जहाँ न आपनोॅ कोय / अमरेन्द्र
देखै के तेॅ साल भरी सें जयन्तो ऊ जग्घोॅ केॅ देखै, मजकि वहाँ पर गुमटी बैठाय के साहस ओकरा केन्हौ केॅ नै हुऐ. रोज शाम केॅ चौबटिया पर बनलोॅ शहीद चौरा पर ऊ बैठी जाय आरो वांही सें जग्घोॅ केॅ देखी-देखी मने-मन खुश हुऐ; सोचै--जल्दिये गुमटी बैठाय लेना ठीक होतै, केकरो नजर गड़ेॅ पारेॅ। की पता, कल्हे वहाँ कोय टटिया केॅ घेरी खाड़ोॅ होय जाय आरो परसुवे वैंमें फोॅल-फलारी के दुकान खुली जाय। फेनू तेॅ हेनोॅ सोना रं जग्घोॅ हाथोॅ सें गेले समझोॅ।
सोचतें-सोचतें जयन्तो बेकल हुएॅ लागै, ओकरोॅ सब खुशी पानी रं बहेॅ लागै। फेनू आपना केॅ ढाढसो दै, "धुर, ई निरघिन जग्घा पर के टटिया घेरी केॅ गुमटी बैठाय के बात सोचतै। ई तेॅ हम्मेॅ नी सोचै छियै कि ई सोनोॅ रं जग्घोॅ छेकै, मजकि आरो केॅ यहेॅ रं लागतेॅ होतै की? दीवाल सें सटलोॅ-सटलोॅ है नाली पहिलें तेॅ बिहारी स्कूल के सीमाना तांय जाय केॅ खतम होय छेलै, आबेॅ तेॅ नाली के मँुहे ठो जग्घोॅ-जग्घोॅ संे मुनाय गेलोॅ छै। नालिये पर ईटोॅ-माँटी के पिंडा आरो पिन्डा पर चलै छै मूढ़ी-घुमनी, अंगूर-बेदाना सें लैकेॅ सैलून साथें-साथें पैंट-पतलूून के बेचै के धन्धा। नाली के पानी बहै छै--बीच सड़क होय केॅ--शिवाला के एकदम सामना सें--पिछुवाड़ी होलेॅ नै। ओकरोॅ पिछुआड़ी वाला तेॅ मुँहे मुनाय गेलोॅ छै।"
जयन्तो केरोॅ मोॅन सोचतें-सोचतें एकदम भिन्नाय उठलै, "यहाँकरोॅ आदमियो सिनी धन्न छै। देखै छै कि नाली बन्द होय गेलोॅ छै, तहियो खाड़ोॅ होय केॅ पेशाब करवे करतै, नाली-नाली रहलै; जे मूत बहतै! दीवाली सें ससरी केॅ सड़कोॅ दिश टघरलोॅ जाय छै आरो मूते पर खाड़ोॅ होय केॅ गारलेॅ जाय रहलोॅ छै सब--कोय मानै वाला नै--घिन केकरौ नै।"
"सुनोॅ, ई कोय तरीका छेकै" कि तखनिये जयन्तो खाड़ोॅ होतें बोललै। ओकरोॅ दाँया हाथ ऊ आदमी केॅ रोकतें उठी गेलै, जे आदमी अभी बाँया टांग थोड़ोॅ मोड़ी दीवाली सें लगभग सट्टी केॅ खाड़ोॅ होलोॅ छेलै। जयन्तो के बातोॅ के असर ओकरा पर अगर कुछ होलै तेॅ एतने टा कि वैनें घुरी केॅ ओकरा देखलेॅ छेलै आरो फेनू मुँह सीधा करी केॅ कुछ देर लेली खाड़े रहलै।
जयन्तो केॅ लागलै, जेना वैं जाय केॅ ऊ आदमी केॅ पीछू सें पकड़ी ओकरा वांहीं गोती देतै, आरो आय तक जे गत नै पुरलोॅ होतै, पुराय देतै। अभी ओकरोॅ क्रोध उफाने पर छेलै कि ऊ आदमी ओकरोॅ पास आवी केॅ खाड़ोॅ होय गेलै, तमतमैतें बोललै, "लगै छै, खरीदी केॅ जमीन छोड़ी देलेॅ रहौ। बड़का मना करै लेॅ ऐलोॅ छोॅ। यहाँ बैठी केॅ सबके टांग नाँपै छोॅ, फुटोॅ यहाँ सें।" जयन्तो तेॅ थरथर। ऊ तेॅ खैर कहोॅ कि आत्मरक्षा में जबेॅ वैं हिन्नें-हुन्नें निहारी रहलोॅ छेलै तेॅ ओकरोॅ नजर आपनोॅ पुरानोॅ साथी शिवेन्द्र पर गेलै, वहू कि पुलिस वाला वर्दी में। सुरक्षा वास्तें जयन्तो नें शिवेन्द्र केॅ हाँक देलकै।
बात बनी गेलै। पुलिस केॅ देखत्हैं ऊ आदमी धीरें सें टसकी गेलै।
"की जयन्तो, तोरा यहाँ देखै छियौ। यही शहरोॅ में रहेॅ लागलैं की? हमरोॅ बदली यहेॅ शहरोॅ में होय गेलोॅ छै--इन्सानपुर फाँड़ी में मुंशी छियौ। आबेॅ ई शहर छोड़नौ नै छै। बसोवासी जमीनो-जग्घोॅ देखी लेलेॅ छियै।" शिवेन्द्र नें एक्के साँसोॅ में जेना आगू-पीछू के सब बात बताय देलकै, सब पूछियो लेलेॅ छेलै। मतरकि पूछलौ पर जयन्तो ई नै बतैलकै कि ऊ आदमी के छेलै आरो कौन बातोॅ पर गरम होय रहलोॅ छेलै। ई सब बतावै के रोॅ बदला में वैनें मनोॅ के किंछे सीधे शिवेन्द्र के सामना में राखलेॅ छेलै, दाँया हाथ के इशारा सें जग्घोॅ दिखैतें, "जों यैंठां हमरोॅ एकटा गुमटी बैठी जाय तेॅ सब बेड़ा पार।"
"अरे ई तेॅ तोहें हमरोॅ मनोॅ के बात करी बैठलैं। हम्में चाहवो यही करै छेलियै कि कोय मोॅन लायक आदमी मिलै तेॅ ई जग्घोॅ ओकरै दिलवाय दियै, अभी तक खाली छै तेॅ समझैं हमरा सिनी के परमीशन बिना तेॅ यहाँ कोय दुबड़ियो नै उगेॅ पारेॅ।"
शिवेन्द्र के बाकी बात पर जयन्तो ज़्यादा ध्यान नै देलकै, बस एक्के टा बातोॅ सें ऊ खिली गेलोॅ छेलै 'अरे ई तेॅ तोहें हमरोॅ मनोॅ के बात करी बैठलैं'। ओकरा लागलै, जेना ओकरोॅ सब बंद रास्ता खुली गेलोॅ छै, "केकरोॅ हिम्मत होतै कि गुमटी बैठाय सें मना करतै।" वैंने मने मन सोचलकै आरो घुमी केॅ चारो दिश देखलकै। आस-पास के गुमटी वाला के आँख ओकरे दिश उठलोॅ छै। जयन्तो पल भरी लेॅ एक अजीब ऐंठ सें भरी उठलै। वें सोचलकै, शायत कोय नहियो देखलेॅ रहेॅ, आरो यही सोची केॅ वैनें दाँया हाथ रही-रही उठाय केॅ गुमटी सिनी के तरफ इशारा करलेॅ छेलै। बोलै कुछुवो नै। हेना करी केॅ वैं आपनोॅ पहुँच सब गुमटी वाला केॅ बताय दै लेॅ चाहै छेलै।
जयन्तो केॅ मालूम छेलै कि वैठां नया गुमटी खाड़ोॅ करना कोय सहल काम नै छेकै। सब गुमटीवाला चाहै छै कि ओकरे लोॅर-जोॅर के गुमटी बैठै। शिवेन्द्र के मिली गेला सें पाशा पलटी गेलै।
आनन-फानन में दुसरे दिन रातो-रात जयन्तो के गुमटी वहाँ खाड़ोॅ होय गेलै। खाड़ोॅ तेॅ होय गेलै, मतरकि भर महीना ऊ हुन्नें ताकहौ लेॅ नै गेलै। कारण कि गुमटी बैठला के ठीक दुसरे दिन शिवेन्द्र घोॅर चललोॅ गेलै--खगड़िया। आबेॅ वहाँ जाय तेॅ केना। कोॅन ठिकानोॅ--सब जुटी केॅ कुछ करिये बैठेॅ। भीड़ के की मोॅन-मिजाज। हेन्हौ केॅ आयकल पुलिसोॅ के डरे कत्तेॅ रही गेलोॅ छै--भला लोग भले डरौक। वहू में शिवेन्द्र की एस. पी., डी. एस. पी. छेकै--बस फांड़ी के मुंशिये तेॅ छेकै। होना केॅ ओकरोॅ यार-मित्रों ढाढ़सो देलेॅ छै, मतरकि सब व्यर्थ।
महीना भरी बाद जबेॅ शिवेन्द्र लौटलै तेॅ ओकरोॅ हाजरिये में वैंनें गुमटी के बंद कपाट खोललकै। कपाट तेॅ खुललै, मजकि हफ्ता भरी कोय सामान वैमें नै ऐलै। बस आवै आरो दिन भरी बैठलोॅ-बैठलोॅ मने-मन गुरु के नाम सुमिरन करतें रहै। गुमटी देखी केॅ जों एकाध गाहक हुन्नें टुघरी आवै तेॅ जयन्तो हेनोॅ हड़बड़ाय उठै, जेना कोय विपत्ति के सामना करै लेॅ झटपट आपना केॅ तैयार करतें रहेॅ आकि फेरू गाहक केॅ ई बताय के कोशिश कि आज्हे तेॅ दुकान खोललेॅ छियै, बस दू-एक दिनोॅ में सब व्यवस्थित होय जैतै।
मजकि आस-पास के सब लोगें ई जानै छै कि आय तांय ऊ व्यवस्थित नै हुएॅ पारलोॅ छै।
सोचै के तेॅ जयन्तो यहू सोचलेॅ छेलै कि ई गुमटी, खाली पाने वास्ते नै होतै, अखबार-पत्रिका, चॉकलेट, बिस्कुटो के व्यवस्था होतै आरो गुुमटी के एक कोना में, चाय के व्यवस्था वैं करी देतै, तेॅ पान के दुकान एकदम चली निकलतै। चाय पीला के बाद पान के तलब होवे करै छै। आसपास चाय के कोनो दुकानो तेॅ नै छै। फेनू कोय चाय पीयै लेॅ आवौ, नै आवौ, ओकरोॅ पहचान के दस यार-मित्र तेॅ संझकी ऐवे करै छै--दसो-बीस कप बिकी जाय छै तेॅ काफी छै।
यही सोची वैनें आठ-दस ई ंटोॅ जोड़ी केॅ खाड़ो करलकै कि तखनिये एक आदमी आवी केॅ पूछलेॅ छेलै, "है की बनाय छौ?"
जयन्तो केॅ लागलै जेना वैं ओकरोॅ पलान बुझी गेलोॅ छै आरो आबेॅ खा-म-खा बितंडा खाड़ोॅ करतै। दस आदमी केॅ जुटैतै आरो ई चुल्होॅ-चाल्होॅ तेॅ छोड़ी देॅ, गुमटियो-उमटियो नै उखाड़ी केॅ फेंकी देॅ। से घबड़ैतें होलेॅ दोनों हाथ केॅ पंजा केॅ इनकार में हिलैतेॅ हुएॅ जयन्तो कहेॅ लागलै, "नै नै। है नै समझियोॅ कि चूल्हा बनाय रहलोॅ छियै, चाय-वाय के बिक्री लेॅ।" आरो कहतें-कहतें ऊ गुमटी सें उछली केॅ नीचें उतरी ऐलोॅ छेलै--आपनोॅ धोती रोॅ ढेका ठीक सें संभालतें।
"खैर तबेॅ तेॅ कोय बात नै छै, हम्में तेॅ वही बुझलियै।" कही केॅ ऊ आदमीं चूना माँगलकै।
जयन्तो केॅ मालूम छै कि वैं सामने में जे चूना-कत्था के बाटी सिनी सजाय केॅ राखलेॅ छै, वैमें नै तेॅ कत्था छै, नै तेॅ चूना। जबेॅ पाने नै छै, तेॅ चूना-कत्था कथी लेॅ। शायत ऊ आदमी खैनी के पुड़िये लटकलोॅ देखी केॅ सोचलकै कि चूनाहो ज़रूरे होतै। मतरकि है सुनी कि चूना नै छै, कहलकै, "तेॅ बेचै छोॅ की--आपनोॅ भदरोइयाँ?"
जयन्तो के मोॅन होलै कि कही दै, "हों, वही तेॅ बेचैलेॅ गुमटी खोललै छियै, मजकि तोरासिनी वहू बेचैलेॅ दौ, तबेॅ नी।"
ओकरोॅ वहाँ सें निकलला पर जयन्तोें कनखियाय केॅ ओकरा पीछू सें देखलेॅ छेलै--आखिर जाय छै कहाँ? आरो ई देखी, ऊ बड़ी चिन्ता में डूबी गेलै कि हौ आदमी सामनाहै के एक दुकानी पर जाय रुकलै। चूना लेलेॅ छेलै आरो नजर घुमाय केॅ ओकरे दिश एक दाफी देखलकै। आखिर कैहनें देखलकै? देखै के की मतलब हुएॅ पारेॅ? ई बातोॅ केॅ लै केॅ ऊ कै एक दिन तांय परेशान रहलै।
पहिलोॅ दू-एक दिन तेॅ ओकरोॅ मोॅन एकदम्मे बेचैन रहलै, फेरू ई सोची केन्हौं केॅ मोॅन इस्थिर करलकै कि जों हेनोॅ कुछ बात होतियै, तेॅ होय गेलोॅ होतियै। ऊ तेॅ बेकारे नहियो बातोॅ में हों बात लै केॅ बैठी जाय छै। ई बात जयन्तो मनोॅ में खूब गांथी केॅ बैठाय लै लेॅ चाहलेॅ छेलै, मतरकि कोय नै कोय मौका पर, घूरी केॅ ताकै वाला बात, उखड़िये आवै। तखनी ऊ भोलेबाबा के गीत मूड़ी हिलाय-हिलाय केॅ मनेमन गावेॅ लागै--सब बातोॅ केॅ भूली जाय लेॅ...कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ। तखनी जयन्तो के आँख सिर्फ़ शिवाला दिस हुऐ. भजन गैतें-गैतें ऊ अपने-आप बुदबुदावेॅ लागै, "सब सोचै छै, गुमटी बैठाय लेलियै तेॅ जेना भरलोॅ दुकान बैठाय लेलियै। अरे, गुमटी चलाय में अभियो हजार-दू हजार के ज़रूरत छै, आरो ई पूंजी ऐतै तबेॅ नी। कत्था, सुपाड़ी, पाँच किसिम के जर्दा, खाली पानोॅ के पत्है लानी देला सें की होतै... देखोॅ ऊ आदमी केॅ--बोललै," तेॅ बेचै छोॅ की? आपनोॅ भदरोइयाँ? "ऊ तेॅ खैर पोॅर आदमी छेलै...बीचोॅ-बीचोॅ में शिवेन्द्रें है-रं जे बोली जाय छै कि" तोरा सें गुमटी चलाना मुश्किल छौ जयन्तो। यही तोरोॅ जग्घा पर कोय आरो होतियै तेॅ बीस कमैतियै आरो पाँच दुसर्हौ में लुटैतियै। " आबेॅ बताबोॅ, शिवेन्द्र केॅ ई बोलना चाहियोॅ। ऊ थाना के मुंशी छेकै, ओकरा हजारो अलगी ऐतें होतै, हम्में केना तुरत हजार लै आनियै। एकाध केॅ कहलेॅ छियै, देतै तेॅ गुमटियो चलतै, आरो देवे करतै--देर-सबेर।
ई सोचतैं जयन्तोॅ के चेहरा पर एक सन्तोष के भाव जागी गेलै आरो फेनू शिवाला दिश मूँ फेरी गावेॅ लागलै--कखन हरब दुख मोर हे भोला नाथ।
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अइयो शिवेन्द्र जयन्तो के दुकानी दिश संे गुजरलै, चार दिन पहिलो गुजरलोॅ छेलै, आरो पहिलके नाँखी ओकरा एक नजर देखतें साइकिल सें गुजरी गेलै, टोकलकै नै। आरो तखनिये सें ऊ यही बात लै केॅ परेशान छै, आखिर वें टोकलकै कैन्हें नी? ओकरोॅ मनोॅ में अन्धड़ चलेॅ लागै छै। हम्में फिजूल बात सोची रहलोॅ छियै, शिवेन्द्र केॅ कुछ गुस्सौ छै, तेॅ कथी लेॅ, हमरे हित लेॅ नी। बुरे की कहलेॅ छेलै, जे हम्में बुरा मानी लेलियै।
जयन्तो केॅ आपनोॅ ई स्वभावोॅ पर लज्जो आवै छै, गुस्सौ। आखिर बाते की होलोॅ छेलै।
कि हठाते ओकरा आपनोॅ ई सोभावोॅ पर हँसी आवी गेलै। एकदम जनानी नाँखी ओकरोॅ सोभाव छै--जनानियो सें गेलोॅ गुजरलोॅ। जनानी तेॅ तभियो मौका ऐला पर तनी केॅ खाड़ोॅ होय जाय छै। आरो हमरोॅ तेॅ ई हाल छै कि टूल बनाय लेॅ जोॅन बढ़ैय केॅ सौ रूपा देलेॅ छेलियै, वहूँ तीन महीना नचवैतें रहलै--आय लियोॅ, कल लियोॅ, भोरे देवाैं, संझकी देवाैं; दुपहरियाँ बनैवौं ...बाप रे बाप, हेनोॅ आदमियो होय छै। वही आदमी गुमटी बनाय के जे पचास टाका हमरा कन बाँकी रही गेलोॅ छेलै, तेॅ छाती पर खाड़ोॅ होय केॅ दोसरे दिन दुहवाय लेलकै। बेटा साथें ऐलै, तखनी ओकरोॅ बोली छेलै, "पैसा नै दौ तेॅ एकरा दोकानिये में बंद करी केॅ आग लगाय दैं, दुकान समेते जरी केॅ खाक होय जैतै। पैसा नै देतै..."
आरो वही आदमी हमरोॅ सौ रूपा लेली हमरा केन्होॅ नाँच नचवाय देलकोॅ। बाप रे बाप। तबेॅ दोष हमरे छै--जों एकबार ओकरे हेनोॅ तनी केॅ ठड़ा होय जैतियै तेॅ की मजाल छेलै कि टाका नै देतियै। मतरकि हम्में तनै केना पारतियै। तनेॅ तेॅ हम्में आपनोॅ जनानियो के सामना नै पारै छियै" ई बातोॅ पर जयन्तो अपनेआप ठठाय केॅ हाँसी पड़लै। जोॅर-जनानी सें हार के बाते सें जयन्तो केॅ एक विचित्र गुदगुदी हुएॅ लागै छै। इखनियो वहा भेलै। ओकरोॅ दोनों तरत्थी जोर सें मिलतें थपड़ीवाला आवाज करलकै, आरो खिलखिलाहटे में ओकरोॅ मूड़ी ऊपर दिश उठी गेलै।
"की बात छै जयन्तो जी, बड़ी ठिठियाय रहलोॅ छोॅ।" कोय छवारिकें गुमटी के ठीक सामन्हैं बिजलीवाला खम्भा सें धौनोॅ टिकैतें कहलकै, "अहो, आपनो ठिठियाय छोॅ आरो संझकी दस ठो केॅ घंघेटी केॅ दतनिपोड़ी करवाय छौ। सुनोॅ, जों दुकानी पर फलतुआ सिनी के अड्डा लगवैलौ, तेॅ सोची लेॅ। हमरा सिनी के बैठकी खराब करी देलेॅ छौ। आयके सांझी सें जों यहाँ कोय अड्डी मारै लेॅ ऐलौं तेॅ बुझियोॅ।"
जे रं ई छवारिक कही केॅ चली देलकै, होन्है भला जयन्तो केना मुँह खोली केॅ कहेॅ पारतै, एत्तेॅ-एत्तेॅ यार-मित्रोॅ केॅ। नै ई केन्हौ केॅ नै हुएॅ पारतै। वैंने गुमटी टैम सें पहिले बढ़ैलकै आरो सीधे फाँड़ी दिश चली देलकै। फाँड़ी सें दस कदम हिन्नहै होतै कि वैनें वहेॅ छवारिक केॅ ऐतेॅ देखलकै, मतरकि दोनों अनजाने आपनोॅ रास्ता पर चलतें रहलै--तेॅ की यहू फाँड़िये गेलोॅ छेलै, गेलोॅ छेलै तेॅ कथी लेॅ? कहीं हमरोॅ शिकायते तेॅ नै करै लेॅ ऐलोॅ छेलै? सोचत्है एक बार विचलित होय उठलै जयन्तो, मतरकि ई सोची कि आखिर मुंशीजी तेॅ हमरे साथी छेकै, हम्में तेॅ बेकारे कोय बातोॅ केॅ हद तांय सोची डरेॅ लागलौं।
फाँड़ी पहुँची केॅ ऊ देर रात तांय फाड़िये दरवाजा पर खाड़े रहलै... आखिर शिवेन्द्र निकली कैन्हें नी रहलोॅ छै? कत्तो व्यस्त रहतै तेॅ की खिड़कियो सें नै बाहर झांकतै? काँही हेनोॅ तेॅ नै कि हमरा देखिये केॅ हेनोॅ करी रहलोॅ छै? जों कुछु बात छै तेॅ हमरा ऑफिसे जाय केॅ मिली लेना चाहियोॅ... ई बात सोचै के तेॅ सोची लेलकै, मतरकि जयन्तो के एक्को डेग फाँड़ी के भीतर दिश नै उठेॅ पारलै। वैं मनेमन सोचलकै--ऊ आयतक थाना-फाँड़ी नै गेलोॅ छै, कौनें की समझी लेॅ, कोय कुछ पूछिये देॅ... नै-नै, वैं बाहरे में शिवेन्द्र के इन्तजार करतै। आखिर कखनियो तेॅ शिवेन्द्र बाहर निकलतै। निकललै पर सब बात बतैवै कि केना केॅ आय एक छौड़ा ओकरा धमकाय गेलोॅ छै।
आरो काम निपटाय केॅ शिवेन्द्र जबेॅ बाहर निकललै तेॅ जयन्तो ओकरोॅ लुग स्प्रिंगवाला खिलौना नाँखी उछली केॅ आवी गेलै। आपनोॅ संकट बतैतें जल्दी कुछ करै लेॅ कहैलकै। सब बात सुनी केॅ पहिलें तेॅ शिवेन्द्रें बेरुख भावोॅ सें यहेॅ कहलकै, "गुमटी के जग्घोॅ केकरो जरमियाना करैलोॅ आकि खरीदलोॅ थोड़े होय छै, जे जोगेॅ ओकरे। सब जानै छै--जोरू-जमीन जोर के. होना केॅ हम्में जाय केॅ समझाय ऐवै" , आरो फेनू हठाते रुख बदलतें कहलकै, "जयन्तो, तोरा गुमटी यै लेली नै दिलवैलेॅ छेलियौ कि दस ठो आवारा किसिम के आदमी केॅ जुटाय केॅ तमाशा लगवावें। दुकान छेकै धन्धा वास्तें, नौटंकी लगावै वास्तें नै। दस रोज बाद मिलिएं।" आरो एतना कही मुंशीजी फाँड़ी के बैरक दिश चली देलकै।
जयन्तो लौटी ऐलै आरो देर तांय सोचतें रहलै--आबेॅ भला आपनोॅ मुँहोॅ सें केना कहतै यार-मित्रोॅ केॅ--तोरा सिनी सांझकी यहाँ बैठकी नै करोॅ। मतरकि जे रं ऊ छवारिक आरो आय शिवेन्द्र कही गेलै, ओकरा सें तेॅ चुप रहवो मुश्किल। तेॅ करौं की? ... हों, एक बात हुऐ पारेॅ कि हम्में घोॅर चल्लोॅ जांव। की होतै--आठ-दस रोज गुमटी बन्दे रहतै। शिवेन्द्रो तेॅ दस दिनोॅ के बादे बुलैलेेॅ छै। फेनू जबेॅ हिनकासिनी समझी लेतै कि आबेॅ दुकान नै खुलतै, तेॅ आपन्है रास्ता बदली लेतै। होन्हौ केॅ हमरोॅ गुमटी खुलवे कै दिन करै छै...आबेॅ आठ-दस रोज बन्दे रहतै तेॅ की? "
ई नया विचार सें जयन्तो एक तरह सें निश्ंिचते होय गेलै, फेनू मने-मन सोचलकै, " यहू रिटायर्ड दोस्त सिनी कौन मारे हमरा निहाल करै छोॅत। गाहक वास्तें एक बेंची बिछाय छी, तेॅ वै पर मधुमक्खी के झुंड नाँखि जमलोॅ रहै छोॅत। जैतात तेॅ दुकान बन्द करला के बादे। बंेची पर जग्घोॅ नै मिलतै, तेॅ डिब्बा-डुब्बी हटाय केॅ दुकानिये के भीतर महाजन नाँखि बैठलोॅ रहतात, जेना हम्में सब्भे के करजा खैलेॅ रहियौं। आरो नै तेॅ तीन-चार ठो दुकानिये के आगू खाड़ोॅ। जों एकाध ठो गाहक बीड़ी-सिगरेट लेॅ आवै छै तेॅ भीड़ देखत्हैं टसकी जाय छै। शैलेन्द्रें हमरे हित लेॅ तेॅ कहलकै, ठिक्के कहलकै। सब दोख हमरे छेकै। अच्छे होतै, दस रोज दुकाने बंद करी केॅ घोॅर चली दौं।
आरो करलकै वही। एक दिन जयन्तो ठीक दुपहरिये ऐलै, गुमटी खोली केॅ कुछ छोटोॅ-मोटोॅ सामान आपनोॅ झोली में घुसलकै; फेनू गुमटी पर ताला चढ़ाय देलकै, आरो बिना हिन्नें-हुन्नें देखल्हैं बस स्टैण्ड दिश मलकलोॅ-मलकलोॅ बढ़ी गेलै।
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दस दिन बादे आय जयन्तो शहर लौटलोॅ छै। गोधुली बेरा गिर्हैवाला छै--गाड़ीवालां आय देर करी देलकै। हेनोॅ कभियो नै होय छेलै, खैर कुछ नै होतै तेॅ नै, धूप-ऊप दिखाय केॅ गुमटी बढ़ाय देवै--यहेॅ सोची जयन्तो लम्बा-लम्बा डेग मारतें गुमटी तांय ऐलै, पर गुमटी तक ऐत्हैं ऊ तेॅ पत्थल के मुरूत बनी गेलै। बिना लाठीवाला पत्थल के गाँधी। एक दाफी तेॅ ओकरा विश्वासे नै होलै कि वैं जे कुछ देखी रहलोॅ छै, ऊ सहिये छेकै। वैनें आपना पर काबू पैतें दू-तीन दाफी मूड़ी झोललकै आरो फेनू आपनोॅ गुमटी केॅ गौर सें देखलकै।
झूठ नै छेलै, वैं जे कुछ देखलकै, एकदम सही छेलै। गुमटी पर जे जग्घा पर वैष्णवी ताम्बूल भंडार के तख्ती छेलै, वहीं पर नया तख्ती टंगलोॅ छेलै--'शुद्ध देशी शराब की दुकान'। गुमटी बाँस के टटिया सें घेराय गेलोॅ छेलै, जेकरा में मूड़ी घुसै मान खोल बनलोॅ छेलै। गुमटी के भीतर अस्सी मनोॅ के एक आदमी बैठलोॅ।
जयन्तो मने-मन याद करलकै--एत्तेॅ दिन ऊ यहाँ पर रहलै--कभियो तेॅ ई आदमी के शक्ल वैं नै देखलकै। कारोॅ चमड़ी पर कारो बाल, कारोॅ घन्नोॅ मूँछ आरो दाढ़ी एक होय रहलोॅ छेलै। आँख के घुरतें डिम्मी सें जयन्तो बुझलकै कि ऊ आदमी ओकरै देखी रहलोॅ छै।
जयन्तो केॅ जना थरथरी लागी गेलै। ओकरा बुझैलै, जेना ऊ आदमी अभी तुरत टटिया के बाहर होतै आरो ओकरोॅ कालर पकड़ी केॅ कहतै, "चोट्टा, जबेॅ माल लेना नै छौ, तेॅ हेना केॅ घूरै की छैं रे। माल टपाय के रास्ता खोजी रहलोॅ छैं की? भागले कि अभी..."
आरो जयन्तो हड़बड़ाय केॅ पाँच कदम पीछू हटी गेलै, शहीदवाला चबूतरा के पीछू, जहाँ सें ओकरा पर ऊ मूछियल के नजर नै पड़ेॅ सकेॅ। कैन्हें जयन्तो केॅ आभियो लागी रहलोॅ छेलै कि ऊ आदमी छलांग मारी केॅ ऐतै आरो...
जयन्तोॅ के पेटोॅ में बेचैनीवाला दर्द उठेॅ लागलै। दर्द कम करै के कोशिशे में वैनें आहिस्ता सें आपनोॅ आँख बंद करी लेलकै। आँख बन्द करत्हैं ओकरा लागलै कि दरद कम हुएॅ लागलोॅ छै। आरो नै जानौं, कखनी ओकरोॅ आँख लगी गेलै।
जखनी ओकरोॅ आँख खुललै तेॅ कानोॅ में शिवेन्द्र के आवाज सुनाय पड़लै, "कै दाफी तोरा कही चुकलौं कि तोरा डरन्हे नै छै। पहिलें ऊ मिलौक तेॅ। वैं तेॅ हमरोॅ कैय्यो महीना के कमाय पर चूना लगैनेें छै। जग्घा पर गुमटी दिलवैलेॅ छेलियै कि...पहिलें ऊ मिलौक तेॅ, हम्मू फाँड़ी खोलिये केॅ बैठलोॅ छियै। तोरा डर्है के कोय बाते नै छै...तोरा सें काम छै...कल...तेॅ ठीक।"
जयन्तो के गोड़ एकदम थरथरावेॅ लागलै। मूँ सें लै केॅ भरी देह तांय में जेना झुरझुरी ढुकी गेलोॅ रहेॅ। काहीं वै दोनों में सें कोय ओकरा देखी नै लै आरो कोॅन ठिकानोॅ..." ई सोचत्हैं जयन्तो के सौंसे बदन सिल हुऐॅ लागलै। वैं आपनोॅ सांस केॅ एकदम सें बंद करलकै आरो रेंगतें होलेॅ ऊ मूर्त्ति के पीछू छिपी गेलै। धोती के एक छोर सें आपनोॅ मूँ ई रँ ढांकी लेलकै कि नीन आवी गेला के कारण वाहीं पर कोय मुसाफिर ओघराय गेलोॅ रहेॅ। ऊ तब तांय ओघरैले रहलै, जब तांय गुमटी बंद नै होय गेलै।