जहरीली हवा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आँख खुली। किशोर हड़बड़ाकर उठ बैठा। गला सूख रहा था। पानी पीकर थोड़ी राहत मिली। हाशिम गहरी नींद सोया हुआ था। उसे भयंकर सपने पर हैरत हुई। सपने उसे कभी–कभार ही आते हैं पर इस तरह का सपना तो कभी नहीं आता। पूरा शहर पागलपन की आग में धू–धू कर जल रहा है।
सोते समय उसने हाशिम से पूछा था–‘‘इस पागलपन का अंत कैसे होगा?’’
देखो भाई किशोर, पागलपन आदमी की फितरत बन गया है। फितरत कभी खत्म नहीं होती। हम जैसों की मित्रता ही इसका उत्तर है।’’
‘‘प्राण रहते मैं तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होने दूँगा।’’ किशोर ने हाशिम का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।
उसके बाद दोनों सो गए थे।
‘‘मुझे ऐसा सपना क्यों आया? हे प्रभु!’’ किशोर ने दीर्घ उच्छ्वास छोड़ा। हाशिम की नींद उचट गई। किशोर को बैठा देखकर वह उनींदे स्वर में बोला–‘‘क्यों, क्या बात है? नींद नहीं.....आ रही है?’’
‘‘यूँ ही बस।’’
‘‘तुम फिर सोचने लगे?’’ हाशिम ने मीठी झिड़की दी।
किशोर ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। हाशिम करवट बदलकर अबोध शिशु की तरह सो गया।
वह बेखबर सोते अपने जिगरी दोस्त को एकटक देखता रह गया था। भला वह सपने में भी अपने मित्र पर चाकू का वार कैसे कर गया।
रह–रहकर गोली चलने की आवाज़ वातावरण में दहशत भर रही थी।