जश्न / हरिओम

Gadya Kosh से
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वे नए साल के शुरूआती दिन थे. सर्दियाँ पलट-पलटकर गाढ़ी हो रही थीं. हिन्दुस्तान का दिल कहे जाने वाले प्रदेश का यह सीमान्त-शहर सूरज की लुका-छिपी और कुहरे की धुंध के बीच ऊनी कपड़ों की मुलायमियत से गर्म और होटलों-दुकानों की सज-धज से जवान लगता था. हवा में खिचड़ी-गुड़, लैया-बताशे और गजक की मीठी खुशबू थी. यह सिनेमा में सनी लियोन, संगीत में यो-यो हनी, सियासत में लोकपाल और मीडिया में तेजपाल का दौर था. योग-धर्म-अध्यात्म बाबाओं और बापुओं के हवाले था. रहा साहित्य और संस्कृति का पता; तो वह अख़बारों, टी.वी. धारावाहिकों और मुम्बइया फ़िल्मों में अब भी मिलता था.

वह आज़ाद हिंदुस्तान के इसी तारीख़ी दौर में अपनी अलग पहचान रखने वाले इस शहर में आबाद था. नए साल के नाम एक जाम उठाकर उसने अपने लिए भी तमाम मन्न्तें मांगी थीं. हालाँकि दाऊ के होते उसे नए साल की रहमत का इंतज़ार व्यर्थ लग रहा था.

साहेब का यह सन्देश उसे दाऊ से आज ही मिला था. बल्देव साहेब की परछाई थे. साहेब उन्हें दाऊ कहते थे इसलिए वे दाऊ हो गए. दाऊ की बात, मतलब साहेब की बात. दाऊ साहेब का मन पढ़ सकते थे और उनका एक इशारा दाऊ के लिए एक मुकम्मल मिशन होता था. फिर उस मिशन पर कैसे आगे बढ़ना है, किस-किसको कहाँ लगाना है, क्या आगा-पीछा सोचना है, सब दाऊ के सिर. साहेब संत थे- बाल-ब्रह्मचारी. एक प्राचीन पीठ के यशस्वी उत्तराधिकारी थे, सो अलग. दाऊ उस पीठ के सबसे पुराने सेवादार, परामर्शी और राज़दार- सबकुछ थे. साहेब ने आधुनिक समय की मांग को देखते हुए पीठ की जात-पांत, ऊंच-नीच और शोषण-विरोधी विरासत को देश-प्रेम और राष्ट्रीय-अस्मिता की रक्षा से जोड़ दिया था. देखते ही देखते साहेब उस पूरे इलाके में राष्ट्रवादी सियासत की धुरी बन गए थे. फिर उस धुरी के चारों ओर जाने कितने धर्मशाले, मंदिर, गौशालाएं, शिक्षा-केन्द्र, लॉज, आश्रम, ट्रस्ट, अस्पताल जैसे प्रतिष्टान और जातीय, सामाजिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक, धार्मिक व व्यावसायिक संघ फैल गए थे. सबके-सब साहेब के मुरीद और उनके निर्विवाद नेतृत्व की डोर से बंधे हुए.

साहेब की आखों में एक सशक्त उत्सवधर्मी राष्ट्र का स्वप्न था. वे मातम, नैराश्य और विलाप को स्त्री-सुलभ दुर्बलतांयें मानते थे. समाज और राष्ट्र की जो संकल्पना उनके मन में थी उसमें इनके लिए कोई जगह नहीं थी. दुःख और निराशा के घोर क्षणों का साहस के साथ सामना करने के लिए वे स्वयं चित्तवृतियों के निरोध की साधना करते थे और अपने अनुयायियों को भी यही सीख देते थे.

खैर, दाऊ ने यह सन्देश उसे तब दिया जब वह ‘बुलेट राजा’ फिल्म का मशहूर गीत ‘तमंचे पे डिस्को’ सुनते हुए उसके सामाजिक, आर्थिक और कामशास्त्रीय निहितार्थ समझने की कोशिश में था. वह साहेब की ‘दलित सम्मान संघर्ष सेना’ का स्थानीय सेनापति था. वह साहेब के सम्मान, दलित-हितों की रक्षा और राष्ट्र के लिए कुछ भी कर सकता था और इस बात का उसे गर्व था. वह अक्सर सोचता- पढ़-लिखकर, बी.ए.-एल.एल.बी. करके उसे क्या मिला- बाबा जी का ठुल्लू! नौकरी के लिये जूते चटकाते, कचहरी में मुक़दमेबाज़ी के पैतरें सीखते, मुवक्किलों और हाकिमों के बीच टूटपूंजिया दलाली करते जवानी हाथ से निकल भागी ससुरी. रही-सही गर्मी बेरोज़गारी भत्ते के जुगाड़ ने निकाल दी. फिर कहीं जाकर दाऊ की नज़र पड़ी थी उस पर. पहले उसे धरम-करम, देवी-देवता, गेरू-जनेऊ से चिढ़ थी लेकिन दाऊ की कृपा ने उसमें आस्था का संचार किया. उसे दाऊ की शागिर्दी में दलित सेना की कमान मिली, दाऊ की ही शह पर बकरमंडी में एक विधवा के पुराने मकान पर अवैध कब्ज़ा मिला. और इन सबसे ऊपर साहेब का आशीर्वाद मिला. एक साथ सबकुछ- पैसा, इज्ज़त और राष्ट्र के लिए जीने का मकसद. ज़िन्दगी में इससे ज्यादा और किसी को चाहिए भी क्या !

उसे याद है जब दाऊ के कहने पर वह पहली बार साहेब की नज़र के सामने पड़ा था. उसके जैसे जाने कितने थे वहां ! पर दाऊ ने साहेब के कान में फुसफुसाकर उसे भीड़ से अलग होने का एहसास कराया था. साहेब ने उसकी ओर नज़र डालते हुए अपना हाथ हवा में उठाया था और आगे बढ़ गए थे. दूर होते हुए भी उसे लगा जैसे वह साहेब के ठीक बगल खड़ा है. साहेब का चेहरा निर्भाव था मगर लगा जैसे उन तनी मांसपेशियों से कोई कृपा उसके लिए बरस रही हो! और फिर यह कृपा सचमुच उसकी ज़िन्दगी को सराबोर कर गई थी. एक-एक कर उसने लक्ष्मी के सभी रूपों के दर्शन किये थे. वह सचमुच साहेब के लिए कुछ भी कर सकता था.

सन्देश कुछ खास नहीं था. उसे सबकुछ ठीक-ठाक समझ में भी नहीं आया था. वह कई सवाल पूछना चाहता था मगर दाऊ ने अपने दायें हाथ की तर्जनी मोड़ उसके मुंह के आगे ऐसे तान दी जैसे उन्होंने तमंचा पकड़ रखा हो. वह चुप हो गया था. दाऊ ने जाते हुए कहा था -- “तुम्हारे कब, कहाँ, कैसे का जवाब बाद में मिल जाएगा. ‘क्यों’ तुम्हारे पास होगा नहीं. और अगर हुआ तो उसे बत्ती बनाकर सही जगह डाल लो, आराम मिल जाएगा.” जाते-जाते दाऊ की मूछें मुस्कराई थीं.

उसे अगले एक हफ़्ते तक शहर के हज़ार बार घूमे गए इलाकों में फिर से घूमना था. नई नज़र से खास मुहल्लों को परखना-छानना था. ख़ास लोगों के घर-मकान-दूकान, उनके काम-धंधों की रिपोर्ट बनानी थी. खास जगहों, गली-कूचों का एक ख़ाका तैयार करना था उसे. वह ऐसे काम पहले भी कर चुका था. सही जगह, सही समय पर उठा-पटक, छीन-झपट, तोड़-फोड़, हो-हल्ला का उसे काफी तजुरबा हो चला था. इनका मकसद भी कमोवेश वह ताड़ लेता था. दाऊ किसी बड़े मकसद से की गई इस क़वायद को ‘रैकी’ कहते थे. दाऊ खीस निपोरते हुए कहते- “रैकी वैसे तो शारीर की बीमारियों का अध्यात्मिक इलाज है लेकिन हम इसे सामाजिक और सियासी बीमारी दूर करने के लिए भी प्रयोग में लाते हैं.” इस बार उसे रैकी तो समझ में आ गई थी लेकिन मकसद पल्ले नहीं पड़ा. “खैर ! उसे क्या, जो भी हो, इसकी माँ की आँख.” कहते हुए वह किसी खिलंदड़े की तरह गुनगुनाने लगा था- “खाली-पीली, खाली-पीली सोचने का नहीं...”

अगली मुलाकात में उसे दाऊ के सामने कुछ विकल्प रखने थे. दिन भर वह सेना के ज़रूरी काम निपटाने के बाद अकेले ही शाम से देर रात तक कबाड़ी बाज़ार, बकरमंडी, लक्कड़पुरा, बड़े इमामबाड़े वाली गली होते हुए राजघाट तिराहे के पीछे नख्खास पुलिस चौकी के सामने से करीम कसाई की दुकान तक ऐसे घूमता था जैसे इन जगहों से वह अपने पिछले जनम का टांका जोड़ रहा हो. हफ़्ता बीतते-बीतते उसने ख़ुद को दाऊ से अगली मुलाक़ात के लिए तैयार कर लिया था.

उधर नए साल के जश्न का ख़ुमार अपने उतार पर था और इधर शहर में मुहर्रम के दिन शुरू हो गए थे. इन दिनों शहर का एक बड़ा हिस्सा रस्मी तौर पर शोक में डूब जाता था. शहर की चुनिन्दा जगहों पर अज़ादारों की मजलिसें शुरू हो गई थीं. मोहल्लेवार मातमी अन्जुमनों में शबेदारी के ज़रिए कर्बला के शहीदों को अक़ीदत पेश की जा रही थी. बड़े इमामबाड़े में शहर भर के सभी ताज़ियादारों की बैठकें हो रही थीं. इस्लामी तारीख़ के पन्नों में दर्ज़ ज़ुल्मों-ज़ास्ती की हुकूमत के ख़िलाफ़ इंसानी हकूक की सबसे बड़ी जंग में शहादत देने वाले सैयद इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों की याद में महफ़िलों में मौलवियों और उलेमाओं के ख़िताब हो रहे थे और इस्लामी मज़हब-ओ-ईमान की पाकीज़गी पर तक़रीरों का सिलसिला चल रहा था. शाम होते ही बड़ी मस्जिदों से माइक पर नौहाख्वानी शुरू हो जाती थी जो देर रात तक चलती थी. जहाँ एक ओर समाज के बड़े-बुज़ुर्ग ताजिया-जुलूसों के रास्तों का जायज़ा लेने मौक़ा-हाकिमों के साथ निकल रहे थे वहीँ दूसरी ओर कुछ हिम्मती नौजवान लाठी-बल्लम, भाले-बरछी के हुनर पेश करने, आग पर नंगे पाँव चलने और सीनाज़नी के ज़रिये कर्बला के शहीदों को याद करने और ख़ुद मज़हबी उसूलों के लिए कुर्बान होने का सन्देश देने के लिए ज़हनी तौर पर तैयार हो रहे थे. समाज के दूसरे तमाम लोग ग़मी और मातम के इस मौसम में भारी मन से रोज़मर्रा के ज़रूरी काम निपटा रहे थे.

हफ़्ता बीतते ही वह दाऊ के ‘साधना केंद्र’ पर था. पीठ के विशाल परिसर में ही एक किनारे स्थित यह ठिकाना दाऊ का ऑफिस था. वह अपने ख़ास लोगों से ख़ास मकसद के लिए, तय समय पर यहीं मिला करते थे. वह दाऊ के सामने पुख्ता तैयारी के साथ खड़ा था. दाऊ ने उसके हाथों में फंसे कागजों को देखते हुए तखत की तरफ ऑंखें घुमाईं-

“तुम बैठ सकते हो. उम्मीद है कुछ काम की बात होगी तुम्हारे पास.”

“जी दाऊ.” वह बेचैन था.

“तो बको.” दाऊ की मूंछें फड़कीं.

“मैंने ये जगहें छाटीं हैं. ये जलूस के रास्ते...ये भीड़-भाड़ वाले ठिकाने...नुक्कड़..गलियां. यह मस्जिद. यहाँ एक पुरानी मज़ार भी है. यहाँ शाम से नौहाख्वानी शुरू हो जाती है.” वह रुक-रुक कर अपनी मेहनत पर दाद के लिए दाऊ की तरफ देखता जाता.

दाऊ का चेहरा कठोर था. मूंछों पर कोई कंपन नहीं. दाऊ सामने फैले कागजों को गौर से देख रहे थे और वह उनका दिमाग़ पढ़ने की कोशिश में था.

“ये सब तो ठीक है पर टारगेट कहाँ है सेनापती जी?” दाऊ ने जांघ खुजाते हुए कहा.

दाऊ उठ खड़े हुए- “खैर तुम बैठो. मैं आता हूँ.” कहकर झर्र से बाहर निकल गए. वह सोचता रहा ‘टारगेट मतलब? धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़, आगजनी कुछ भी हो सकता है. उसे क्या? वह तो हुकुम का ग़ुलाम है. साहेब इशारा तो करें.’ सोचते-सोचते उसकी निगाहें रैकी वाले काग़ज़ों में उलझ गईं.

दाऊ ने आते ही कहा- “तुम बेकार के आदमी हो.”

वह अपनी जगह से खड़ा हो गया था.

“तुम यह काम नहीं कर सकोगे.”

“दाऊ आप ऐसा...?” वह थूक निगल गया. उसे दाऊ की मूंछों की धार पर एक तरेर दिखी.

दाऊ इस बार उसकी रैकी को देख रहे थे- “यह जगह ठीक रहेगी.”

“ठीक दाऊ! मगर...”

“वो अभी भूल जाओ. इस जगह के आस-पास ठेला, खोमचा, गुमटी, ढाबा, रेहड़ी वाले- सबका बही-खता लेकर मुहर्रम की नौवीं को मिलना यहीं गोधूली में. तब तक अपने पिछवाड़े पर झंडू बाम मलो.”

उसे अपना दिमाग एक पल को सुन्न लगा फिर अचानक उसमें तेज़ हलचल उठ खड़ी हुई. इतना तजुरबा होने के बाद भी इस बार उसके पल्ले अब तक कुछ नहीं पड़ा था. मेहनत करते-करते उसका पजामा ज़रूर ढीला हो गया था. खैर वो तो दाऊ के आगे वैसे भी ढीला हो जाता है.

दिन बीते. तय समय पर वह दाऊ के सामने था. नामों की एक लिस्ट, ज़रूरी तफ़सील के साथ उसके हाथ में थी. दाऊ ने उस पर एक नज़र घुमाई और फिर ज़ोर की जम्हाई ली-

“ये जो सातवें नंबर पर है न..”

“??”

दाऊ ने उसकी खोपड़ी की तरफ हाथ उठाकर अपनी तर्जनी ख़ास अंदाज़ में मोड़ी थी और फिर साधना केंद्र में उनका ठहाका गूँज उठा था. वह निचाट चुप था. दाऊ ने उसका कन्धा हिलाते हुए कहा था- “सेनापती जी! फ़िल्मी गानों पर कमर मटकाने और चिकनी पतुरियों के जोबन पर लार टपकाने से क्रांती नहीं होगी. उसमें न असली मौज है, न राष्ट्र का भला. कुछ सॉलिड करिए. बाकी हम सम्हाल लेंगे.”

उसका चेहरा बुझ रहा था पर वह बरबस मुस्कराया था.

“अब जाइए. तैयारी करिए और यह मुहर्रमी नफ़ासत दूसरों के लिए रहने दीजिये.” कहते हुए दाऊ ने उसे बाहर का रास्ता दिखाया. वापस लौटते हुए उसका दिमाग़ सड़कों पर मचे शोर से पट गया था. कमरे पर लौटकर उसने अपना लोहे का संदूक खोला. सेना के एक बैनर में रखे ‘सामान’ को पहले सहलाया फिर उलट-पुलट देर तक देखता रहा. उसकी स्मृति में दाऊ का चेहरा बार-बार कौंध रहा था. फिर उसे साहेब का हवा में उठा हाथ दिखा. उसकी आँखों में एक गर्वीली चमक आकर गुज़र गई और वह आने वाली सुबह का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा.

वह मुहर्रम की दसवीं सुबह थी. सूरज शहर के ऊपर छाई धुंध से देर तक उलझ हार गया था. शहर के तमाम इलाकों से छोटे-बड़े ताजिया जुलूस बड़े इमामबाड़े की ओर निकल पड़े थे. ढोल-ताशे बज रहे थे. लाठी-बल्लम, भाले-बरछी, तेग-तेशे की कलाबाजियां चल रही थीं. मातम करने वालों के झुण्ड ‘या हुसैन, या हुसैन’ के नालों में डूबे हुए थे. सैयद इमाम हुसैन की जांबाज़ सेना का इल्म कराने वाले ‘पाइकों’ की टोली थकान से चूर होने के बावजूद बीच-बीच में नाच उठती थी. उनके कमर में बंधे हुए घुँघरू माइक पर गूँज रहे नौहों को मातमी रंगत दे रहे थे. कहीं नई उम्र के लड़कों का रेला सीनाज़नी में डूबा था. कुछ के हाथों में जंजीरों से बंधी धारदार छुरियां थीं जिसे वे रह-रहकर अपनी पीठ पर मार रहे थे और उनके नंगे बदन बारीक ज़ख्मों से खूंरेज़ थे. कहीं पर्दानशीं औरतों का हुजूम सांस रोके इन करतबों पर आँखों में उदास था तो कहीं बच्चों की चकमक आँखें सड़क किनारे सजी खिलौनों और मिठाइयों की दुकानों से अटकी पड़ी थीं. आज मौक़ा हाकिमों के साथ क़ौमी एकता कमेटी के ओहदेदार शहरी अमनो-अमान के लिए सड़क पर मुस्तैद थे. घर की ऊंची छतों से देखने पर यह पूरा मजमा एक तेज़ रफ़्तार सैलाब-सा जान पड़ता था जो बड़े इमामबाड़े की तरफ़ उमड़ रहा था. तभी अचानक ‘पिट्ट’ की आवाज़ हुई. फिर एक हल्का धमाका हुआ. और फिर देखते ही देखते पूरे इलाक़े में आतिशबाज़ी शुरू हो गई. आवाजों के बेमेल रंग शोर बनकर शहर की फ़िज़ां में छा गए. भीड़ का सैलाब सड़कों और गलियों से मुड़ घरों-दुकानों, गोदाम-कारख़ानों, मज़ार-आस्तानों में घुस रहा था. सायरन बजाती गाड़ियाँ माइक पर ‘अमन-चैन बनाये रखें’ की अपील करती झर्र-झर्र इधर से उधर आ-जा रही थीं.

साहेब शांत मुद्रा में अपने कक्ष में विराजमान थे. दाऊ उनके ठीक सामने थे. शहर के आतिशी शोर की हल्की गूँज वहां भी थी.

“वह कौन था?”

“सायकिल मरम्मत की दूकान थी उसकी... नख्खास चौकी के पीछे. यही.. कोई बीसेक बरस का.”

“और इधर से.”

“सेनापती जी.”

“अब शहर का हाल?”

“हर तरफ़ जश्न साहेब! सुन्दर आतिशबाज़ी.”

साहेब की आँखों में जैसे अनार फूट पड़े हों- “उनकी परंपरा शहादत और मातम की रही है. हमारी शौर्य और उल्लास की. हमें अपनी-अपनी परम्पराओं का पालन करना चाहिए.”

इतिहास के इस नए बोध से दाऊ का पूरा शरीर रोमांचित हो उठा था.

साहेब ने दाऊ को ऐसे देखा जैसे कह रहे हों ‘जाइये. आज जश्न की रात है. मौज कीजिए.’ दाऊ जाने को मुड़े थे.

“कल से एक काम और बढ़ा आपका.” यह साहेब की आवाज़ थी.

“??”

“सेना के लिए नया सेनापति ढूँढने का काम.” साहेब इस बार मुस्कराए और उनका हाथ हवा में उठ गया था.