जवाहरलाल नेहरू / परिचय

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 जवाहरलाल नेहरू की रचनाएँ     

जन्म

नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण परिवार के थे, जो अपनी प्रशासनिक क्षमताओं तथा विद्वत्ता के लिए विख्यात थे और जो 18वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गये थे। इनका जन्म इलाहाबाद में 14 नवम्बर 1889 ई. को हुआ। वे पं. मोतीलाल नेहरू और श्रीमती स्वरूप रानी के एकमात्र पुत्र थे। अपने सभी भाई-बहनों में, जिनमें दो बहनें थीं, जवाहरलाल सबसे बड़े थे। उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।

शिक्षा

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई 14 वर्ष की आयु में नेहरू ने घर पर ही कई अंग्रेज़ अध्यापिकाओं और शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त की। इनमें से सिर्फ़ एक, फ़र्डिनैंड ब्रुक्स का, जो आधे आयरिश और आधे बेल्जियन अध्यात्मज्ञानी थे, उन पर कुछ प्रभाव पड़ा। जवाहरलाल के एक समादृत भारतीय शिक्षक भी थे, जो उन्हें हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते थे। 15 वर्ष की उम्र में 1905 में नेहरू एक अग्रणी अंग्रेज़ी विद्यालय इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल में भेजे गये। हैरो में दाख़िल हुए, जहाँ वह दो वर्ष तक रहे। नेहरू का शिक्षा काल किसी तरह से असाधारण नहीं था। और हैरो से वह केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन करके प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र थे। केंब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और उनके अपने ही शब्दों में परीक्षा उत्तीर्ण करने में उन्हें 'न कीर्ति, न अपकीर्ति' मिली।

परिवार

भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च 1916 में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ, जो दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। उनकी अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म 1917 में हुआ; बाद में वह, विवाहोपरांत नाम 'इंदिरा गांधी', भारत की प्रधानमंत्री बनीं। तथा एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी।

बैरिस्टर के रूप में

1912 ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रूचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। 1912 ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

राजनीतिक प्रशिक्षण

भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए बेताब हो, लेकिन अपने अधिकांश समकालीनों की तरह उसे हासिल करने की ठोस योजनाएं न बना पाया हो।

गाँधी जी से मुलाकात

1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये। गांधी उनसे 20 साल बड़े थे। दोनों में से किसी ने भी आरंभ में एक-दूसरे को बहुत प्रभावित नहीं किया। बहरहाल, 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई। उससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की माँग था। नेहरू जी के शब्दों में:- कुटिलता की नीति अन्त में चलकर फ़ायदेमन्द नहीं होती। हो सकता है कि अस्थायी तौर पर इससे कुछ फ़ायदा हो जाए। अगर हम इस देश की ग़रीबी को दूर करेंगे, तो क़ानूनों से नहीं, शोरगुल मचाके नहीं, शिकायत करके नहीं, बल्कि मेहनत करके। एक-एक आदमी बूढ़ा और छोटा, मर्द , औरत और बच्चा मेहनत करेगा। हमारे सामने आराम नहीं है। समय के साथ-साथ पं. नेहरू की रुचि भारतीय राजनीति में बढ़ती गयी। जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की जाँच में देशबन्धु चितरंजनदास एवं महात्मा गाँधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आन्दोलन में तो महात्मा गाँधी के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आ गये। यह सम्बन्ध समय की गति के साथ-साथ दृढ़तर होता गया और उसकी समाप्ति केवल महात्मा गाँधी जी की मृत्यु से ही हुई।

गाँधी जी के अनुयायी के रूप में

नेहरू की आत्मकथा से भारतीय राजनीति में उनकी गहरी रुचि का पता चलता है। उन्हीं दिनों अपने पिता को लिखे गए पत्रों से भारत की स्वतंत्रता में उन दोनों की समान रुचि दिखाई देती है। लेकिन गांधी से मुलाक़ात होने तक पिता और पुत्र में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए निश्चित योजनाओं का विकास नहीं हुआ था। गांधी ने उन्हें राजनीति में अपना अनुयायी बना लिया। गांधी द्वारा कर्म पर बल दिए जाने के गुण से वह दोनों प्रभावित हुए। महात्मा गांधी का तर्क था कि ग़लती की सिर्फ़ निंदा ही नहीं, बल्कि प्रतिरोध भी किया जाना चाहिए। इससे पहले नेहरू और उनके पिता समकालीन भारतीय राजनीतिज्ञों का तिरस्कार करते थे, जिनका राष्ट्रवाद, कुछ अपवादों को छोड़कर लंबे भाषणों और प्रस्तावों तक सीमित था। गांधी द्वारा ग्रेट ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बिना भय या घृणा के लड़ने पर ज़ोर देने से भी जवाहरलाल बहुत प्रभावित हुए।

जेल यात्रा

कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद आरंभ हुआ। इस काल में राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया; स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गये और कम से कम 1,200 घायल हुए। नेहरू जी के शब्दों में:-

"भारत की सेवा का अर्थ, करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान, और अवसर की विषमता का अन्त करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है-कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आँसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।"

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रांतों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया, तब पहली बार नेहरू जेल गये। अगले 24 वर्ष में उन्हें आठ बार बंदी बनाया गया, जिनमें से अंतिम और सबसे लंबा बंदीकाल, लगभग तीन वर्ष का कारावास जून 1945 में समाप्त हुआ। नेहरू ने कुल मिलाकर नौ वर्ष से ज़्यादा समय जेलों में बिताया। अपने स्वभाव के अनुरूप ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है। इस्माइल इब्राहीम चुन्द्रीगढ़ 1946 ई. में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार के वाणिज्य मंत्री आई. आई. चुन्द्रीगढ़ का जन्म 1857 ई. में हुआ था।

व्यापक क्षेत्रों की यात्रा

कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला। 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो वर्ष के लिए पार्टी के महासचिव बने। उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का अवसर प्रदान किया, विशेषकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का, जहाँ उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्त्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया। यद्यपि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था। 1926-27 में उनकी यूरोप तथा सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया। नेहरू जी ने कहा था:-

अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से, आज का बड़ा सवाल विश्वशान्ति का है। आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें। हम देश को इस बात की स्वतन्त्रता देते रहे कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें। निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए। पंचशील या पाँच सिद्धान्त यही विधा बताते हैं। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारधारा में नेहरू की वास्तविक रुचि इसी यात्रा से पैदा हुई, यद्यपि इससे उनके साम्यवादी सिद्धांतों और व्यवहार के ज्ञान में कोई ख़ास वृद्धि नहीं हुई। बाद में जेल यात्राओं के दौरान उन्हें अधिक गहराई से मार्क्सवाद के अध्ययन का मौक़ा मिला। इसके सिद्धांतों में उनकी रुचि थी, लेकिन इसके कुछ तरीक़ों से विकर्षित होने के कारण वह कार्ल मार्क्स की कृतियों को सारे प्रश्नों का उत्तर देने वाले शास्त्रों के रूप में स्वीकार नहीं कर पाए। फ़िर भी मार्क्सवाद ही उनकी आर्थिक विचारधारा का मानदंड रहा, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार फेरबदल किया गया।

चाचा नेहरू

देशभर में जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन 14 नवंबर बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही कारण था कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था। एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए। बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा, "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूँ।" नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "इसके तीन कारण हैं।

मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ। मैं प्रकृति प्रेमी हूँ, और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चाँद, सितारों से बहुत प्यार करता हूँ। मैं इनके साथ में जीता हूँ, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं। अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं। मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता।" यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े। राधाकृष्णन के शब्दों में 'जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।'

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति

वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मलिक ने बताया कि नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसीलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1923 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए।

पहला चुनाव प्रचार

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है। एक कमेंटेटर के मुताबिक कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केन्द्रित था। चुनाव में नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया। उन्होंने 25,000 मील की दूरी तय की। 18,000 मील हवाई जहाज़ से, 5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से। चुनाव आयोग के लिए राहत की बात ये थी कि निरक्षरता के बावजूद पूरे देश में 60 प्रतिशत वोटिंग हुई। जबकि पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थी।

भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष

साइमन कमीशन के विरुद्ध लखनऊ के प्रदर्शन में उन्होंने भाग लिया। एक अहिंसात्मक सत्याग्रही होने पर भी उन्हें पुलिस की लाठियों की गहरी मार सहनी पड़ी। 1928 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री बने 1929 के लाहौर अधिवेशन के बाद नेहरू देश के बुद्धिजीवियों और युवाओं के नेता के रूप में उभरे। नेहरू जी ने कहा था:- मेरे विचार में, हम भारतवासियों के लिए- एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा। मैं आपको कह सकता हूँ कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है, तो मुझे कितना बुरा लगता है। लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं? यह सोचकर कि उस समय अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे, गांधी ने बुद्धिमानीपूर्वक कुछ वरिष्ठ नेताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। महात्मा का यह आकलन भी सही था कि इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के साथ नेहरू भी मध्यम मार्ग पर क़ायम रहेंगे।

ख्यातिलब्ध लेखक

पंडित नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, ख्यातिलब्ध लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा 1936 ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अन्तिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों और भाषणों के संग्रह हैं। अपने क़ैदी जीवन में जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया', 'ग्लिम्पसेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री' एवं 'मेरी कहानी' नामक ख्यातिप्राप्त पुस्तकों की रचना की।

राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में

1931 में पिता की मृत्यु के बाद जवाहरलाल कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए। यद्यपि 1942 तक गांधी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, पर 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे। मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा। इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आन्दोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया।

प्रांतीय स्वशासन

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति अंततः 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई। आख़िरकार इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे। संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया। नेहरू जी ने कहा था:-

"आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी। कोई भी देश-जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत समय तक नहीं टिक सकता।"

भारत और पाकिस्तान का विभाजन

15 अगस्त 1947 युगवाणी में प्रकाशित पं. नेहरू का वक्तव्य:-

दो वर्ष के भीतर भारत को स्वतन्त्र और विभाजित होना था। वाइसरॉय लॉर्ड वेवेल द्वारा कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग को साथ लाने की अंतिम कोशिश भी नाक़ाम रही। इस बीच लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था। उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को नियुक्त कर दिया। अब प्रश्न भारत की स्वतन्त्रता का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही स्वतंत्र राज्य होगा या एक से अधिक होंगे। जहाँ गाँधी ने विभाजन को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। वहीं नेहरू ने अनिच्छा, लेकिन यथार्थवादिता से मौन सहमति दे दी।"

भारत की स्वतंत्रता दिवस पर प्रकाशित होने वाले उत्तराखण्ड के प्रमुख पत्र युगवाणी में नेहरू जी द्वारा दिनांक 9 अगस्त 1947 को दिल्ली के रामलीला मैदान में दिये गये भाषण का अंश प्रकाशित करते हुये लिखा गया था कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि -

"15 अगस्त दुनिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना का दिन होगा। इस दिन दुनिया से औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का अंत हो जायेगा जिसकी नींव 150 वर्ष पहले ब्रिटेन ने भारत में डाली थी। 5 वर्ष हुये 1942 में कांग्रेस ने ब्रिटेन को भारत छोडने को कहा था आज से 6 दिन बाद हमारा संकल्प फलीभूत होगा..." 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग स्वतंत्र देश बने। नेहरू स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री हो गए।

प्रधानमंत्री के रूप में उपलब्धियाँ

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से 35 वर्षों तक- 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु तक, 1962 में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था। गांधी के विचारों ने उनके जीवनकाल में भारतीय राजनीति को भ्रामक रूप से एक धार्मिक स्वरूप दे दिया था। गांधी धार्मिक रुढ़िवादी प्रतीत होते थे, किन्तु वस्तुतः वह सामाजिक उदारवादी थे, जो हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। गांधी और नेहरू के बीच असली विरोध धर्म के प्रति उनके रवैये के कारण नहीं, बल्कि सभ्यता के प्रति रवैये के कारण था। जहाँ नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे।

देश के इतिहास में एक ऐसा मौक़ा भी आया था, जब महात्मा गांधी को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू में से किसी एक का चयन करना था। लौह पुरुष के सख्त और बागी तेवर के सामने नेहरू का विनम्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण भारी पड़ा और वह न सिर्फ़ इस पद पर चुने गए, बल्कि उन्हें सबसे लंबे समय तक विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की बागडोर संभालने का गौरव हासिल भी हुआ। हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज़ नहीं है, वह बुरी चीज़ है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मजदूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों, और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। जवाहर लाल नेहरू भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में नेहरु का महत्त्व उनके द्वारा आधुनिक जीवन मूल्यों और भारतीय परिस्थतियों के लिए अनुकूलित विचारधाराओं के आयात और प्रसार के कारण है। धर्मनिरपेक्षता और भारत की जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद देश की मौलिक एकता पर ज़ोर देने के अलावा नेहरु भारत को वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी विकास के आधुनिक युग में ले जाने के प्रति भी सचेत थे। साथ ही उन्होंने अपने देशवासियों में निर्धनों तथा अछूतों के प्रति सामाजिक चेतना की ज़रूरत के प्रति जागरुकता पैदा करने और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा करने का भी कार्य किया। उन्हें अपनी एक उपलब्धि पर विशेष गर्व था कि उन्होंने प्राचीन हिन्दू सिविल कोड में सुधार करके अंततः उत्तराधिकार तथा संपत्ति के मामले में विधवाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करवाया।

नेहरूजी के प्रेरक प्रसंग

बात उस समय की है जब जवाहर लाल नेहरू किशोर अवस्था के थे। पिता मोतीलाल नेहरू उन दिनों अंग्रेजों से भारत को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आज़ाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया। जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आज़ादी चाह रहीं है। तोता भी आज़ादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आज़ाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुंह देखते रह गये।

वैज्ञानिक प्रगति के प्रेरणा स्रोत

गांधी जी के विचारों के प्रतिकूल जवाहरलाल नेहरू ने देश में औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। विज्ञान के विकास के लिए 1947 ई. में नेहरू ने 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' की स्थापना की। उन्होंने कई बार 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' के अध्यक्ष पद से भाषण दिया। भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के स्पष्ट प्रतीक हैं। खेलों में नेहरू की व्यक्तिगत रुचि थी। उन्होंने खेलों को मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए आवश्यक बताया। एक देश का दूसरे देश से मधुर सम्बन्ध कायम करने के लिए 1951 ई. में उन्होंने दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित नेहरू ने भारत मे लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। उन्होंने आर्थिक योजना की आवश्यकता पर बल दिया। वे 1938 ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित 'राष्ट्रीय योजना समिति' के अध्यक्ष भी थे। स्वतंत्रता पश्चात वे 'राष्ट्रीय योजना आयोग' के प्रधान बने। नेहरू जी ने साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था।

जवाहरलाल नेहरू ने भारत को तत्कालीन विश्व की दो महान शक्तियों का पिछलग्गू न बनाकर तटस्थता की नीति का पालन किया। नेहरू जी ने निर्गुटता एवं पंचशील जैसे सिद्धान्तों का पालन कर विश्व बन्धुत्व एवं विश्वशांति को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जीवनपर्यन्त संघर्ष किया।

अपनी भारतीयता पर ज़ोर देने वाले नेहरू में वह हिन्दू प्रभामंडल और छवि कभी नहीं उभरी, जो गाँधी के व्यक्तित्व का अंग थी। अपने आधुनिक राजनीतिक और आर्थिक विचारों के कारण वह भारत के युवा बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी के अहिंसक आन्दोलन कि ओर आकर्षित करने में और स्वतन्त्रता के बाद उन्हें अपने आसपास बनाए रखने में सफल रहे। पश्चिम में पले-बढ़े होने और स्वतन्त्रता के पहले यूरोपीय यात्राओं के कारण उनके सोचने का ढंग पश्चिमी साँचे में ढल चुका था। 17 वर्षों तक सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद को दिशा-निर्देशक माना। उनके कार्यकाल में संसद में कांग्रेस पार्टी के ज़बरदस्त बहुमत के कारण वह अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होते रहे। लोकतन्त्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता उनकी घरेलू नीति के चार स्तंभ थे। वह जीवन भर इन चार स्तंभों से सुदृढ़ अपनी इमारत को काफ़ी हद तक बचाए रखने में कामयाब रहे। नेहरू की इकलौती संतान इंदिरा गाँधी 1966 से 1977 तक और फिर 1980 से 1984 तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं।

मृत्यु

चीन के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, जनवरी 1964 में उन्हें और दुर्बल बना देने वाला दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों के बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मृत्यु हो गई।