मनोरंजक भी हों, उनसे शिक्षा मिले। मैं अपने शहर में शिक्षा की क्रांति लाने में सफल हो रही हूँ।'
वह कहीं खो जाती है, वे बिलकुल सही कह रही हैं आज की शिक्षा 'एद्यूएंट' ही है जिसमे दोपहिए वाहन, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट चार चाँद लगाए हुए हैं। कुछ दिनों बाद उससे पूछा जाता है, 'आप सोनल से मिली या नहीं?'
'सर! मिली थी उसने आपके इन्स्टीट्यूट में 'जाएका -ए बहार' कार्यक्रम की शूटिंग की थी, वह चाह रही है कि आप उसके कैसेट्स अपने स्टूडेंट के लिए खरीद ले।'
'अगले महीने सोचेंगे।'
'सर! आपको बुरा नहीं लगा कि आपके बिल्डिंग में चैनल काम कर रहा है और आपसे कैसेट्स के रुपये माँग रहा है।?'
'बुरा क्यों लगेगा? ये दुनिया इसी लेन देन पर टिकी हुई है। आप उनसे संपर्क बनाए रक्खो।'
उन्ही दिनों टी.वी. चैनल की मालकिन के पति के पंद्रह ऑफिसों पर छापा पड़ जाता है। ऐसे ही लोगो ने प्राइवेट शिक्षा की क्रांति का बीड़ा उठा रक्खा है।
कुछ दिनों बाद फिर उसे ऑफिस में बुलाया जाता है, 'इन चार छात्रों की फीस से कैसे वर्ष पूरा होगा? चलिए पहले वर्ष इन्स्टीट्यूट दस पंद्रह हजार खर्च कर देगा लेकिन अगले वर्षो की कुछ सीक्योरियटी तो चाहिए। आप अपने विभाग के लिए फंड राईज करिए, बिइंग अ जर्नलिस्ट आपकी तो बहुत जान पहचान होगी।'
'सर, मेरी जान पहचान तो है लेकिन इतनी नही कि उसे एनकैश करूँ, न ही मैं ऐसा करूँगी।'
उस दिन उसकी क्लास नहीं है। घर पर है वर्मा जी का फोन आता है, 'हलो मैडम! डिस्टर्ब तो नही किया?'
`नोट एट औल। कहिए'
'मैं सोच रहा था कि बढ़िया सी सेमिनार आयोजित करके फंड रेज किया जाए।'
`स्पॉन्सर्स कौन ढूँढ़ेगा?'
'आप और कौन?'
'सर, मैं ये काम नही कर सकती।'
'व्हाई नोट? पत्रकार को तो लोग रुपया जल्दी निकाल कर देते हैं।'
'सर, मैंने और पत्रकारों जैसी दुकान नहीं खोल रखी है। लोग रुपया देंगे तो पब्लिसिटी चाहेंगे। सेमिनार का काम मै सँभाल लूँगी। किसी दूसरी फैकल्टी से कहिए कि वह स्पॉन्सर ढूँढ़े।'
'हमारे यहाँ अपने विभाग का काम उसी कोऑर्डीनेटर को करना होता है।'
'आई एम हेल्पलेस।' वह गुस्से में फोन काट देती है।'
वह जान-बूझकर उनके सामने नहीं जा रही। एक दिन रिपोर्ट देने जाना पड़ता है। वह रिपोर्ट देते हुए कहती है, 'सर! अभी तक मेरी सैलेरी नही मिली है।'
'अरे! ये कैसे हुआ, क्या आपको पैसे की जल्दी ही जरूरत है?'
नो सर! ऐसी जल्दी नहीं है। परसों मैं क्लास लेने आऊँगी तब ले लूँगी।'
उस दिन शनिवार है। वर्मा जी इन्स्टीट्यूट देर से आते हैं। उसे रास्ते में देखकर कहते हैं, `सौरी! आपका चेक घर भूल आया हूँ। मैं जब लंच लेने घर जाऊँगा तब ले आऊँगा। ऐसा करिए आफ्टरनून में ले लीजिए।'
वह उनके चेहरे पर नजरें स्थिर करके कहती है, 'सर! मै नहीं आ सकती। कल सुबह हम बाहर जा रहे हैं। तैयारी भी करनी है।'
वहाँ से चलते चलते अपनी बीस वर्ष की छात्रा के स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित लेख की जेरॉक्स कॉपी नोटिस बोर्ड पर पिनअप कर आती हैं। 'वूमन एंपॉवरमेंट ईयर' बिचारा वह अपना शीर्षक 'स्टेट्स ऑफ वीमन' लिए ऐसे फड़फड़ा रहा है जैसे सदियों से फड़फड़ा रहा था।
दीपावली की छुट्टियों के बाद उसका चैक उनका सहायक देता है।, कैंटीन में एक नवोदित अपनी कविताएँ दिखाता है जो अपना कविता संग्रह प्रकाशित करवाना चाह रहा है।
एक दिन वर्मा जी उसी कवि का बहाना लेकर बात करते हैं, 'दीपंकर अपनी बुक पब्लिश करवाना चाहता है। हम उसे समझा चुके हैं कि चौदह पंद्रह हजार में बुक पब्लिश करवाना हमारे लिए बड़ी बात नही है, फॉरवर्ड भी हम करवा देंगे। पूरे इंडिया में सौ डेढ़ सौ एजुकेशन इन्स्टीट्यूट में बिकवा भी देंगे। फिर भी वह हमसे नहीं कहता।'
वह समझ रही है उसे ये क्यों सुनाया जा रहा है, यहाँ दिन कब तक कटेंगे मालूम नहीं है।
तो प्रिय पाठकों! इस कहानी का अंत जानने की आपको उत्सुकता होगी। इसका अंत वही होता है जो अकसर नारी सशक्तता का झंडा उठाने वालियों का या उसूलों की सलीब उठाने वालों का होता है यानी कि इस व्यवस्था से बाहर पटका हुआ यानि 'बैक टु पैवेलियन' यानी कि घर। यानी कि अंगद लड़की होते तो इस व्यवस्था की सुदृढ़ता से घबराकर स्वतः ही दरबार से पैर हटा लेते।
कहानी की नायिका खुश है - एक और संस्थान को 'जर्नलिज्म' की परिभाषा समझा कर आ गई, वह भी महिला पत्रकार की। वह संस्थान उससे पीछा छुड़ाकर खुश है। पत्रकारिता की ए बी सी डी नहीं आती और चली थी विभाग आरंभ करने।
अरे हाँ, सच ही शिक्षाविदों का जमाना या राज आ गाया है। ऐसी शिक्षा की प्रचंड आँधी इन केंद्रों पर सोना बरसा रही है।
पैसों की भरमार होने पर इन्हीं शिक्षा के ठेकेदारों में से कुछ लोग विधानसभा तक पहुँचेंगे, कुछ केंद्रीय सत्ता में बैठेंगे और प्यारी जनता? सत्ता चाहे सामंतशाही हो, प्रजातंत्र में उद्योगपतियों की हो या शिक्षाविदों की, उसे तो किसी भी सत्ता को अपने श्रम से पोषित करना है। उसे तो पसीना बहाते हुए ऐसे ही घिसटते जीना है।