जश्न / शोभना 'श्याम'
बड़े दिनों से मैं अपनी बालकनी में अपने प्रिय फूल-गुलाब को उगाने की कोशिश कर रही थी।
मैंने बड़े जतन से बढ़िया किस्म के गुलाब की कलमें ला कर सुन्दर से गमलों में लगाईं और पूर्ण भक्ति भाव से उनकी देखभाल की। कटाई, छँटाई, खाद, पानी-सारे नियम बाक़ायदा समय से निभाए। लेकिन फिर भी न जाने क्यों गुलाब को मेरा घर पसंद ही नहीं आया। कभी-कभी अपने परिवार से बग़ावत-सी करती कोई कली उग भी आई, तो खिल कर फूल के अंज़ाम तक नहीं पहुँच पाई। सो इन हठी गुलाब के पौधों में शाख और पत्तों का साथ देने को मात्र काँटे ही रह जाते थे। फूलों की अनुपस्थिति में ये काँटे पत्तों के साथ-साथ मेरी आँखों में भी कुछ ज़्यादा ही चुभते रहे।
इसी बीच मैंने पूजाघर से निकले निर्माल्य के सूखे फूलों को किसी नदी में प्रवाहित कर उसका प्रदूषण बढ़ाने की बजाय, तोड़कर पास रखे एक खाली गमले में बिखेर दिया था। गुलाबों को पानी देते समय बचा हुआ पानी इस गमले में भी डाल दिया करती थी। कुछ दिनों में इस गमले में कुछ नन्हें-नन्हें पौधे सर उठाने लगे। न इन्हें गुलाब की अतिरिक्त देखभाल से कोई ईर्ष्या थी, न अपनी उपेक्षा का कोई रोष।
और आज...इस उपेक्षित गमले में दो गेंदे के फूल उगे हैं और कुछ उगने की तैयारी में हैं।
मेरे मन ने भी गुलाब के फूल का ग़म मनाने की जगह, गेंदे के फूल का जश्न मनाने का निश्चय कर लिया है।